गुरुवार, 30 जून 2011

नजरिया


आधी आबादी और मेरे चित्र 
                  दुनिया जिसे आधी आबादी कहती है वही आधी आवादी मेरे चित्रों की पूरी दुनिया बनती है.
                  यही वह आवादी है जो सदियों से सांस्कृतिक सरोकारों को सहेज कर पीढ़ियों को सौंपती रही है वही संस्कारों का पोषण करती रही है. कितने शीतल भाव से वह अपने दर्द को अपने भीतर समेटे रखती है और कितनी सहजता से अपना दर्द छिपाये रखती है. कहने को वह आधी आबादी है लेकिन शेष आधी आबादी यानी पुरूषों की दुनिया में उसकी जगह सिर्फ हाशिऐ पर दिखती है जबकि हमारी दुनिया में दुख दर्द से लेकर उत्सव-त्योहार तक हर अवसर पर उसकी उपस्थिति अपरिहार्य दिखती है जहां तक मेरे चित्रों के परिवेश का सवाल है, उनमें गांव इसलिए ज्यादा दिखाई देता है क्योंकि मैं खुद अपने आप को गांव के नजदीक महशूस करता हूँ सच कहूँ तो वही परिवेश मुझे सजीव, सटीक और वास्तविक लगता है. बनावटी और दिखावटी नहीं. 
                 बार-बार लगता है की हम उस आधी आवादी के ऋणी हैं और मेरे चित्र उऋण होने की सफल-असफल कोशिश भर है.
-डा. लाल रत्नाकर
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नजरिया
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डा. लाल रत्नाकर के चित्रों का मैं प्रशंसक हूं। उन्होंने गांव- चौपाल के लोगों की आत्मीय जिन्दगी को अपना केन्द्र बनाया है। प्रायः वे प्रकृति और श्रम के साथ जुड़े स्त्री-पुरूषों को प्रियदर्शी चटख रंगो में चित्रित करते हैं, शायद इसीलिए उत्सवी माहौल बना रहता है। वे जीवन और जमीन के चित्रकार हैं। इधर स्थूल रूपाकारों की सीमाओं को तोड़करवे अपनी बात को गहरे अर्थ देने की कोशिश कर रहे हैं - यही फोटोग्राफी और चित्रकला में अन्तर है। मुझे उनके अगले विकास की प्रतीक्षा है। उनकी सफलता के लिए मेरी अनेक शुभकामनाएं...............
राजेन्द्र यादव,
कथाकार, संपादक: हंस


ग्राम्य जीवन को उकेरती हुयी बोलती हुयी रेखाएं और उनका अंतर्द्वंद .
डॉ.प्रभा खेतान 
प्रख्यात साहित्यकार 
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धूसर प्रान्तर के अंचल में,
रंगों रेखाओं का विधान ।
आक्षितिज सृष्टि के विविध रूप,
उनके चित्रों में दृश्यमान ।।
उपरोक्त काब्य पंक्तियों के आलोक में डा.लाल रत्नाकर की चित्रात्मक सृजनशीलता पर विचार करें तो उनके रचना संसार का सम्पूर्ण परिदृश्य हमारे नेत्रों के सम्मुख उजागर हो जाएगा।
डा. लाल रत्नाकर ने जिस ग्राम्य इतिवृत्त को अपनी कला का उपजीव्य बनाया है उसे कविवर सुमित्रानन्दन पन्त की काव्य भाषा में भारत माता ग्रामवासिनी के रूप में सहज व्याख्यायित किया जा सकता है।
डा. लाल रत्नाकर के छोटे बड़े सभी रंगायित चित्रों में खेत, खलिहान, पशु-पक्षी, पेड़, सर, सरिता और मानवीय आभा के शत शत रूप अंकित होते दीख पड़ते हैं। भारत के सम्पूर्ण कला जगत में वह एक ऐसे विरल चितेरे हैं जिन्होंने अनगढ़, कठोर और श्रम स्वेद सिंचित रूक्ष जीवन चर्या को इतने प्रकार के रमणीक रंग-प्रसंग प्रदान किए हैं कि भारतीय आत्मा की अवधारणा और उसका मर्म खिल उठा है।
आज रंग संसार में जिस प्रकार की अबूझ अराजकता दिनों दिन बढ़ती जा रही है उनका सहज चित्रांकन न केवल उसे निरस्त करता है वरन भारतीय परिवेश की सुदृढ़ पीठिका को स्थापित भी करता है।
जीवन संगीत को एक मधुर लयात्मक गति देने वाले डा. लाल रत्नाकर के इस अनूठे रचना प्रसार को देखकर विष्वास होता है कि जन जीवन में व्यापक पैठ बनाने वाली उनकी विविधवर्णी तूलिका की छटा हमें निरन्तर दृष्टि और विचार संपन्न बनाने की दिशा में संकल्पवती बनी रहेगी।
से.रा.यात्री
प्रख्यात साहित्यकर्मी 
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रत्नाकर की कला में ग्रामीण परिवेश का वह हिस्सा जगह बनाता है जो सदियों से उपेक्षित रहा है. इस समाज की विविध छवियां सहज ही इनके चित्रों का विषय बन गयी हैं यह समाज अपने समस्त राग द्वेष और उत्सवों के साथ हमारे समक्ष एकाएक उपस्थित होता है तो हम शहरी परिवेश से निकलकर अपने उस यथार्थ धरातल पर पहुंच जाते है जो हमारे अंतर्मन में कहीं गहरे तक समाया हुआ है।
सन्तोष कुमार यादव
आई.ए.एस.
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I met Dr. Lal Ratnakar at Amritsar art camp organised by AIFACS just a couple of years ago. It followed by an artist camp at Gaziabad where Dr Ratnakar himself was the organizer.
Dr Ratnakar as I found, is an aware art teacher, a promising painter and an organizer of great capabilities. As a painter, I found in him an intricate observer delving with his innate concerns for the locale where, people, nature and even myth become a source of reverie to him. Dr. Ratnakar in these works seems to be welded to the imaginary camera as if observing the world around as a photo– realist. Hear he seems to be transforming his inner metaphysical world and the syntax for a transcription of the visual world into form.
In nut-shell, this artist has opened up all the chapters of his inner world exposing clues, the world-view of the artist in him.
P.N. Choyal 
Renowned Painter 
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A- Never ending urge to explore. B- Tenacity of purpose. C- One point agenda in life. No wonder why Dr. Lal Ratnakar looks taller than his contemporaries.
AABID SURTI
Renowned Painter, Cartoonist and Literature   
      
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For the first time I have seen painting exhibition on village theme. I am very much touched by the selection of simple subjects and the artists ability to bring out the expressions in such a way that even a common man can understand. It is a marvelous expression of artist's thought process on a common theme. I would like to congratulate the artist and wish him all the best in all his future endeavors.
Padmashree Dr. LALJI SINGH, 
Director, CCMB, Hyderabad AP
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Ratnakar's paintings and drawings are free from western art influences and deliberately ignored so called Indian urban sensibilities. But they are very much contemporary. They are the representatives of rural India .
Ratnakar has deep understanding of socio-economic, socio-cultural and socio-political conflicts of north Indian states and their knowledge reflects in his works and often strengthens it. His bold and powerful lines make his work distinctive and his bright colours make them inspiring.
Vinod Verma
Producer,
BBC WORLD SERVICE
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स्नेही रत्नाकर जी,
नमस्कार
आपका ब्लॉग देखा। नारी जीवन को, विशेषकर ग्राम्य नारी की विभिन्न छवियों और भावभंगिमाओं को जैसी रेखाओं और रंगों में आपने उभारा है, जैसा उनकी रूह को बोलते हुए दिखाया है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। आपको बहुत बधाइयाँ। 
आपका प्रशंसक  (प्रख्यात साहित्यकार)
कुँवर बेचैन 
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(पिछले दिनों मेरे चित्रों की एक प्रदर्शनी ललित कला अकेडमी नई दिल्ली  की गैलरी सात और आठ में आयोजित हुयी जिसमें अनेक गणमान्य अतिथि शरीक हुए जिन्होंने कुछ न कुछ मेरे चित्रों के विषय में लिखा है . उनके विचारों को यहाँ दे रहा हूँ) -

"महिलाओं के एसे रूप जो आजकल नज़र नहीं आते, औरतें जो तरक्की की खान हैं, लेकिन अपने को व्यक्त नहीं कर पा रहीं; उनकी समग्र शक्ति और रचना का दर्शन करने के लिए डॉ.लाल रत्नाकर बधाई के पात्र हैं."
श्री संतोष भारतीय
संपादक 'चौथी दुनिया'

"वर्तमान परिदृश्य में मिडिया अथवा कला जगत में भारत को देख पाना कुछ मुश्किल हो गया है ! डॉ.लाल रत्नाकर के चित्रों भारत, भारत का ग्रामीण जीवन, ग्रामीण परिवेश देखकर ख़ुशी हुयी . महिलाओं की छवियों को  विविध रूपों , आयामों में देखना एक सुखद अनुभव रहा . बहुत २ बधाई एवं शुभकामनाएं .
डॉ.लक्ष्मी शंकर वाजपेयी
केंद्र निदेशक 'आकाशवाणी' नई दिल्ली

Pl. go on - as vibrantly as you can ! 
डॉ.अशोक वाजपेयी 
अध्यक्ष 'ललित कला अकादमी' नई दिल्ली

मैं रत्नाकर के चित्रों का प्रसंशक हूँ. उनके चित्र भारत की आत्मा हैं जिनसे यहाँ के सामान्य से सामान्य जन मानस की 'छवि' दिखती है।  
श्री उदय प्रताप सिंह 
कवि एवं चिन्तक

ग्राम्य परिवेश में औरतों की भाव-भंगिमाएं, जिसमें वहां की अनेक विसंगतियां उभरती हैं , देखना ! सचमुच सुखद है. कुछ नए चित्रों और रेखांकनों में जीवन जिस तरह अभिव्यक्त है, वह कम सराहनीय नहीं . बधाई ! शुभकामनायें!
श्री हीरा लाल नागर
अहा ! जिंदगी


डॉ.रत्नाकर की कला प्रदर्शनी लोक जीवन का रंगोत्सव है . लोक मुहावरे की पकड़ और आधुनिकता के प्रयोग ने इनके कलाकर्म को विशिष्ट बनाया है. बधाई !
श्री प्रदीप सौरभ 
पत्रकार एवं साहित्यकार 

श्रमशील ग्रामीण  महिलाएं - एक लुप्त होती हुयी प्रजाति - रत्नाकर जी की दृष्टि और संवेदना की दाद दे रहा हूँ . नुह की नाव की तरह कुछ बचा लिया जाय भविष्य के लिए-----! 
श्री संजीव 
साहित्यकार एवं कार्यकारी संपादक 'हंस'

स्त्री विहीन लोक जीवन की कल्पना ही असंभव है . आप ने इसी जीवन की विभिन्न छवियों को, जीवन की श्रम संस्कृति को जिस तरह रचा है, उसके लिए बार बार बधाई .
श्री राम कुमार 'कृषक' 
पत्रकार एवं साहित्यकार

अद्भुत
प्रो.प्रमोद कुमार यादव
स्कूल आफ लाइफ साइंस
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली

It is an excellent expression of women & village in unique colour compositions reminding Gandhiji's concept of India; a federation of seven lakh villages, the cultural spirit of India.
प्रो.पी. सी. रथ  
स्कूल आफ लाइफ साइंस
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली 

ये रंग - रेखाएं 
जैसे बोल उठेंगी 
अभी अभी 
जिवंत , संवेद्य 
मैं महसूस कर सकता हूँ इनमें 
अपनी और 
अपनी माटी की गंध.
कितने अपने आस पास है .
डॉ.चन्द्र देव यादव
हिंदी विभाग, जामिया मिल्लिया इस्लामिया नई दिल्ली 


कल मैंने आपकी पेंटिंग देखीं थीं। अभिभूत हूँ उन्हें देख कर। अन्य चित्र प्रदर्शनियों के समान आपकी चित्र प्रदर्शनी फर्नीचर की दुकान समान नहीं थीं। लाल रत्नाकर जी के चित्रों से रू ब रू होते ही आप एक सम्मोहन में बंध जाते हैं मानो। पेंटिंग के पात्र-दृश्य-रंग-ब्रुश स्ट्रोक मानो सांस लेते हैं आपके साथ। उनके दर्द में आप उदास होने लगते हैं, उनके उल्लास में आप मानो नाचने के लिए आतुर होने लगते है। पेंटिंग्स के बीच में खड़े हो कर लगता है मानो किसी भूले-बिसरे मित्र ने अचानक आप को छू लिया हो और धीरे से मानों कान में कहा हो-" इतने दिन बाद आए ! मैं कब से प्रतीक्षा कर रहा था/रही थी " रंग मानो आपके अंतस में पैठ कर आपको सराबोर कर देते है। ब्रुश स्ट्रोक ऐसे कि लगे मानो अभी भी पात्रों को सहला रहे हों। जीवन की कठोरता, दारिद्र्य में भी पात्रों,दृश्यों,रंग, संयोजन की कोमलता बनी          रहती है। मैं अभिभूत हूँ। धन्यवाद रत्नाकर जी.
श्री उमराव सिंह जाटव 
लेखक, नई दिल्ली 
हिन्दी लेखक हैं । उपन्यास 1, कहानी संग्रह 1, कविता संग्रह 2 पुस्तकें छप चुकी हैं। उपन्यास पर श्री लक्षमी प्रसाद कर्ष ने गुरु घासी दास विश्वविद्यालय से एम फिल । देश की बहुत सारी हिन्दी पत्रिकाओं में कहानी और कविताएँ छपी हैं। घोर नास्तिक हैं। लेकिन मन-वचन-कर्म से बौद्ध हैं| केन्द्रीय सुरक्षा बल में अधिकारी रहे है.
यों तो पूरी-की-पूरी बातचीत ही स्तरीय और उल्लेखनीय है, लेकिन अपनी कलाकृतियों में चित्रित स्त्री के बारे में आपका यह मंतव्य उस भद्र-समाज के समक्ष प्रस्तुत करने योग्य है जिसकी दृष्टि स्त्री की विवशता, उसकी निर्धनता, उसकी श्रमशीलता को ग्लैमर के नित नये कोण से देखने की अभ्यस्त हो चुकी है:"मेहनतकश लोगों की कुछ खूबियां भी होती हैं जिन्हें समझना आसान नहीं है. यदि उन्हें चित्रित करना है तो उनके मर्म को समझना होगा. उनके लय, उनके रस के मायने जानना होगा. उनकी सहजता, उनका स्वाभिमान जो पूरी देह को गलाकर या सुखाकर बचाए हैं, दो जून रूखा-सूखा खाकर तन ढ़क कर यदि कुछ बचा तो धराऊं जोड़ी का सपना और सारी सम्पदा समेटे वो जैसे नजर आती हैं, वस्तुत: वैसी वो होती नहीं हैं.उनका भी मन है, मन की गुनगुनाहट है, जो रचते है अद्भूद गीत, संगीत व चित्र जिन्हें लोक कह कर उपेक्षित कर दिया जाता है. उनका रचना संसार और उनकी संरचना मेरे चित्रों में कैसे उपस्थित रहे, यही प्रयास दिन-रात करता रहता हूं. मेरे ग्रामीण पृष्ठभूमि के होने मतलब यह नहीं है कि मैं किसी दूसरे विषय का वरण अपनी सृजन प्रक्रिया के लिये नहीं कर सकता था पर मेरे ग्रामीण परिवेश ने मुझे पकड़े रखा."
-बलराम अग्रवाल 
लेखक, नई दिल्ली 


आपका ब्लाग तो सृजन की अनंत सम्भावनाओ से भरा है। ग्राम्य औरतो के इतने मार्मिक चित्र एकत्र इससे पहले नही देखे। स्त्री वेदना की संवेदना को विस्तार देते आपके चित्र बहुत कहते हैं। ये चित्र सहज जनवादी ढंग से स्त्री मन की विवेचना करते हैं। हार्दिक बधाई। 
-भारतेंदु मिश्र 
साहित्यकार नई दिल्ली 
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डॉक्टर लाल रत्नाकर की पेंटिंग ने देश भर में अपनी खास पहचान बनाई है. प्रेमचंद ने जिस तरह हिंदी साहित्य में गांव को स्थापित किया, वही काम रत्नाकर कला की दुनिया में अपनी पेंटिंग के सहारे कर रहे हैं.
-अर्पणा कौर 
प्रख्यात चित्रकार 
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रत्नाकर जी, आप बेमिसाल कलाकार तो हैं ही, उसके विषय में कुछ कहना तो सूरज को चिराग दिखाना है, पर आपका यह लेख मुझे बहुत भाया। मेहनतकश लोगों की कुछ खूबियां ... इन शब्दों से जो अनुच्छेद शुरू होता है वह भारतीय समाज के प्रति आपकी गहरी समझ का परिचायक है साथ ही यह भी पता चलता है कि आप अपनी तमाम उपलब्धियों के बावजूद जमीन से किस तरह जुड़े है। आज के भारत को ऐसे ही लोगों की आवश्यकता है। आपकी तमाम भारतीयता आपके रंगों और आकारों में झलकती है। इस रचनाधर्मिता के लिये अनेक शुभकामनाएँ ! 
पूर्णिमा वर्मन 
संपादक -अनुभूति व अभिव्यक्ति / शारजाह 

बेहद कलात्मक, काव्यात्मक और भावनात्मक ब्लॉग। सही रंगों का चयन, एकदम सटीक प्रस्तुतिकरण और सब कुछ पूरी तरह से पूर्णता लिए। बहुत दिनों बाद ऐसी ताज़गी से भरपूर किसी ब्लॉग को देखा।  रत्नाकर जी की पेंटिंग की महिलाएं आंतरिक द्वंद की कहानी कहते हुए भी मुखर हैं, सुंदर और सुखद। यह पेंटिंग्स औरत के एक अलग चेहरे को उभार कर लाती हैं। वैसे यह विश्वास करना ज़रा मुश्किल लगता है कि यह कमाल किसी पुरूष के ब्रश का है। इन पेंटिंग्स की आवाज़ बहुत दूर तक जाएगी।

वर्तिका नंदा 
प्राध्यापिका, लेडी श्रीराम कालेज  नई दिल्ली
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डॉ.लाल रत्नाकर की कला से मेरा परिचय मेरे लंदन प्रवास के दौरान ही हो चुका था जब मैं वहाँ बीबीसी हिंदी में संपादक के तौर पर कार्यरत थी. लेकिन उन्हें बीबीसी से जोड़ने का श्रेय जाता है मेरे बीबीसी हिंदी के सहकर्मी विनोद वर्मा को जब उन्होंने डॉक्टर साहब से हिंदी पत्रिका के लिए कुछ रेखाचित्र बनाने का अनुरोध किया. बीबीसी हिंदी डॉट कॉम में साहित्यक पत्रिका एक नया प्रयोग था. इस पत्रिका में हर सप्ताह एक कहानी और कुछ कविताओं को स्थान दिया जाता था. विनोद जी का मानना था कि यदि हम इन रचनाओं के साथ रेखाचित्रों का इस्तेमाल करें तो एक नयापन ला  पाएँगे. मैं उनसे सहमत थी और इस तरह डॉक्टर लाल रत्नाकर बीबीसी हिंदी के साथ जुड़े. मुझे यह बताते हुए बड़ी प्रसन्नता हो रही है कि पाठकों ने जिस तरह इस नए प्रयोग को सराहा उसी प्रकार डॉ. रत्नाकर के बनाए चित्रों की भी प्रशंसा की. मैं तो यह कहूँगी कि उन रचनाओं की लोकप्रियता में इन चित्रों का काफ़ी बड़ा हाथ था.
डॉ. रत्नाकर के बनाए चित्र मैंने बाद में प्रदर्शनियों  और कई पुस्तकों के आवरण पर भी देखे. नारी की व्यथा, उसकी मनोभावना, उसकी सोच को जिस प्रकार उन्होंने कागज़ पर उकेरा वह विलक्षण है. प्रतीक्षारत नारी, कामकाजी स्त्री, फ़ुर्सत के क्षणों में गपशप करती महिलाएँ, सभी उनकी कूची के माध्यम से सजीव हो उठती हैं. सामान्यतः ग्रामीण परिवेश में जीने वाली महिलाओं पर उनका फ़ोकस रहा है और समाज का यह उपेक्षित वर्ग कैनवस पर विशिष्ट बन उठा.
मैं डॉक्टर लाल रत्नाकर की कला की प्रशंसक हूँ और मेरी शुभकामनाएँ सदैव उनके साथ हैं.
सलमा ज़ैदी
पूर्व संपादक,
बीबीसी हिंदी डॉट कॉम
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डॉ.लाल रत्नाकर की कला की जमीन आम जनसमाज की जमीन है. उसमें भी आधी आवादी के उस वर्ग के चेहरे उनकी पारखी नजर से पकड़ में आते हैं जो समकालीन कला की दुनिया में अपना अलग अस्तित्व बोध जगाती है, कला जीवन के लिए है, जीवन दायिनी स्त्री उनकी रेखाओं और रंगों की दुनिया के माध्यम से नए मुकाम तय करती है, मैं कला जगत में उनकी बड़ी और लम्बी पारी की उम्मीद करता हूँ. भारतीय ग्राम जगत की जननी के इस चित्रकार की कूंची से अभी बहुत श्रेष्ठ आना शेष है. उनकी इस विद्या का लाभ उनके विद्यार्थी वर्ग को भी मिल रहा है इससे उनकी कला का सशक्त अनुकरण करने वाला वर्ग भी पैदा हो रहा है.  
प्रो. नवीन चन्द्र लोहनी 
प्रोफ़ेसर एवं  अध्यक्ष 
हिंदी विभाग, चौ.चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ
लोक जीवन को व्यक्त करती हुयी कृतियाँ....
पवन कुमार 
आई.ए.यस.
साहित्यकर्मी 


परम स्नेहिल डॉ. रत्नाकर जी,
आपके चित्रों से उभरती नारी जीवन की अदभूत कहानियाँ ही है. आपकी न सिर्फ कल्पना है मगर एक सूझबूझ से और मनोवैज्ञानिक तरीके से नारी जीवन का गहन अभ्यास है. चित्रकारी आपके लिये गोड गिफ्ट है मगर सोच आपकी अपनी है. मैं आपकी कला को नमन करता हूँ.
*आपकी कलाकृति "नव्या" की रचनाओं को भी समय-समय पर सुशोभित करती है, यह हमारा सौभाग्य हैं. आभार.
- पंकज त्रिवेदी
प्रबंध संपादक, नव्या (ई-पत्रिका एवं त्रैमासिक),सुरेंद्रनगर- गुजरात
लाल रत्नाकर जी की पेंटिंग्स मुझे इस लिए विशिष्ट लगती हैं क्योकि इनके यहाँ हांड मांस का जीवित जागृत लोक है .ग्रामीण स्त्री पुरुष पशु पक्षी पेड़-पौधे हैं ताल पोखर हैं .जहाँ अमूर्तता और अबूझ आकृतियाँ आधुनिकता का मानदंड बन रही हैं,मुझे रत्नाकर जी की पेंटिग्स आश्वस्ति और सुकून देती हैं.
- शिवमूर्ति 
प्रख्यात कथाकार  
लखनऊ 
आप इतने बड़े कलाकार हैं ... हर एक चेहरा एक कहानी कहता प्रतीत होता है... मुझे पता नहीं था इतने बड़े कलाकार मेरे मित्र हैं (फेसबुक)...मुझे गर्व है ....
-कहकशां नसीम
भारतीय वन सेवा
उत्तराखण्ड प्रखण्ड
डॉ. लाल रत्नाकर के चित्र आधी दुनियां कही जाने वाली स्त्री की संवेदना और सत्य से साक्षात्कार कराते हैं| लाल रत्नाकर की स्त्री महानगरों की शिक्षित और अपनी स्वतंत्रता को जीती या जीने के लिए संघर्षा करती स्त्री नहीं है| वह गांव की अशिक्षित या अर्द्ध-शिक्षित स्त्री है जिसे अपने अधिकारों का ज्ञान भी शायद नहीं है| सच कहिए तो यही आधी दुनियां है| लाल रत्नाकर के चित्रों में प्रयुक्त रंग भी उसी पृष्ठभूमि के अनुरूप है| ये चित्र डॉ. लाल रत्नाकर की चेतना की स्वाभाविक उद्भूति हैं| बेहतरीन कला-कृतियों के लिए डॉ. लाल रत्नाकर जी को हार्दिक बधाई और शुभ-कामनाएं|
जय प्रकाश कर्दम
दलित लेखक
(पूर्व छात्र एम.एम.एच .कालेज गाजियाबाद)
आपके चित्राें में नारी का अंतर्मन चित्रित होता है। आपके चित्रों को निहारना एक अनुभव से होकर गुजरने जैसा है। सचमुच एक-एक चित्र किसी महाकाव्‍य से कम नहीं है।
ऋचा जोशी
संपादक; सुजाता 





अदभुत ………हर चित्र पर एक कविता लिखी जा सकती है ।

वंदना गुप्ता कवियित्री 


आपकी कलाकृतियों का जवाब नही ! आपके चित्रों की एक पहचान जो मेरे मन में बनी है वह है - जीवन, भावो और सम्वेदनाओं से भरे ज्यामितीय रेखाओं का अनूठा व ख़ास अंकन , जो समूची पृथ्वी और उसमे बसे जीवन को माप लेता है ! आपके चित्र एक तरह से ज्यामिति शब्द के अर्थ को भी सार्थक करते है ! यह एक यूनानी शब्द है : जियो - पृथ्वी और मेट्रिया - माप ! गहरी से मनन करे तो, रेखाओं से बने ' वर्ग, आयत, वृत्त ' जीवन में भी सक्रिय है ! कभी जीवन वर्गाकार है, तो कभी आयताकार तो, कभी वर्तुल बन एक रिश्ते या, एक व्यक्ति या, एक इच्छा के चारों ओर घूमने लगता है ! सौंदर्यशास्त्र के अनुसार 'चित्रकला' 64 कलाओं में से एक है ! यशोधर पंडित ने चित्रकला के छः अंग बताए थे - १) रूप (२) प्रमाण - सही नाप और संरचना आदि, (३) भाव - (भावना), (४) लावण्य योजना, (५) सादृश्य विधान, (६) वर्णिकाभङ्ग (रंगों का प्रभाव) ! ये सभी छह गुण आपकी कला में मौजूद हैं ! बधाई एवं नमन !
प्रो० दीप्ति  गुप्ता, 
कवयित्री (साहित्यकार), 
पुणे, महाराष्ट्र 

डॉ रत्नाकर आपकी चित्रकला ने मुझे विस्मित कर दिया है । नारी के भावनात्मक  पक्ष को इन आकृतियों में बखूबी उकेरा है आपने। रंग और रेखाओं  में लोक-कला का प्रखर समावेश नयनाभिराम है।
समाज के समसामयिक विषयों  को उजागर करते आपके हाइकु सहजता में  गम्भीरता  का परिचय देते हैं । 
बंधाई




डॉ. नीलम वर्मा 
कार्डियोलॉजिस्ट एवं कवि 
नई दिल्ली 


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समाचार पत्रों से -
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भाई आप लोक पुरोधा चित्रकार है। यह आप का अपना हक है !

नन्दल हितैषी  
(कवि एवं रंगकर्मी)
इलाहाबाद 






डॉ लाल रत्नाकर की कला में अद्भुत जीवन्तता है। गाँवों का परिवेश बिना लाग-लपेट के यूँ बतियाता है कि जिया लहालोट हो जाय। ग्राम्य बालाओं के विविध रूपों को परिधानों का मोहताज नहीं होना पड़ता वरन उनके नख-शिख तक समाए हाव-भाव उनकी इन्द्रियों से अधिक वाचाल हैं। गाँवों के खेत-खलिहान उनके राहबर हैं और पनघट के आमंत्रण उनकी तूलिका के संबल। 
ऐसे सहृदय और उद्देश्यपूर्ण कलाकार को शतशः शुभकामनाएँ ।
बी.आर. विप्लवी   
(लेखक, कवि एवं सहायक प्रबंधक, भारतीय रेलवे, भारत सरकार) लख़नऊ 

डा.लाल रत्नाकर के चित्रों का संसार भारत के सबसे उपेक्षित लेकिन सबसे बड़े हिस्से से उभरता है। मैं चित्रकला का पारखी या नियमित समीक्षक तो नहीं हूं लेकिन जितना देखा-जाना है, अपनी समकालीन चित्रकला में ग्रामीण-भारत की ऐसी छवियां और कहीं नहीं दिखतीं।
डा.रत्नाकार के पास रेखा, रूप और रंग की पारखी-नजर होने के साथ ही भारतीय जन-जीवन, समाज, उसके विभिन्न आयामों, अंतर्विरोधों और उसकी समस्त गत्यात्मकता को समझने की वैचारिकी भी है। यही बात उन्हें अपने कई अन्य समकालीनों में विशिष्ट बनाती है। 
उर्मिलेश    
(लेखक-पत्रकार : ग़ाज़ियाबाद)


मैं कला-विशेषज्ञ नहीं, कला का दर्शक-प्रशंसक मात्र हूँ! तथापि एक सामान्य दर्शक के रूप में मैं डॉ. लाल रत्नाकर की चित्रकला का प्रबल प्रशंसक हूँ!
प्रोफ़ेसर लाल रत्नाकर के चित्र उपेक्षित ग्रामीण समाज. दलित-आदिवासी जन और आधी आबादी कहलानेवाली नारी को केंद्र में रखकर सृजित होते हैं! नारी भी वह नहीं जो चमक-दमक वाले नगरीय परिवेश की सजी-धजी, चिकनी-चुपड़ी स्त्री हो ....अपितु भूख-गरीबी, कुपोषण और अशिक्षा के कारण संकटों से लडती जुझारू स्त्री !
इस वर्ग और चरित्र को रेखांकित करने और उसमें श्रम-सौन्दर्य की सृष्टि करने में डॉ. लाल रत्नाकर को महारत हासिल है!
उनकी कला-क्षमता के साथ-साथ उनकी सामाजिक दृष्टि को भी मैं प्रणाम करता हूँ!

- डॉ. धनञ्जय सिंह (कवि एवं लेखक)
(कादम्बिनी, साहित्यिक मासिक पत्रिका  ; से सेवानिवृत)
गाजियाबाद 
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चित्रकार डॉ. लाल रत्नाकर अपने कला- चित्रों में जिन स्त्रियों का चित्रण करते हैं, उन्हें देखकर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि महानगर में रहते हुए भी वे आज तक गांँव की मिट्टी और वहाँ के परिवेश से लगातार जुड़े रहे हैं। कलाकार का यह जुड़ाव उपेक्षित होते जा रहे ग्रामीण जीवन को केंद्र में बनाए रखने की जद्दोजहद का भी उदाहरण प्रस्तुत करता है। आती-जाती सरकारों की गाँवों के प्रति ढुलमुल नीतियों ने वहाँ के संघर्ष को जितना कठिन बनाया है,स्त्रियों का जीवन भी उतना ही चुनौती पूर्ण होता गया है।अपने चित्रों के माध्यम से रत्नाकर जी इन स्त्रियों के पक्ष में और उनके साथ खड़े दिखायी देते हैं।

अपने इन चित्रों के संबंध में उनकी स्वयं की टिप्पणी कि 'दुनिया जिसे आधी आबादी कहती है वही आधी आबादी मेरे चित्रों की पूरी दुनिया बनती है ' बहुत अर्थ वान है। इस सम्बन्ध में उनका यह विचार किसी कविता से कम नहीं है - ' बार-बार लगता है कि हम उस आधी आबादी के ऋणी हैं और मेरे चित्र उऋण होने की सफल-असफल कोशिश भर हैं।' मैं समझता हूँ,यही एक कलाकार की रचनात्मकता भी है। वे अपने इस अभियान में पूर्ण सफल हों,यही कामना है !

- कमलेश भट्ट कमल  (ग़ज़लकार)
नोएडा


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उन तमाम सुधिजन जिनको मेरी कला अच्छी लगती है, वह इसमें नामांकित भले ही न हो पाए हों पर मेरे दिल के पटल पर वे अंकित हैं उन्हें मेरी कोटिसह हार्दिक आभार है .

सोमवार, 28 मार्च 2011

सृजनशीलता कभी भोथरी नहीं होती


संवाद


सृजनशीलता कभी भोथरी नहीं होती

सुप्रसिद्ध चित्रकार लाल रत्नाकर से आलोक प्रकाश पुतुल की बातचीत


लाल रत्नाकर














  क्या जीवन का अनुभव संसार और कला का अनुभव संसार दो अलग-अलग संसार हैं? इन दोनों के बीच आप कैसा अंतरसंबंध देखते हैं?

जीवन का अनुभव संसार मेरे लिए, मेरी कला के अनुभव संसार का उत्स है. अंतत: हरेक रचना के मूल में जीवन संसार ही तो है. जीवन के जिस पहलू को मैं अपनी कला में पिरोने का प्रयास करता हूँ, दरअसल वही संसार मेरी कला में उपस्थित रहता है. कला की रचना प्रक्रिया की अपनी सुविधाएं और असुविधाएं हैं, जिससे जीवन और कला का सामंजस्य बैठाने के प्रयास में गतिरोध आवश्यक हिस्सा बनता रहता है. यदि यह कहें कि लोक और उन्नत समाज में कला दृष्टि की भिन्न धारा है तो मुझे लगता है, मेरी कला उनके मध्य सेतु का काम कर सकती है.

  जब आप लोक और उन्नत समाज की कला दृष्टि की भिन्न धारा का जिक्र कर रहे हैं, तो क्या इसे इस तरह समझना ठीक होगा कि प्रकारांतर से आप यह भी कह रहे हैं कि परम्परा में, उन्नत समाज में लोक की उपस्थिति नहीं है या क्षीण है ?

मेरे कहने का आशय यह है कि लोक और नागर समाज की कला दृष्टि में भिन्नता है. लोक की आस्था सरलता और साधारणीकरण में है. इसके उलट नागर समाज में किसी खास किस्म की कृत्रिमता को अधिक स्थान मिला हुआ है.

  आप अपने कला के अनुभव संसार को किस तरह संस्कारित और समृध्द करते हैं?

मेरी कला का अनुभव संसार लोक है और लोक स्वंय में इतना समृध्द है कि उसे संस्कारित करने की जरुरत ही नहीं पड़ती. जहां तक मेरी कला सृजन का सवाल है तो वह ऐसे परिवेश और परिस्थिति से निकली है, जिसकी सहजता में भी असहज की उपस्थिति है.

  आप शायद अपने बचपन की ओर इशारा कर रहे हैं. मैं जानना चाहूंगा कि अपने बचपन और कला के रिश्तों को आप किस तरह देखते-परखते हैं

बचपन में कला दीर्घाओं के नाम पर पत्थर के कोल्हू की दीवारें, असवारी और मटके के चित्र, मिसिराइन के भित्ति चित्र आकर्षित ही नहीं, सृजन के लिए प्रेरित भी करते थे. गांव की लिपी-पुती दीवारों पर गेरू या कोयले के टुकड़े से कुछ आकार देकर जो आनंद मिलता था, वह सुख कैनवास पर काम करने से कहीं ज्यादा था. स्कूल की पढ़ाई के साथ-साथ रेखाएं ज्यादा सकून देती रहीं और यहीं से निकली कलात्मक अनुभूति की अभिव्यक्ति, जो अक्षरों से ज्यादा सहज प्रतीत होने लगी. एक तरफ विज्ञान की विभिन्न शाखाओं की जटिलता वहीं दूसरी ओर चित्रकारी की सरलता. ऐसे में सहज था चित्रकला का वरण. तब तक इस बात से अनभिज्ञता ही थी कि इस का भविष्य क्या होगा. जाहिर है, उत्साह बना रहा.

ग्रेजुएशन के लिए बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और गोरखपुर विश्वविद्यालय में आवेदन दिया और दोनों जगह चयन भी हो गया. अंतत: गोरखपुर विश्वविद्यालय के चित्रकला विभाग में प्रवेश लिया और यहीं मिले कलागुरू श्री जितेन्द्र कुमार. सच कहें तो कला को जानने-समझने की शुरुवात यहीं से हुई. फिर कानपुर से बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के कलाकुल पद्मश्री राय कृष्ण दास का सानिध्य, श्री आनन्द कृष्ण जी के निर्देशन में पूर्वी उत्तर प्रदेश की लोक कला पर शोध, फिर देश के अलग-अलग हिस्सों में कला प्रदर्शनियों का आयोजन...तो कला के विद्यार्थी के रुप में आज भी यह यात्रा जारी है. कला के विविध अछूते विषयों को जानने और उन पर काम करने की जो उर्जा मेरे अंदर बनी और बची हुई है, उनमें वह सब शामिल है, जिन्हें अपने बचपन में देखते हुए मैं इस संसार में दाखिल हुआ.

• फ़ोटोग्राफ़ी के सहज और सुलभ हो जाने से ललित कलाएँ किस तरह प्रभावित हुई हैं? यदि आपकी विधा की बात करें तो इसने चित्रकार की अंतरदृष्टि को धारदार बनाया है या फिर उसे भोथरा किया है?

फोटोग्राफी का इस्तेमाल बढ़ने से कला प्रभावित हुई है, ऐसा नहीं लगता. हां, इसके कारण कलाकार को नये तरीके और प्रयोग करने की चुनौती मिली है, जिसने सहजतया कलाकार की अन्तर्दृष्टि को सूक्ष्म बनाया है. लेकिन मैं विनम्रता के साथ उल्लेख करना चाहूंगा कि मेरे साथ इससे इतर स्थिति है. मेरे कला प्रशंसक मित्रों का मानना है कि मेरे रेखांकन की प्रतिबध्दता को कैमरे ने कमजोर किया है, जबकि मामला इससे अलग है. रेखाओं की समझ कैमरे से नही आती है. कई बार कैमरा कमजोरी बन जाता है, जिसका दूसरे कई लोग लाभ भी उठाते हैं.

विकास की धारा विभिन्न रास्तों से गुजरती है. मानव मन की अभिव्यक्ति और यथार्थ की उपस्थिति दो स्थितियां हैं, जो समाज और कलाकार के मध्य निरंतर जूझते रहते हैं. ऐसे में समाज को फोटोग्राफी अक्सर उसके करीब नजर आती है. उसमें उसे तत्काल जो कुछ देखना है दिखाई दे जाता है. पल भर की मुस्कान, खुशी, दु:ख, दर्द के अलग अलग स्नैप संतोष देते होंगे, जिनको रंगो का ज्ञान, रेखाओं की समझ है, उन्हें कहां से फोटोग्राफी वह सब दे पायेगी.

इसलिए कलाकार की अर्न्तदृष्टि की उपस्थिति उसके चित्रों के माध्यम से होती है, जिसे उसने कालांतर में अंगीकृत किया होता है, विचार प्रक्रिया के तहत गुजरा हुआ होता है. ऐसे मे चित्रकार सहजतया अपने मौलिक रचना कर्म को तर्को की प्रक्रिया से गुज़ारता है, जिससे उसकी सृजनशीलता की विलक्षणता दृष्टिगोचर होती है. ऐसे में हम यह कह सकते है कि किसी भी प्रकार का आविष्कार या विकास जब भी किसी को अर्थहीन अथवा भोथरा साबित कर देता है तो यह प्रमाणित हो जाता है कि उसमें दम नहीं है. अन्यथा चित्रकार की अपनी धार होती है और अगर वह सृजनशील है तो वह कभी भोथरी हो ही नहीं सकती.
• आपने स्त्रियों पर काफी काम किया है, यदि मैं भूल नहीं रहा हूं तो आपकी पूरी एक श्रृंखला आधी दुनिया स्त्रियों पर केंद्रित है. आपकी स्त्री किससे प्रेरित है?

स्त्रियां जन्म से लेकर अब तक आकर्षित, प्रभावित और उत्प्रेरित करती आयी हैं परंतु इनकी अपनी व्यथा है, जिसे पढ़ना बहुत ही सरल होता है. मुझे यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं है कि मैं पुरुषों को उतनी आसानी से नहीं पढ़ पाता.

मुझे ऐसा लगता है कि स्त्री सृजन की सरलतम उपस्थिति के रूप में परिलक्षित होती रहती है. सौंदर्य और स्त्री एक-दूसरे के साथ उपस्थित होते हैं. ऐसे में सृजन की प्रक्रिया बाधित नहीं होती. मेरी स्त्रियां सीता नहीं हैं, कृष्ण की राधा नहीं हैं और न ही रानी लक्ष्मीबाई हैं. ये खेतों खलिहानों में अपने पुरूषों के साथ काम करने वाली स्त्रियां हैं.

• आपकी स्त्री कर्मठ और गठीली दिखाई देते है, एक तरह की दृढ़ता भी नजर आती है. आपकी स्त्री भद्रलोक की नारी नहीं है वह खेतिहर है, मजदूरी करती है, क्या ऐसा आपकी ग्रामीण पृष्ठभूमि के कारण है?

मेहनतकश लोगों की कुछ खूबियां भी होती हैं जिन्हें समझना आसान नहीं है. यदि उन्हें चित्रित करना है तो उनके मर्म को समझना होगा. उनके लय, उनके रस के मायने जानना होगा. उनकी सहजता, उनका स्वाभिमान जो पूरी देह को गलाकर या सुखाकर बचाए हैं, दो जून रूखा-सूखा खाकर तन ढ़क कर यदि कुछ बचा तो धराऊं जोड़ी का सपना और सारी सम्पदा समेटे वो जैसे नजर आती हैं, वस्तुत: वैसी वो होती नहीं हैं.

उनका भी मन है, मन की गुनगुनाहट है, जो रचते है अद्भूद गीत, संगीत व चित्र जिन्हें लोक कह कर उपेक्षित कर दिया जाता है. उनका रचना संसार और उनकी संरचना मेरे चित्रों में कैसे उपस्थित रहे, यही प्रयास दिन-रात करता रहता हूं. मेरे ग्रामीण पृष्ठभूमि के होने मतलब यह नहीं है कि मैं किसी दूसरे विषय का वरण अपनी सृजन प्रक्रिया के लिये नहीं कर सकता था पर मेरे ग्रामीण परिवेश ने मुझे पकड़े रखा.

• इसमें क्या संदेह है कि देह की एक लय होती है और उसका अपना एक संगीत होता है. लेकिन आपके यहाँ देह की लय लगभग अनुपस्थित है, वहाँ देह एक स्थूलता के साथ सामने आता है, न तो नारी देह में नाज़ुकी की लय है और न पुरुष में बलिष्ठता. अगर है तो वह आलाप नहीं विलाप है. क्या यह अनायास ही है या फिर आपने सायास इसे अपनाए रखा है?

लाल रत्नाकर


बेशक बिना लयात्मक्ता के कला निर्जीव होती है परन्तु मेरे हिस्से वाले जीवन में यदि कुछ अनुपस्थित है तो देह और देह की लय को निहारने की दृष्टि, परन्तु मैंने कोशिश की है उस जीवन के यथार्थ के सौन्दर्य को बिना प्रतिमानों के उकेरने की. यहां मेरे चित्रों के पात्र अपनी देह का अर्थ ही नही समझते. उनके पास देह तो है परन्तु उस देह का बाजार से क्या सम्बन्ध है वह नहीं जानते. जबकि बाजारीकरण उसी देह में लोच और अलंकारिकता की वह कुशलता भर देता है जिससे उसकी अपनी उपस्थिति गायब हो जाती है और प्रस्तुत होता है उसका वह सुहावना, सलोना और आकर्षक रूप जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि इनकी जिन्दगी में कहीं कुछ कमी ही नही है. जीवन के सारे द्वंद्व् खत्म हो गए हों.

अनेक चित्रकारों के आदिवासी स्वरूप मैंने देखे हैं, जिनमें वे चमचमाते हुए किसी स्वर्गलोक के लोग नजर आते हैं. ऐसे लोग जिन्हें न कोई काम काज करना है और न ही आनन्द मनाने के अतिरिक्त उनके पास कोई काम काज है. इसलिए मुझे किंचित अफसोस नहीं होता कि मैं उस सुकोमल नारी और बलिष्ठ पुरुष का प्रतिनिधित्व करूं. बल्कि उस यथार्थ के सृजन में सुकुन और शांति मिलती है जो चिन्तित है अथवा बोझिल है. जिनके पुरूष सारी बलिश्ठता श्रम के हवाले कर चुके हैं-रोग, व्याधि, कर्ज और समय की मार से.

• स्त्री आपकी कला के केंद्र में है और रंग बहुत गहरे हैं. इनमें आपस के रिश्ते को आप किस तरह रेखांकित करेंगे?

जिस स्त्री का मेरी कला से सरोकार है मूलत: वह रंगों के प्रति सजग होती है. उसे प्रारम्भिक रंगो से गजब का लगाव है, जिन्हें वह सदा वरण करती हैं. मूलत: ये मूल रंग इनके मूल में बसे होते हैं यथा लाल पीला नीला. बहुत आगे बढ़ीं तो हरा, बैगनी और नारंगी इनके जीवन में उपस्थित होता है. इसके सिवा उसके जीवन में जो रंग दिखाई देते हैं, वह सीधे सीधे कुछ अलग ही संदेश संप्रेषित करते हैं. इन रंगो में प्रमुख हैं काला और सफेद जिनके अपने अलग ही पारम्परिक सन्दर्भ हैं. इन रंगो के साथ उसका सहज जुडाव उसे प्रकृति और सत्य के समीप रखता है. उत्सवी एवं पारम्परिक मान्यताएं भी इन चटख रंगो को अंगीकृत करते हैं.

• समकालीन दुनिया में हो रहे बदलाव के बरक्स यदि आपकी स्त्री की ही बात करें तो इस बदलाव को किस तरह देख रहे हैं ?

आज के बदलते दौर में हमारी स्त्री उतनी प्रभावित नहीं हो रही है, लेकिन अगली पीढ़ी सम्भव है तमाम बदलते हुए सरोकारों को स्वीकार कर ले. हमारे सामने जो खतरा आसन्न है, उससे एकबारगी लगता है कि इस आपाधापी में उसकी अपनी पहचान न खो जाए.
 
समकालीन दुनिया के बदलते परिवेश के चलते आज बाजार वह सामग्री परोस रहा है, जो उस क्षेत्र तो क्या उस पूरे परिवेश तक की वस्तु नही है. इसका मतलब यह नही हुआ कि मैं विकास का विरोधी हूं लेकिन जिन प्रतीकों से मेरा रचना संसार समृध्द होता है, उसमें यह बाज़ार आमूल चूल परिवर्तन करके एक अलग दुनिया रचेगा, जिसमें उस परिवेश विशेष की निजता के लोप होने का खतरा नजर आता है.

• चित्रकला एक तरह से साहित्य की पड़ोसी होती है, तो आप किन कवियों, कथाकारों को पढ़ते और गुनते हैं? क्या इससे आपकी कला प्रभावित होती है और यदि होती है तो किस तरह?

कबि और चितेरे की डाड़ामेडी' कहानी आपने ज़रुर पढ़ी होगी. मैंने भी पढ़ी है. और ठीक से जिसको पढ़ा है उसमें सबसे उपर मुंशी प्रेमचंद और रेणु का नाम आता है. उसी क्रम में शरतचन्द्र, रविन्द्र नाथ टैगोर, धर्मवीर भारती, राही मासूम रजा को पढ़ने तथा समकालीन कथाकारों में कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, शिवमूर्ति, से. रा. यात्री, संजीव और कुंअर बेचैन के करीब होने का सुअवसर मिला है.

इन सभी के कथा-संसार ने मेरी कला को समृध्द किया है. इनके पात्र मुझे आमंत्रित करते हैं. नि:संदेह कला और रचनात्मकता के नाना स्वरुप एक-दूसरे के लिए एक अवकाश की उपस्थिति तो देते ही हैं.

• एक ऐसे समय में जब बाज़ार में करोड़ों रु. में कोई पेंटिंग खरीदी-बेची जा रही हो, कला के सामाजिक सरोकार को आप किस तरह देखते हैं ?

सदियों पुरानी कला का जो मूल्यांकन आज हो रहा है, वह कम से कम उस अनजाने कलाकार के लिए तो किसी भी तरह से लाभदायक नहीं है. दूसरी बात ये कि आज भी जिस प्रकार से बाजार में कला की करोड़ो रूपये कीमत लग रही है, उससे भले कलाकारों को प्रोत्साहन मिल रहा होगा, लेकिन यह शोध का विषय हो सकता है कि अंतत: बाज़ार में किसकी कीमत है? लेकिन इन सबके बाद भी हरेक कलाकार अपने समय के पृष्ठ तनाव से ही तो मुठभेड़ करता है. और इस पृष्ठ तनाव में उसका समाज और उसका सरोकार ही तो शामिल होता है.

• समाज का एक बड़ा वर्ग है, जिसके हिस्से में ज़िंदगी के दूसरे संघर्ष इतने बड़े हैं कि वहां कला के लिए कोई अवकाश नहीं है. आपके उत्तर को ही समझने की कोशिश करूं तो कला का बाज़ार और बाजार की कला की उपादेयता और कहीं-कहीं आतंक, अंतत: इस समाज को समृध्द नहीं कर रहे हैं. ज़ाहिर है, इसमें कला की जरुरत पर भी सवाल खड़े होते हैं ?

लाल रत्नाकर


जीवन के सारे उपक्रम अंतत: इस दुनिया को सुंदर बनाने के ही उपक्रम हैं. कला के विविध माध्यम कहीं न कहीं हमारे कार्य-व्यापार को और सरल ही बनाते हैं. इसकी जरुरत इतनी आसानी से खत्म होने वाली नहीं है, हां आपूर्ति जब-जब कटघरे में खड़ी होगी, तब-तब इस तरह के सवाल जरुर उपजेंगे.

• कला के व्यावसायिकरण पर काफी बहस हो चुकी है. फिल्मों और विज्ञापनों की बात करें तो इसमें नई तरह की रचनात्मकता दिखाई दे रही है जो कि आम आदमी के काफी करीब भी नजर आती है. दूसरे शब्दों में आप कह सकते हैं कि उनमें एक तरह का सामाजिक सरोकार नहीं तो सामाजिक हलचल तो दिखाई दे ही रही है. पेंटिंग के बारे में आप क्या सोचते हैं?

यह कहना संभवत: सही नहीं है कि वर्तमान समय में फिल्मों एवं विज्ञापनों में सामाजिक सरोकार बढ़ा है या वे जीवन के अधिक निकट आई हैं बल्कि वास्तविकता तो यह है कि वह आम आदमी के जीवन से दूर होती जा रही हैं. इनमें जिस आम आदमी की बात होती है वह शहरी मध्यवर्गीय समाज है. निम्न वर्ग, गांव और उसके आदमी, उसमें कहीं नहीं हैं. इस पर भी वह शहरी मध्यवर्गीय जीवन को नहीं वल्कि उसके सपनों को ही दिखाते हैं या यूं कहें कि सपनों का कारोबार करते है.

कमोबेश पेंटिंग का भी यही हाल है. आए दिन समाचार पत्रों की सुर्खियां कला और कलाजगत के घाल-मेल को उजागर करती रहती हैं. कला में आज सामाजिक हलचल की जगह तिकड़मबाजी ने ले ली है. आज कला के बाजार में विविध प्रकार के द्वार खुल रहे हैं. जबकि कायदे से अभी तक चित्रकला की संभावनाओं पर बहस शुरु भी नहीं हुई है.

• राजनीतिक समाज और नागरिक समाज एक तरह से कला के प्रति उपेक्षा का भाव रखते हैं. यहाँ तक कि अच्छी फ़िल्मों को भारत में कला-फ़िल्में कह कर एक तरह से हाशिए पर रख दिया जाता है और कहा जाता है कि वह कुछ ख़ास किस्म के लोगों के लिए बनाई गई फ़िल्म है, आम लोगों के लिए नहीं. कमोबेश यही स्थिति चित्रकला के साथ नज़र आती है जिसमें कला को समझने, सराहने और ख़रीदने का जिम्मा कुछ ही लोगों तक सीमित नज़र आता है. इस विद्रूपता को आप किस तरह देखते हैं?

आज की राजनीति में मुझे ऐसा नेतृत्व नहीं नजर आता, जो अपनी कला के कारण अपनी उपस्थिति दर्ज कराता हो. हिंदी पट्टी में यह स्थिति और ख़राब है. नागर समाज में कला का यह स्वरुप और भी भोंडेपन के साथ उभर कर सामने आया है. चाहे वो वस्त्र का मामला हो या फिल्मों का. कला की दुनिया में एक खास किस्म का वर्ग उभर कर सामने आया है, जिसके लिए कला जीवन का विषय नहीं है. ऐसे वर्ग के लिए हरेक कला केवल निवेश का मुद्दा है.

• क्या आप ऐसा कोई समय आता हुआ देखते हैं जिसमें कला, बाज़ारनिष्ठ होते जा रहे समाज में आमजन तक पहुँचे, सभी उसे समझ सकें और उसकी सराहना कर सकें?

सिध्दांत के तौर पर कहें तो वह कला ही क्या जो आमजन के लिए न हो. लेकिन यह किंचित पीड़ा के साथ स्वीकार करना पड़ता है कि कला और आमजन के बीच एक दूरी हमेशा से रही है और इसीलिए हमेशा से हमारे देश में कला को राजाश्रय में जाना पड़ा है. आमजनों के भरोसे कला का जीवित रहना न पहले संभव था और न अब है. इसलिए यदि समाज बाज़ारनिष्ठ होता जा रहा है तो यह एक शुभ संकेत इन मायनों में तो है ही कि शायद इसी तरह कला को राजाश्रय का मोहताज न होना पड़े. लेकिन जहाँ तक समझ का सवाल है तो इसके लिए जो संस्कार चाहिए, वो दुर्भाग्य से समाज में नहीं दे पा रहे हैं और इसलिए कला आमजन की समझ या पहुँच से दूर दिखाई देती है.