मंगलवार, 22 मार्च 2011

मेरे चित्रों के बारे में- आधी आबादी और मेरे चित्र

डा. लाल रत्नाकर



आधी आबादी और मेरे चित्र 
डा. लाल रत्नाकर
                  दुनिया जिसे आधी आबादी कहती है वही आधी आवादी मेरे चित्रों की पूरी दुनिया बनती है.
                  यही वह आवादी है जो सदियों से संास्कृतिक सरोकारों को सहेज कर पीढ़ियों को सौंपती रही है वही संस्कारों का पोषण करती रही है. कितने शीतल भाव से वह अपने दर्द को अपने भीतर समेटे रखती है और कितनी सहजता से अपना दर्द छिपाये रखती है. कहने को वह आधी आबादी है लेकिन षेश आधी आबादी यानी पुरूशों की दुनिया में उसकी जगह सिर्फ हाशिऐ पर दिखती है जबकि हमारी दुनिया में दुख दर्द से लेकर उत्सव-त्योहार तक हर अवसर पर उसकी उपस्थिति अपरिहार्य दिखती है जहां तक मेरे चित्रों के परिवेश का सवाल है, उनमें गांव इसलिए ज्यादा दिखाई देता है क्योंकि मैं खुद अपने आप को गांव के नजदीक महशूस करता हूॅं सच कहूॅ तो वही परिवेश मुझे सजीव, सटीक और वास्तविक लगता है. बनावटी और दिखावटी नहीं. 
                 बार-बार लगता है की हम उस आधी आवादी के ऋणी हैं और मेरे चित्र उऋण होने की सफल-असफल कोशिश भर है.

नारीजाति की तरंगे-

               मेरे चित्रों की ‘नारीजाति की तरंगे’ शीर्षक से इन दिनों एक चित्र प्रदर्शनी ललित कला अकादमी, रवीन्द्र भवन की कलादीर्घा 7 व 8 में 19 मार्च 2011 तक चलेेंगी, प्रदर्शनी प्रातः 11 बजे से सायं 7 बजे तक खुली रही  है। 

               इस चित्र प्रदर्शनी में नारीजाति की तरंगे विषय को केन्द्र में रखकर चित्रों का चयन करके उन्हें प्रदर्शित किया गया है जिनमें भारतीय नारीजाति की विविध आयामी स्वरूपों का दृश्याकंन किया गया है जिनमें-यह दिखाने का प्रयत्न किया गया है जिनमें जिस रूप में स्त्रियां जन्म से लेकर अब तक आकर्शित, प्रभावित और उत्प्रेरित करती आयी हैं परंतु इनकी अपनी व्यथा है जो पढ़ना बहुत ही सरल होता है. आप मान सकते हैं कि मैं पुरुषों को उतनी आसानी से नहीं पढ़ पाता हूं । मैने बेशक स्त्रियों को ही अपने चित्रों में प्रमुख रुप से चित्रित किया है, क्योकि मुझे नारी सृजन की सरलतम उपस्थिति के रूप में परिलक्षित होती रहती है कहीं कहंी के फुहड़पन को छोड़ दंे तो वे आनन्दित करती आयी हैं जिसे हम बचपन से पढ़ते सुनते और देखते आए हैं यदि हम यह कहें कि नारी या श्रृंगार दोनों में से किसी एक को देखा जाए तो दूसरा स्वतः उपस्थित होता है ऐसे में सृजन की प्रक्रिया वाधित नहीं होती वैसे तो प्रकृति, पशु, पक्षी, पहाड,़ पठार और पुरूष कभी कभार बन ही जाते हैं. परन्तु शीतलता या सुकोमल लता के बदले किसी को चित्रित किया जा सकता है तो वह सम्भवतः नारी ही है.
                 मेरी स्त्रियां सीता नहीं हैं कृष्ण की राधा नहीं है और न ही रानी लक्ष्मीबाई हैं ये स्त्रियां खेतों खलिहानों में अपने पुरूषों के साथ काम करने वाली जिन्हें वह अपना राम और कृष्ण समझती हैं लक्ष्मीबाई जैसे नहीं लेकिन अपनी आत्म रक्षा कर लेती हैं वही मुझे प्रेरणा प्रदान करती हैं।

                 मेहनतकश लोगों की कुछ खूबियां भी होती हैं जिन्हें समझना आसान नहीं है यदि उन्हें चित्रित करना है तो उनके मर्म को समझना होगा उनके लय उनके रस के मायने जानना होगा, उनकी सहजता उनका स्वाभिमान जो पूरी देह को गलाकर या सुखाकर बचाए हैं दो जून रूखा सूखा खाकर तन ढक कर यदि कुछ बचा तो धराउूं जोड़ी का सपना और सारी सम्पदा समेटे वो जैसे नजर आते हैं वैसे होते नहीं उनका भी मन है मन की गुनगुनाहट है जो रचते है अद्भूद गीत संगीत व चित्र जिन्हें लोक कह कर उपेक्षित कर दिया जाता है उनका रचना संसार और उनकी संरचना मेरे चित्रों में कैसे उपस्थित रहे यही प्रयास दिन रात करता रहता हूं. उनके पहनावे उनके आभूषण जिन्हें वह अपने हृदय से लगाये रात दिन ढ़ोती है वह सम्भव है भद्रलोक पसन्द न करता हो और उन्हें गंवार समझता हो लेकिन इस तरह के आभूषण से लदी फदी स्त्रियां उस समाज की भद्र मानी जाती है ये भद्र महिलाएं भी मेरे चित्रों में सुसंगत रूपों में उपस्थित रहती हैं मेरे ग्रामीण पृष्ठभूमि के होने मतलब यह नहीं है कि मैं और भी विषय का वरण अपनी सृजन प्रक्रिया के लिये नहीं कर सकता था पर मेरे ग्रामीण परिवेश ने मुझे पकड़े रखा ऐसा भी नहीं मैंने छोटी सी कोशिश भर की है उनको समझने की।
                  जिस स्त्री का मेरी कला से सरोकार है मूलतः वह रंगों के प्रति सजग होती है उसे प्रारम्भिक रंगो से गजब का लगाव है जिन्हे वह सदा वरण करती हैं,मूलतः ये मूल रंग इनके मूल में बसे होतेे हैं यथा लाल पीला नीला बहुत आगे बढ़ी तो हरा बैगनी और नारंगी इसके सिवा उसके जीवन में जो रंग दिखाई देते हैं वह सीधे सीधे कुछ अलग ही संदेष सम्प्रेषित करते हैं इन रंगो मे प्रमुख हैं काला और सफेद जिनके अपने अलग ही पारम्परिक सन्दर्भ हैं .
                  इन रंगो के साथ उसका सहज जुडाव उसे प्रकृति और सत्य के समीप रखता है, उत्सव एवं पारम्परिक मान्यताएं भी इन चटख रंगो को अंगीकृत करते हैं।

                  आज के बदलते दौर में हमारी स्त्री उतनी प्रभावित नहीं हो रही है, लेकिन अगली पीढ़ी सम्भव है तमाम बदलते सरोकारों को स्वीकारे लेकिन निकट भविष्य में मूलतः जो खतरा दिखाई दे रहा है वह यह है कि इस आपाधापी में उसकी अपनी पहचान ही न खो जाए.समकालीन दुनिया के बदलते परिवेष के चलते आज बाजार वह सामग्री परोस रहा है जो उस क्षेत्र तो क्या उस पूरे परिवेश तक की वस्तु नही है इसका मतलब यह नही हुआ कि मैं विकास का विरोधी हूं लेकिन जिन प्रतीकों से मेरा रचना संसार समृद्ध होता है उसमें आमूल चूल परिवर्तन एक अलग दुनिया रचेगा जिससे सम्भवतः उस परिवेश विशेष की निजता न विलुप्त हो जाए।
                  सहज है वेशकीमती कलाकृतियां समाज या आमजन के लिए सपना ही होंगी मेरा मानना इससे भिन्न है जिस कला को बाजार का संरक्षण मिल रहा है उससे कला उन्नत हो रही है या कलाकार सदियों से हमारी कलायें जगह जगह विखरी पड़ी हैं अब उनका मूल्यांकन हीे भी तो उससे तब के कलाकारों को क्या लाभ. आज भी जिस प्रकार से बाजार कला की करोड़ो रूपये कीमत लगा रहा है बेशक उससे कलाकारों को प्रोत्साहन मिलता है वह उत्साहित होता है लेकिन यह खोज का विषय है कि यह करोड़ो रूपये किन कलाकारों को मिल रहे हैं. कम से कम समाज ने तो इसे सुन सुन कर कलाकार को सम्मान देना आरम्भ कर दिया है कल तक जहां कला को कुछ विशेष प्रकार के लोगों का काम माना जा रहा था आज हर तबके के लोग कलाकार बनने की चाहत रखते हैं इससे कलाकार की समाज में प्रतिष्ठा बढ़ी है। 
Contact-artistratnakar@gmail.com
बहस -

लाल रत्नाकार की पेंटिंग पर बैठक
०१ मई २०११ स्थान आर-२४,राजकुंज, राजनगर, गाजियाबाद |
इस बार की बैठक डा. लाल रत्नाकार की पेंटिंग और उनकी कला यात्रा पर
केंद्रित थी। पिछले महीने ही मंडी हाउस में उनकी कृतियों की प्रदर्शनी
लगाई गई थी और तभी से बैठक के साथी उस पर बहस करना चाहते थे। पहली मई को
हुई इस बैठक की शुरुआत लाल रत्नाकार ने ही की और बताया कि किस तरह वे
अपने गांव की दीवारों को कोयले और गेरू से रंगते हुए कला की ओर मुड़े।
दरअसल वहीं उनकी रचना प्रक्रिया के बीज पड़ गए थे। यह भी दिलचस्प है कि
वे स्कूल में विज्ञान के छात्र थे और तभी जीव विज्ञान के चित्र बनाते हुए
उनके लिए खुद को अभिव्यक्त करने का ऐसा फलक मिल गया, जो उन्हें देश की
कला दीर्घाओं तक ले आया। इसके बाद चर्चा की शुरुआत करते हुए जगदीश यादव
ने कहा कि रत्नाकार के अधिकांश चित्र में स्त्रियां खामोश नजर आती हैं।
उन्होंने सवाल किया कि आखिर सबको चुप क्यों किया गया है। उन्हें कुछेक
पेंटिग्स की कंपोजिशन को लेकर भी आपत्ति थी। बैठक के वरिष्ठ साथी तड़ित
दादा ने कहा, मैं अपने आसपास जो कुछ घटता देख रहा हूं, मेरे लिए पेंटिग
भी उसी का हिस्सा है। रत्नाकार के चित्र बहुत खामोश लगे, कुछ जगह रंग
अटपटा भी लगा। कहीं-कहीं चित्रकार की जिद भी दिखती है। सुदीप ठाकुर ने
कहा कि रत्नाकार की पेंटिंग में एक तरह का सिलसिला दिखता है और लगता है
कि हर अगली पेंटिंग पिछली की कड़ी है। जिस तरह से कहा जाता है कि कोई भी
कवि जिंदगी भर एक ही कविता लिखता है शायद चित्रों के बारे में भी ऐसा ही है।

प्रकाश ने रत्नाकार की पेंटिंग के बहाने कला के तार्किक आयाम की चर्चा
की। प्रकाश के मुताबिक रत्नाकार जी की लाइनें मजबूत हैं। चित्रों में
महिलाएं पुरुषों से सख्त नजर आती हैं, यदि मुख्य आकृति के साथ पूरा
परिवेश होता तो शायद ये चित्र कहीं ज्यादा प्रभावी होते। पार्थिव कुमार
ने जानना चाहा कि चित्र बनाना या पेंटिंग बनाना कहानी लिखने से कितना अलग
है? दोनों रचनाकर्म में क्या फर्क है। राम शिरोमणि ने कहा कि रत्नाकार के
चित्र खूबसूरत लगते हैं, लेकिन पात्र मूक लगते हैं। उनके मुताबिक जीवन
सीधा-सपाट नहीं है। यदि चित्रों में हरकत नहीं होगी तो वे निर्जीव
लगेंगे। उन्होंने कहा कि रचना से पता चलता है कि वस्तुस्थिति कैसी थी।
रचनाकार उसमें जोड़ता-घटाता है। प्रो. नवीन चाँद  लोहनी ने  कहा कि अंत तय कर कहानी
नहीं लिखी जा सकती। यही बात  कला के साथ है। व्यावसायिक दृष्टिकोण अलग हो
सकते हैं। उन्होंने कहा कि रत्नाकार के चित्रों के चेहरे कई बार मेरे
जैसे लगते हैं, गांव के चेहरे लगते हैं। उन्होंने इन चित्रों के मूक होने
के तर्क को खारिज करते हुए कहा कि कई बार मूक वाचन का भी अर्थ होता है।
विनोद वर्मा ने दिलचस्प लेकिन महत्वपूर्ण बात कही कि रचना और रचनाकार
दोनों को जानने से कई बार निष्पक्षता और निरपेक्षता खत्म हो जाती है।
इसमें खतरा है और उन्हें यह खतरा रत्नाकार और उनके चित्रों के साथ भी
महसूस हुआ। उनके चित्रों पर लिखी अपनी दो कविताएं- सुंदर गांव की औरतें
और कहां हैं वे औरतें, भी पढ़ी। उन्होंने कहा कि रत्नाकार के चित्रों को
देखकर लगता है कि वे किसी यूटोपिया की बात कर रहे हैं।  ये औरतें ऐसी
हैं, तो गांव की औरतें ऐसी नहीं होतीं। उनके चित्र एक धारा के दिखते हैं,
मगर धारा का एक खतरा भी है कि यदि धारा कहीं पहुंच नहीं रही है। विनोद के
मुताबिक रत्नाकार के चित्रों में चकित करने वाला तत्व नदारद है।
अंत में लाल रत्नाकार ने कहा कि उन्हें बैठक के जरिये अपने चित्रों को नए
सिरे से देखने का मौका मिला। विनोद के तर्कों से असहमत होते हुए उन्होंने
कहा कि मैं जिस परिवेश से आया हूं वहां चकित करने वाले तत्व नहीं हैं।
कुमुदेश जी और श्री कृष्ण जी  की उपस्थिति श्रोताओं जैसी ही रही .











































डॉ.वर्तिका नंदा की कविता की किताब और मेरी तस्वीर -

इस किताब से मेरा जुडाव एक संयोग ही है श्री अशोक जी का फोन आता है की वर्तिका जी आपसे बात करना चाहती हैं उन्हें नंबर मैंने दे दिया है, हल्का सा परिचय भी उन्होंने ने दे ही दिया था नाम तो मैंने सुन ही रखा था वर्तिका जी का इसलिए भी थोड़ी उत्सुकता भी थी. फिर एक दिन फोन बज उठा उधर से बहुत ही सलीके की आवाज आयी 'मैं वर्तिका नंदा' बोल रही हूं जी जी कर मैंने बताया की आपके फोन की तो मुझे प्रतीक्षा थी. सभी औपचारिक बातचीत के उपरांत 'किताब पर बात शुरू हुयी' उनकी और से कुछ कवितायेँ भी आयीं मैंने उन्हें पढ़ा तो मुझे लगा की मामला जरा सा अटपटा सा है इनको जिस जीवंत और उनकी कविताओं का ही कोई पात्र किताब के कवर पर रहना चाहिए तो मेरी हिम्मत जवाब देने लगी पर मैं हां हां करता रहा.

फिर मैंने आग्रह पूर्वक अपने ब्लॉग का लिंक भेजा ''http://ratnakarart.blogspot.in/''इसको देखने के बाद वर्तिका जी की प्रतिक्रिया जैसी थी ''बेहद कलात्मक, काव्यात्मक और भावनात्मक ब्लॉग। सही रंगों का चयन, एकदम सटीक प्रस्तुतिकरण और सब कुछ पूरी तरह से पूर्णता लिए। बहुत दिनों बाद ऐसी ताज़गी से भरपूर किसी ब्लॉग को देखा। रत्नाकर जी की पेंटिंग की महिलाएं आंतरिक द्वंद की कहानी कहते हुए भी मुखर हैं, सुंदर और सुखद। यह पेंटिंग्स औरत के एक अलग चेहरे को उभार कर लाती हैं। वैसे यह विश्वास करना ज़रा मुश्किल लगता है कि यह कमाल किसी पुरूष के ब्रश का है। इन पेंटिंग्स की आवाज़ बहुत दूर तक जाएगी।
वर्तिका नंदा 
प्राध्यापिका, लेडी श्रीराम कालेज नई दिल्ली ''
यथावत मैंने जोड़ दिया है वर्तिका जी के कथ्य को. पर अब मैं आश्वस्त था कि इस किताब के कवर पर मेरे चित्र को ही जगह मिलेगी . 
मेरा मानना है कि ये किताबें सहजतया अनेकों लोगों तक रचनाकार के सन्देश पहुंचाती हैं. 'राजकमल प्रकाशन कि खूबी भी है कि वह कथाकार, कवि के साथ चित्रकार को भी तरजीह देते हैं' यथा एक रचनाकार के नाते मुझे यह माध्यम बहुत ही प्रभावी जान पड़ा, कला के मूल्यांकन और प्रदर्शन के जितने माध्यम हों पर यह माध्यम जन जन तक सहजतया पहुँचता है.
इस पुस्तक में वर्तिका जी ने जिस नारी को केंद्र में रखकर कवितायें रची हैं वही मेरे चित्रों कि "आधी आबादी है" 
और मेरे चित्र दुनिया जिसे आधी आबादी कहती है वही आधी आवादी मेरे चित्रों की पूरी दुनिया बनती है.
यही वह आवादी है जो सदियों से सांस्कृतिक सरोकारों को सहेज कर पीढ़ियों को सौंपती रही है वही संस्कारों का पोषण करती रही है. कितने शीतल भाव से वह अपने दर्द को अपने भीतर समेटे रखती है और कितनी सहजता से अपना दर्द छिपाये रखती है. कहने को वह आधी आबादी है लेकिन शेष आधी आबादी यानी पुरूषों की दुनिया में उसकी जगह सिर्फ हाशिऐ पर दिखती है जबकि हमारी दुनिया में दुख दर्द से लेकर उत्सव-त्योहार तक हर अवसर पर उसकी उपस्थिति अपरिहार्य दिखती है जहां तक मेरे चित्रों के परिवेश का सवाल है, उनमें गांव इसलिए ज्यादा दिखाई देता है क्योंकि मैं खुद अपने आप को गांव के नजदीक महशूस करता हू सच कहू तो वही परिवेश मुझे सजीव, सटीक और वास्तविक लगता है. बनावटी और दिखावटी नहीं. 
बार-बार लगता है की हम उस आधी आवादी के ऋणी हैं और मेरे चित्र उऋण होने की सफल-असफल कोशिश भर है.
मुझे उम्मीद है कि पाठक के मन को इस पुस्तक के साथ आये मेरे इस चित्र और वर्तिका जी के चयन तथा राजकमल प्रकाशन के डिजायनर के प्रयास स्पर्श कर पायेंगे.



3 टिप्‍पणियां:

पूर्णिमा वर्मन ने कहा…

रत्नाकर जी,
आप बेमिसाल कलाकार तो हैं ही, उसके विषय में कुछ कहना तो सूरज को चिराग दिखाना है, पर आपका यह लेख मुझे बहुत भाया। मेहनतकश लोगों की कुछ खूबियां ... इन शब्दों से जो अनुच्छेद शुरू होता है वह भारतीय समाज के प्रति आपकी गहरी समझ का परिचायक है साथ ही यह भी पता चलता है कि आप अपनी तमाम उपलब्धियों के बावजूद जमीन से किस तरह जुड़े है। आज के भारत को ऐसे ही लोगों की आवश्यकता है। आपकी तमाम भारतीयता आपके रंगों और आकारों में झलकती है। इस रचनाधर्मिता के लिये अनेक शुभकामनाएँ !

priyanka ने कहा…

awsome

Vividhaa ने कहा…

Wonderful Art, Congrats.