ओमप्रकाश कश्यप
डॉ. लाल रत्नाकर: वह कला ही क्या जो आमजन के लिए न
हो
महान कृतियां छोटी-छोटी वस्तुओं को साथ लाने से बनती हैं. वॉन गाग
(1976 में जिला बनने के बाद से ही गाजियाबाद तरह-तरह से चर्चा में रहा है. कुछ दशक पहले तक राजधानी के लोग गाजियाबाद और
उत्तर प्रदेश को लेकर नाक-मंुह सिकोड़ते थे. यहां रहना अपराधियों की मांद में जीवन बिताने
जैसा था. उनका
मानना था कि देश के सारे ‘भाई’ लोग यूपी में बसते हैं. जिला बनने के साथ शहर की तरक्की की रफ्तार भी
बढ़ी. राजधानी
के करीब होने से उद्योग-धंधे पनपे. शहर के एक वरिष्ठ पत्रकार-संपादक
को जो साहित्य को सांस्कृतिकरण के औजार की तरह इस्तेमाल करते आए हैं, जिनके
साहित्य-सम्मेलन
मूलतः ब्राह्मण-सम्मेलन
हुआ करते हैं—शहर का नाम इसलिए खटकता था, क्योंकि इसे एक मुसलमान गाजिउद्दीन ने बसाया था. उन्होंने
इसे ‘उद्योग नगर’ लिखने का अपरोक्ष अभियान चलाया था. ‘उद्योग नगरी’ नाम का समाचारपत्र भी निकाला. फिर
रीयल स्टेट का जमाना आया. भू-माफिया ने इसे ‘हाट सिटी’ कहना शुरू कर दिया. इस
शहर के चार हजार वर्ष पुराने इतिहास की ओर किसी का ध्यान नहीं गया. किसी
ने नहीं सोचा कि शहर के आसपास महाभारतकालीन कौरवी संस्कृति के अनगिनत प्रमाण मौजूद
हैं. गाजियाबाद
को कंक्रीट के शहर से कला और संस्कृति की दिशा में जिस कलाकार का विशिष्ट योगदान
रहा, उसका
नाम है—डॉ. लाल
रत्नाकर. पिछले
दिनों डॉ. रत्नाकर
से आवास पर करीब तीन घंटे लंबी चर्चा हुई. देश की राजनीति से लेकर सामाजिक-सांस्कृतिक
मुद्दों पर. वे
बड़ी बेबाकी से बोले. यह आलेख उसी बातचीत का शब्दांतरण है.)
अपने चित्रों के माध्यम से उत्तर भारत के गांव, गली, घर-परिवेश, हल-बैल, खेत-पगडंडी, पशु-पक्षी, तालाब-पोखर, यहां
तक कि दरवाजों और चैखटों को जीवंत कर देने वाले डॉ. लाल रत्नाकर के बारे में मेरा अनुमान था कि उनका
बचपन बहुत समृद्ध रहा होगा. समृद्ध इस लिहाज से कि वे सब स्मृतियां जिन्हें
हम सामान्य कहकर भुला देते हैं या देखकर भी अनदेखा कर जाते हैं, उनके
मन-मस्तिष्क
में मोती-माणिक
की तरह टकी होंगी. सो मैंने सबसे पहले उनसे अपने बारे में बताने का
आग्रह किया. मेरा
अनुमान सही निकला. उन्होंने बोलना आरंभ किया तो लगा, उनके
साथ-साथ
मैं भी स्मृति-यात्रा
पर हूं. वे
बड़ी सहजता से बताते चले गए. बिना किसी बनावट और बगैर किसी रुकावट के. जितने
समय तक हम दोनों साथ रहे, मैं उनकी जीवन-यात्रा के प्रवाह में डूबता-उतराता
रहा.
संपन्न परिवार में जन्मे डॉ. रत्नाकर
के पिता डॉक्टर थे, चाचा लेक्चरर. दादा खेती-बाड़ी संभालते थे. नाना की रियासत थी. इसके बावजूद परिवार सामंती संस्कारों से मुक्त था. जिन
दिनों उन्होंने होश संभाला डॉ. आंबेडकर द्वारा देश के करोड़ों लोगों की आंखों
में रोपा गया समता-आधारित समाज का सपना परवॉन चढ़ने लगा था. किंतु
आजादी के वर्षों बाद भी देश के महत्त्वपूर्ण पदों एवं संसाधनों पर अल्पसंख्यक
अभिजन का अधिकार देख निराशा बढ़ी थी. स्वाधीनता संग्राम में आमजन जिस उम्मीद के साथ
बढ़-चढ़कर
हिस्सेदारी की और कुर्बानियां दी थीं, वे फीकी पड़ने लगी थीं. दलित और पिछड़े यह मानने लगे थे कि केवल
संवैधानिक संस्थाओं से उनका भला होने वाला नहीं है. इसलिए वे खुद को अगली लड़ाई के लिए संगठित करने
में लगे थे. पूर्वी
उत्तरप्रदेश और बिहार सामाजिक-राजनीतिक चेतना के उभार का केंद्र बने थे. जाति
जो अभी तक उनके शोषण का कारण थी, वही संगठन की प्रमुख प्रेरणा बनी थी और जैसे आजकल
संघ और भाजपा के नेता अस्मितावादी आंदोलनों को जातिवादी कहकर उपेक्षित-अपमानित
करने की कोशिश करते हैं, तब यह काम कांग्रेस किया करती थी. जन्म
के आधार पर मनुष्यों में भेदभाव करने वाली जाति कार्य-विभाजन की निकृष्टतम प्रणाली है. परिवर्तनकामी
समाजों के लिए सर्वथा तिरस्कार-योग्य. किंतु सह्स्राब्दियों तीय विभाजन का शिकार भारतीय
मानस उससे एकाएक मुक्ति
के लिए तैयार न था. जाति उसके लिए सामाजिक-सांस्कृतिक संबंधों का आधार थी. विचार
यही था कि संगठन की शक्ति लोगों में लोकतांत्रिक चेतना पैदा करेगी. लोग
सामूहिक हितों के लिए एकजुट होकर संघर्ष करना सीखेंगे. जैसे-जैसे लोकतांत्रिक चेतना का असर बढ़ेगा, जाति
स्वतः अप्रासंगिक होती जाएगी. इस संकल्पना के मद्देनजर बिहार में त्रिवेणी संघ की
नींव 1933 में ही पड़ चुकी थी. यह बात अलग है कि पिछड़े वर्गों में राजनीतिक
चेतना के अभाव तथा जातीय दुराग्रहों के कारण वह प्रयोग अपेक्षित सफलता प्राप्त न
कर सका था. उनके
विरोधी भी समानांतर रूप में सक्रिय थे. जो कांग्रेस त्रिवेणी संघ के नेताओं को जातिवादी मानसिकता
से ग्रस्त बता रही थी, उसी ने त्रिवेणी संघ के गठन के दो वर्ष बाद 1935 में ‘बैकवार्ड कास्ट फेडरेशन’ की स्थापना कर खुद को पिछड़ी जातियों का
एकमात्र हितैषी दर्शाने की कोशिश की थी. उन दिनों
नेतृत्व की बागडोर राममनोहर लोहिया के हाथों में थी. जो
न केवल प्रखर वक्ता थे, बल्कि विचारों को लेकर भी पूरी तरह स्पष्ट थे. लोकतंत्र
में यदि सभी के वोट का मूल्य बराबर है तो सत्ता-प्रतिनिधित्व भी उसी अनुपात में मिलना चाहिए, इसे
लक्ष्य मानकर गढ़ा गया उनका नारा, ‘पिछड़ा पावें सौ में साठ’ पिछड़ों के संगठन की
प्रेरणा बना था. यही
परिवेश किशोर लाल रत्नाकर के मानस-निर्माण का था. तो भी नेताओं की बड़ी-बड़ी बातें उन दिनों उनकी समझ से बाहर थीं. बस
यह महसूस होता था कि कुछ महत्त्वपूर्ण घट रहा है. परिवर्तन यज्ञ में भागीदारी का अस्पष्ट-सा
संकल्प भी मन में उभरने लगा था.
पढ़ाई की शुरुआत गांव की पाठशाला से हुई. हाईस्कूल
शंभु गंज से विज्ञान विषयों के साथ पास किया. उन दिनों विज्ञान का बोलबाला था. कला
के क्षेत्र में वही विद्यार्थी जाते थे जो पढ़ाई में पिछड़े हुए हों. परंतु
रत्नाकर का मन तो कला में डूबा हुआ था. हाथ में खडि़या, गेरू, कोयला कुछ भी पड़ जाए, फिर सामने दीवार हो या जमीन, उसे
कैनवास बनते देर नही लगती थी. लोगों के घर कच्चे थे. गरीबी भी थी, लेकिन मन से वे सब समृद्ध थे. तीज-त्योहार, मेले-उत्सवों
में आंतरिक खुशी फूट-फूट पड़ती. सामूहिक जीवन में अभाव भी उत्सव बन जाते. रत्नाकर
का कलाकार मन उनमें अंतर्निहित सौंदर्य को पहचानने लगा था. गांव का कुआं, हल-बैल, पत्थर के कोल्हू की दीवारें, असवारी, कुम्हार
द्वारा बर्तनों पर की गई नक्काशी, सुघड़ औरतों द्वारा निर्मित बंदनवार, रंगोलियां
और भित्ति चित्र उन्हें आकर्षित ही नहीं, सृजन के लिए लालायित भी करते थे. गांव
की लिपी-पुती
दीवारों पर गेरू या कोयले के टुकड़े से अपनी कल्पना को उकेरकर उन्हें जो आनंद
मिलता, उसके
आगे कैनवास पर काम करने का सुख कहीं फीका था. स्कूल की पढ़ाई से ज्यादा सुकून उन्हें आड़ी-तिरछी
रेखाओं से संवाद करने में मिलता. जाहिर है, अभिव्यक्ति अपना माध्यम चुन रही थी. उस
समय तक भविष्य की रूपरेखा तय नहीं थी. न ही होश था कि आड़ी-तिरछी रेखाएं खींचकर, चित्र बनाकर भी सम्मानजनक जीवन जिया जा सकता है. गांव-देहात
में चित्रकारी का काम मुख्यतः स्त्रियों के जिम्मे था. उनके लिए वह कला कम, परंपरा और संस्कृति का मसला अधिक था. उनसे
कुछ आमदनी भी हो सकती है, ऐसा विचार दूर तक नहीं था.
माता-पिता चाहते थे कि वे विज्ञान के क्षेत्र में नाम
कमाए. सो
इंटर की पढ़ाई के लिए बारह-तेरह किलोमीटर दूर जौनपुर जाना पडॉ. स्कूल
आने-जाने
का एकमात्र साधन साइकिल थी. कुछ दिन इसी तरह आना-जाना चलता रहा. मगर रोज-रोज की यात्रा बहुत थकाऊ और बोरियत-भरी
थी. सो
कुछ ही दिनों बाद विज्ञान की पढ़ाई का मोह छोड़ उन्होंने पुनः शंभु गंज में दाखिला
ले लिया. वहां
उन्होंने कला विषय को चुना. बचपन से किशोरावस्था तक जो वातावरण उन्हें मिला
वह रोज नए सपने देखने का था. कला विषय में खुद को अभिव्यक्त करने की अंतहीन
संभावनाएं थीं. दाखिला
अनमने भाव से लिया था. धीरे-धीरे उसमें मन रमने लगा. लगने लगा कि यही वह विषय है कि जिसमें अपने और
अपनों के सपनों की फसल उगाई जा सकती है. इंटर की पढ़ाई के बाद उन्होंने गोरखपुर विश्वविद्यालय
से बीए और फिर कानपुर विश्वविद्यालय से एमए तक की पढ़ाई की. उस
समय तक विषय की गहराई का अंदाजा हो चुका था. मन में एक साध बनारस विश्वविद्यालय में पढ़ने की
भी थी. सो
आगे शोध के क्षेत्र में काम करने के लिए वे डॉ. आनंदकृष्ण से मिले जो उस समय बनारस विश्वविद्यालय
में कला संकाय के विभागाध्यक्ष थे. प्रोफेसर आनंदकृष्ण ने उनकी मदद का आश्वासन दिया. लेकिन
विषय क्या हो, इस
सोच में कई दिन बीत गए.
उधर रत्नाकर को एक-एक दिन खटक रहा था. इसी उधेड़-बुन में वे एक दिन डॉ. आनंदकृष्ण के घर जा धमके. उस समय तक डॉ. रायकृष्ण दास जीवित थे. वे लोककलाओं की उपेक्षा से बहुत आहत रहते थे. बातचीत
के दौरान उन्होंने ही प्रोफेसर आनंदकृष्ण को लोककला के क्षेत्र में शोध कराने का
सुझाव दिया. प्रोफेसर
आनंदकृष्ण ने उनसे आसपास बिखरी लोककलाओं को लेकर कुछ सामग्री तैयार करने को कहा. रत्नाकर
की तो जैसे मन की मुराद फली हो. इस दृष्टि से वह लोक खूब समृद्ध था. उन्होंने
यहां-वहां
बिखरे कला-तत्वों
के चित्र बनाने आरंभ कर दिए. चैखटों, दीवारों पर होने वाली नक्काशी, रंगोली, पनघट, तालाब, कोल्हू, मिट्टी
के बर्तन, असवारी
वगैरह. सब
कुछ भरा-भरा. कहीं
कुछ भी बनावटी नहीं. उस समय तक लोककला के नाम पर सिर्फ ‘मधुबनी’ का
नाम लिया जाता था. दूर-दराज के गांव भी लोककला का खजाना हैं, इसका
अंदाजा किसी को न था. अगली बार वे आनंदकृष्ण जी से मिले तो उन्हें
दिखाने के लिए भरपूर सामग्री थी. आत्मविश्वास भी परवॉन चढ़ा था. प्रोफेसर
आनंदकृष्ण उनके चित्रों को देखते ही अचंभित रह गए, ‘अरे वाह! इतना कुछ. यह तो खजाना है....खजाना, अद्भुत! लेकिन तुम्हें अभी और भी खोजना है. मैं
तुम्हारा प्रस्ताव आने वाली बैठक में पेश करूंगा.’ उस मुलाकात के बाद रत्नाकर को ज्यादा इंतजार नहीं
करना पडॉ. विश्वविद्यालय
ने ‘पूर्वी उत्तरप्रदेश की लोककलाएं’ विषय पर शोध के लिए मुहर लगा दी. शोध
क्षेत्र नया था. संदर्भ
ग्रंथों का भी अभाव था. फिर भी वे खुश थे. अब वे भी इस समाज को एक कलाकार और अन्वेषक की
दृष्टि से देख सकेंगे. बुद्धिजीवी सांस्कृतिक चेतना की बात करते हैं, उसके
एक रूप को पहचानने और निखारने में उनका योगदान भी गिना जाएगा. लगागार
परिश्रम, नई
दृष्टि और लग्न से अंततः शोधकार्य पूरा हुआ. डिग्री के साथ नौकरी भी उन्हें मिल गई. अब
दिनोंदिन समृद्ध होता विशाल कार्यक्षेत्र उनके समक्ष था.
डॉ. लाल रत्नाकर ग्रामीण पृष्ठभूमि के चितेरे हैं. उनका
अनुभव संसार पूर्वी उत्तर प्रदेश में समृद्ध हुआ है, इसका प्रभाव उनके चित्रों पर साफ दिखाई पड़ता है. उनके
चित्रों में खेत, खलिहान, पशु-पक्षी, हल-बैल, पेड़, सरिता, तालाब अपनी संपूर्ण सौंदर्य चेतना के साथ उपस्थित
हैं. सर्वाधिक
रेखांकित करने वाली बात है, उनके चित्रों में आधी आबादी की सशक्त मौजूदगी. स्त्री
और उसकी अस्मिता को लेकर अन्य चित्रकारों ने भी काम किया है. लेकिन
ग्रामीण स्त्री को जिस समग्रता के साथ डॉ. लाल रत्नाकर ने अपने चित्रों में उकेरा है, भारतीय
कला-जगत
में उसके उदाहरण बहुत विरल हैं. वे हमारे समय के ग्रामीण पृष्ठभूमि के सबसे समर्थ
चित्रकार हैं. इस
चीज को संभव बनाती है, उनकी गंवई सहजता. उनके अनुभव संसार के बारे में जानना चाहो तो
उन्हें कुछ छिपाना नहीं पड़ता. झट से बताने लगते हैं, ‘मेरी कला का उत्स मेरा अपना अनुभव संसार है.’ फिर
जीवन और कला के अटूट संबंध को व्यक्त करते हुए कह उठते हैं, ‘अंततः
हर रचना के मूल में जीवन-संसार ही तो है. जीवनानुभवों को कला में ढाल देना आसान नहीं होता. परंतु
जीवन और कला के बीच निरंतर आवाजाही से कुछ खुरदरापन स्वतः मिटता चला जाता है. जीवन
से साक्षात्कार कराने की खातिर कला समन्वय सेतु का काम करने लगती है.’ आगे
इसे और स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं, ‘कला की रचना प्रक्रिया की अपनी सुविधाएं और
असुविधाएं हैं. परिणामस्वरूप
जीवन और कला का सामंजस्य बैठाने के प्रयास में गतिरोध आवश्यक हिस्सा बनता रहता है. यदि
कोई यह कहे कि लोक और आधुनिक समाज में कला का आशय जीवन को भिन्न दृष्टि से देखना
है तो मुझे लगता है, मेरी कला दोनों के मध्य सेतु का काम कर सकती है.’
मैं डॉ. लाल रत्नाकर की पेंटिग्स देखता हूं तो मुझे वॉन
गॉग की याद आ जाती है. हालांकि दोनों की परिस्थितियों में पर्याप्त अंतर
है. वॉन
गॉग उन्नीसवीं शताब्दी के यूरोपीय पुनर्जागरण के दौर का चित्रकार था. अनियोजित
मशीनीकरण की त्रासदी को उसने अपनी आंखों से देखा था. उनीसवीं शताब्दी के उस महान चित्रकार ने ‘आत्म’
की खोज हेतु पहले पादरी का चोला पहना. चर्च का माहौल उस विद्रोही चित्रकार को जमा नहीं
तो पैटिंग पर उतर आया. कला उसके लिए धर्म का विकल्प थी. जीवन
में साढ़े आठ सौ चित्र बनाने वाला वह चित्रकार भीषण गरीबी में अपने दिन बिताता रहा. लेकिन
कभी किसी ईश्वर के आगे गिड़गिड़ाया नहीं, न ही कोई धार्मिक चित्र बनाया. गॉग
के चित्रों में खान मजदूर, जूते, प्याज जैसे अतिसाधारण पात्र और वस्तुएं हैं. जिनके
बारे में हम मान लेते हैं कि उनमें कला हो ही नहीं सकती. लेकिन यहां कलाकार की दृष्टि है जो बेजान-बेकार
कही जाने वाली वस्तुओं को भी कला का रूप दे देती है. डॉ. रत्नाकर भी अपने चित्रों के जरिये ‘आत्म’ की खोज
के लिए प्रयत्नरत रहते हैं. उनके चित्र इस समाज की उभरती आत्मचेतना को
प्रदर्शित करते हैं, जो बहुसंख्यक होकर भी सत्ता और अवसरों की
भागीदारी की दृष्टि से विपन्न है. उनके पात्र किसान, मजदूर, घास छीलती, गाय-भैंस दुहती, खाना पकाती वे स्त्रियां हैं, जिनके
सपने ही धर्म, परंपरा
और संस्कृति की बलि चढ़ जाते हैं. अपने कई चित्रों में उन्होंने कृष्ण को विविध
रूपों में पेश किया है. लेकिन उनके कृष्ण देवता न होकर श्रम-संस्कृति
से उभरे लोकनायक हैं. वे गाय चरा सकते हैं, दूध दुह सकते हैं और अपनों को संकट से बचाने के
लिए ‘गोवर्धन’ जैसी विकट जिम्मेदारी भी उठा सकते हैं.
कला को लोग कल्पना से जोड़ते हैं. कहा
जाता है कि हर कलाकार की अपनी दुनिया होती है, जिसमें वह अपने पात्रों के साथ जीता है. वे
पात्र मूत्र्त भी हो सकते हैं, अमूत्र्त भी. कलाकार के निजी संसार में दूसरों का दखल संभव
नहीं होता. इसलिए
चलताऊ भाषा में उसे किसी और दुनिया का जीव मान लिया जाता है. उस
समय हम भूल जाते हैं कि कलाकार होने की पहली शर्त उसकी संवेदनशीलता है; और
संवेदना का उत्स लोक है. कल्पना आसमान से उतर सकती है. वह
किसी और दुनिया या समाज के बारे में भी हो सकती है. संवेदनाओं के लिए अपने परिवेश से अंतरंगता जरूरी
है. प्रत्येक
कलाकार पहले अपने परिवेश से अंतरंग होता है. उसमें जो अंतर्निहित सौंदर्य है, उसको
आत्मसात् करता है. इसके साथ-साथ उसमें जो असंतोष और अधूरापन है, उसे
भी गहराई के साथ अनुभूत करता है. चूंकि कल्पनाशील होने के साथ-साथ
हर कलाकर रचनाधर्मी भी होता है. अतः परिवेश में व्याप्त सौंदर्य, असंतोष, अधूरापन
और सुख-दुख
की घनीभूत स्मृतियों के बल पर वह अपने लिए समानांतर दुनिया की रचना कर लेता है. वह
कलाकार की अपनी दुनिया होती है. बल्कि यह कहना उचित होगा कि उसके लिए काल्पनिक और
यथार्थ की दुनिया में अधिक अंतर नहीं होता. उसका ‘आत्म’ दोनों के बीच विचरण करता रहता है. इस
यात्रा के बीच वह जो सृजन करता है, वह काल्पनिक होकर भी यथार्थ के करीब होता है. वॉन
गॉग कहता है—‘पहले मैं चित्र का सपना देखता हूं, फिर उस सपने का चित्र बनाता हूं.’ पिकासो
इसे भिन्न शब्दों में आगे बढ़ाता है—‘हर वह चीज जिसकी आप कल्पना कर सकते हैं, यथार्थ
है.’
डॉ. रत्नाकर के कृतित्व को लेकर बात हो और स्त्री पर
चर्चा रह जाए तो बात सर्वथा अधूरी और अप्रामाणिक मानी जाएगी. उनके
चित्रों में ‘आधी आबादी’ आधे से अधिक स्पेस घेरती है. यह किसी कृपाभाव के साथ नहीं है. बल्कि
ग्रामीण स्त्री के सपनों और स्वेद-बिंदुओं के प्रति एक कलाकार की विनम्र
श्रद्धांजलि जैसा कुछ है. आप उनके चित्रों में काम करतीं, मंत्रणा
करतीं, घर-परिवार
के लिए सपने बुनती स्त्रियों से साक्षात कर सकते हैं. ग्रामीण स्त्री के जितने विविध रूप और जीवन-संघर्ष
हैं, सब
उनके चित्रों में समाए हुए हैं. लेकिन उनकी स्त्री अबला नहीं है. बल्कि
कर्मठ, दृढ़-निश्चयी, गठीेले
बदन वाली, सहज
एवं प्राकृतिक रूप-सौंदर्य की स्वामिनी है. वह खेतिहर है, अवश्यकता पड़ने पर मजदूरी भी कर लेती है. उसका
जीवन रागानुराग से भरपूर है. उसमें उत्साह है और स्वाभिमान भी, जिसे
उसने अपने परिश्रम से अर्जित किया है. कमेरी होने के साथ-साथ उसकी अपनी संवेदनाएं हैं. मन
में गुनगुनाहट है. गीत-संगीत, नृत्य और लय है. वे ग्रामीण स्त्री के सहज-सुलभ
व्यवहार को निरा देहाती मानकर उपेक्षित नहीं करते. बल्कि ठेठ देहातीपन के भीतर जो सुंदर-सलोना
मनस् है, अपनों
के प्रति समर्पण की उत्कंठा है—उसे चित्रों के जरिये सामने ले आते हैं. यह
हुनर विरलों के पास होता है. इस क्षेत्र में डॉ. रत्नाकर की प्रवीणता असंद्धिग्ध है.
आधुनिक कला में देह को अकसर बाजार से जोड़कर देखा
जाता है. यहां
डॉ. रत्नाकर
के चित्र एकदम अलग हैं. बाजार गांव-देहात में भी होते हैं. लेकिन वे लोगों की जरूरत की चीजें उपलब्ध कराने
के जरूरी ठिकाने कहलाते हैं. अपने मुनाफे के लिए वे जरूरतें बनाते नहीं हैं. इस
तरह कुछेक अपवादों को छोड़कर गांवों में बाजारवाद की भावना से दूर बाजार होता है, ऐसे
ही डॉ. रत्नाकर
के स्त्री-संबंधी
चित्रों में स्त्री-देह तो है, मगर किसी भी प्रकार के देहवाद से परे है. राजा
रविवर्मा ने भी गठीले और भरे देह वाली स्त्रियों के चरित्र बनाए हैं. लेकिन
उनमें से अधिकांश चित्र या तो अभिजन स्त्रियों के हैं या फिर उन देवियांे के, जिनका
श्रम से कोई वास्ता नहीं रहता. वे उस वर्ग का प्रतिनिधित्व करती हैं, जो
परजीवी है, दूसरों
के श्रम-कौशल
पर जीवन जीता है. कुल मिलाकर रविवर्मा के चित्रों में वे स्त्रियां
हैं, जिन्हें
बाजार ने बनाया है. चाहे वह बाजार उपभोक्ता वस्तुओं का हो अथवा धर्म
का. डॉ. रत्नाकर
की स्त्रियां बाजारवाद की छाया से बहुत दूर हैं. उनके लिए देह जीवन-समर में जूझने का माध्यम है. इसलिए
वहां दुर्बल छरहरी काया में भी अंतर्निहित सौंदर्य है. इस बारे में उनका कहना है, ‘मेरे
चित्रों के पात्र अपनी देह का अर्थ ही नही समझते. उनके पास देह तो है, परंतु देह और देहवाद का अंतर वे समझ नहीं पाते.’ हम
जानते हैं, देह
और देहवाद के बीच वही मूलभूत अंतर है जो असली और नकली के बीच होता है. बकौल
डॉ. रत्नाकर, ‘बाजारीकरण
देह में लोच, लावण्य
और आलंकारिकता तो पैदा करता है, मगर उससे स्त्री की अपनी आत्मा गायब हो जाती है. वह
निरी देह बनकर रह जाती है. मैंने अन्य चित्रकारों द्वारा चित्रित आदिवासी भी
देखे हैं. उनके
चित्रों के आदिवासी मुझे किसी स्वर्गलोक के बाशिंदे नजर आते हैं. ऐसे
लोग जो हर घड़ी बिना किसी फिक्र के आनंदोत्सव में मग्न रहते हैं. उसके
अलावा मानो कोई काम उन्हें आता नहीं है.’ वे आगे बताते हैं, ‘मुझे यह कहने में जरा भी अफसोस नहीं है कि मेरे
बनाए गए चित्रों के पात्र सुकोमल स्त्री तथा बलिष्ठ पुरुष का प्रतिनिधित्व करते
हैं, उन
स्त्री-पुरुषों
का भी प्रतिनिधित्व करते हैं, जिन्होंने अपना रूप-सौंदर्य खेत-खलिहानों के धूप-ताप में निखारा है. मुझे उस यथार्थ के सृजन में सुकून प्राप्त होता
है, जो
चिंतित अथवा बोझिल है. उन स्त्रियों की वेदना उकेरने में भी मुझे शांति
की अनुभूति होती है, जिनके पुरुष अपना सारा बल और तेज, रोग, व्याधि, कर्ज, जमींदारों
के अत्याचार और समय के हवाले कर चुके हैं.’ उनके द्वारा गढ़ गए स्त्री-चरित्रों
में प्राकृतिक रूप-वैभव है, इसके बावजूद वे किसी भी प्रकार के नायकवाद से
मुक्त हैं. वे
न तो लक्ष्मीबाई जैसी ‘मर्दानी’ हैं, न ‘राधा’ सरीखी प्रेमिका, न ही इंदिरा गांधी जैसी कुशल राजनीतिज्ञ. वे
खेतों-खलिहानों
में पुरुषों के साथ हाथ बंटाने वाली, आवश्यकता पड़ने पर स्वयं सारी जिम्मेदारी ओढ़
लेने वाली कमेरियां हैं. जो अपने क्षेत्र में बड़े से बड़े नायक को टककर
दे सकती हैं.’ और
जब डॉ. रत्नाकर
यह कहते हैं तो वे किसी एक शहर या प्रदेश के कलाकार नहीं, बल्कि राष्ट्रीय कलाधर्मी होने का गौरव प्राप्त
कर लेते हैं.
अपने चित्रों के लिए वे जिन रंगों का चुनाव करते
हैं, वह
आकस्मिक नहीं होता. बल्कि उसके पीछे पूरी सामाजिकता और जीवन रहस्य
छिपे होते हैं. उनके
स्त्री-चरित्र
रंगों के चयन को लेकर बहुत सजग और संवेदनशील होते हैं. वे उन्हीं रंगों का चयन करते हैं, जो
उनके जीवन-उत्सव
के लिए स्फुर्त्तिदायक हों. उनके अनुसार लाल, पीला, नीला और थोड़ा आगे बढ़ीं तो हरा, बैंगनी, नारंगी
जैसे आधारभूत रंग ग्रामीण स्त्री की चेतना का वास्तविक हिस्सा होते हैं. उत्सव
और विभिन्न पर्वों, मेले-त्योहारों पर ग्रामीण स्त्री इन रंगों से दूर रह
ही नहीं पाती. प्रतिकूल
हालात में इन रंगों के अतिरिक्त ग्रामीण स्त्री के जीवन में, ‘जो
रंग दिखाई देते हैं, वह सीधे-सीधे कुछ अलग ही संदेश संप्रेषित करते हैं. उन
रंगों में प्रमुख हैं—काला और सफेद, जिनके अपने अलग ही पारंपरिक संदर्भ हैं.’
हम जानते हैं कि विज्ञान की दृष्टि में ‘काला’ और
‘सफेद’ आधारभूत रंग न होकर स्थितियां हैं. पहले में सारे रंग एकाएक गायब हो जाते हैं; और
दूसरी में इतने गड्मड्ड कि अपनी पहचान ही खो बैठते हैं. भारतीय स्त्री, खासतौर पर हिंदू स्त्री जीवन के साथ जुड़कर ये
रंग किसी न किसी त्रासदी की ओर इशारा करते हैं. बहरहाल, रंगों के साथ स्त्री का सहज जुडाव उसे प्रकृति और
सत्य के समीप रखता है. डॉ. रत्नाकर अपनी प्रेरणाओं के लिए लोक पर निर्भर हैं. यह
सवाल करने पर कि क्या उन्हें लगता है कि वे अपने चित्रों के माध्यम से लोक को
संस्कारित कर रहे हैं, वे नकारने लगते हैं. उनकी दृष्टि का लोक स्वयं-समृद्ध
सत्ता है, ‘अपने
आप में वह इतना समृद्ध है कि उसे संस्कारित करने की जरूरत ही नहीं पड़ती.’ किसी
भी बड़े कलाकार में ऐसी विनम्रता केवल उसके चरित्र का अनिवार्य गुण नहीं होती, बल्कि
लोक को पहचानने की जिद में आत्म को बिसार देने के लिए भी यह अनिवार्य शर्त है.
एक बहुत पुरानी बहस है कि ‘जीवन कला के है या कला
जीवन के लिए.’ इसका
समर्थन और विरोध करने वालों के अपने-अपने तर्क हैं जो विशिष्ट परिस्थिति के अनुसार
अदलते-बदलते
रहते हैं. यह
हमारे समय की विडंबना है कि गरीब और साधारणजन के नाम पर रची गई कला, उसके
किसी काम की नहीं होती. ऐसा नहीं है कि उन्हें इसकी समझ नहीं होती. दरअसल
कलाकार की परिस्थितियां और उसका विशिष्टताबोध किसी भी रचना को जिस खास ऊंचाई तक ले
जाते हैं, उसका
मूल्य चुकाना जनसाधारण की क्षमता से बाहर होता है. यह त्रासदी कमोबेश हर कला के साथ जुड़ी है. संभ्रांत
होने की कोशिश में कला अपने वर्ग की पहुंच से बाहर हो जाती है. डॉ. रत्नाकर
कला का उद्देश्य जीवन और समाज को सौंदर्यवॉन बनाने में मानते हैं, ‘जीवन
के सारे उपक्रम अंततः इस दुनिया को सुंदर बनाने के उपक्रम हैं. कला
के विविध माध्यम कहीं न कहीं हमारे कार्य-व्यापार को व्यापक और सरल बनाते हैं. इसकी
जरूरत इतनी आसानी से खत्म होने वाली नहीं है, हां आपूर्ति जब-जब कटघरे में खड़ी होगी, तब-तब इस तरह के सवाल जरूर उठाए जाते रहेंगे. आखिर
वह कला ही क्या जो आमजन के लिए न हो.’
पिछले कुछ वर्षों में डॉ. रत्नाकर की कला के सरोकार और भी व्यापक हुए हैं. वे
संभवतः अकेले ऐसे चित्रकार हैं जो सामाजिक न्याय की साहित्यिक अवधारणा को चित्रों
के जरिए साकार कर रहे हैं. उन्होंने विशेषरूप से ‘फारवर्ड प्रेस’ के लिए ऐसे
चित्र बनाए हैं, जिनके
बुनियादी सरोकार आम जन की राजनीति और सामाजिक न्याय से हैं. यह
समझते हुए कि सांस्कृतिक दासता, राजनीतिक दासता से अधिक लंबी और त्रासद होती है. उसका
सामना केवल और केवल जनसंस्कृति के सबलीकरण द्वारा संभव है—उन्होंने परंपरा से हटकर
ऐसे लोक-उन्नायकों
के चित्र बनाए हैं, जो भारतीय बहुजन के वास्तविक नायक रहे हैं. अपने
स्वार्थ की खातिर, अभिजन संस्कृति के पुरोधा उनका जमकर विरूपण करते
आए हैं. अतः
जरूरत उस गर्द को हटाने की है जो वर्चस्वकारी संस्कृति के पैरोकारों ने बहुजन
संस्कृति के नायकों के चारित्रिक विरूपण हेतु, इतिहास के लंबे दौर में उनपर जमाई है. डॉ. रत्नाकर
ने बहुजन संस्कृति के जिन प्रमुख उन्नायकों के चित्र बनाए हैं, उनमें
नास्तिक विचारक कौत्स, आजीवक मक्खलि गोसाल अजित केशकंबलि, पौराणिक
सम्राट महिषासुर आदि प्रमुख हैं. कुछ और चित्र जो उनसे अपेक्षित हैं, उनमें
महान आजीवक विद्वॉन पूर्ण कस्सप, बलि राजा, पुकुद कात्यायन आदि का नाम लिया जा सकता है.
यह ठीक है कि भारत के सांस्कृतिक इतिहास में इन
बहुजन विचारकों एवं महानायकों के चित्र तो
दूर, सूचनाएं
भी बहुत कम उपलब्ध हैं. लेकिन असली चित्र तो देवी-देवताओं
के भी प्राप्त नहीं होते. उनके बारे में प्राप्त विवरण भी हमारे पौराणिक
लेखकों और कवियों की कल्पना का उत्स हैं. मूर्ति पूजा का जन्म व्यक्ति पूजा से हुआ है. इस
विकृति से हमारा पूरा समाज इतना अनुकूलित है कि उससे परे वह कुछ और सोच ही नहीं
पाता है. हर
बहस, सुधारवाद
की हर संभावना, आस्था
के नाम पर दबा दी जाती है. मूर्तियों और चित्रों में गणेश, राम, सीता, कृष्ण, विष्णु
आदि को जो चेहरे और भंगिमाएं आज प्राप्त हैं, उनमें से अधिकांश उन्नीसवीं शताब्दी के कलाकार
राजा रविवर्मा की देन हैं. अतः बहुजन दार्शनिकों और महानायकों के चरित्र को
उनके चित्र के माध्यम से उजागर करने की डॉ. रत्नाकर तथा ‘फारवर्ड प्रेस’ की मुहिम न केवल
सराहनीय बल्कि सामाजिक न्याय की दिशा में उठाया गया क्रांतिकारी कदम है. डॉ. रत्नाकर
का यह कार्य इतना मौलिक और महान है कि सिर्फ इन्हीं चित्रों के लिए वे कला इतिहास
में लंबे समय तक जाने जाएंगे. डॉ. रत्नाकर प्रशंसकों में से एक वरिष्ठ साहित्यकार
से.रा. यात्री
लिखते हैं—‘भारत के सम्पूर्ण कला जगत में वह एक ऐसे विरल चितेरे हैं जिन्होंने
अनगढ़, कठोर
और श्रम स्वेद सिंचित रूक्ष जीवनचर्या को इतने प्रकार के रमणीक रंग-प्रसंग
प्रदान किए हैं कि भारतीय आत्मा की अवधारणा और उसका मर्म खिल उठा है. आज
रंग संसार में जिस प्रकार की अबूझ अराजकता दिनों दिन बढ़ती जा रही है उनका सहज
चित्रांकन न केवल उसे निरस्त करता है वरन भारतीय परिवेश की सुदृढ़ पीठिका को
स्थापित भी करता है.’
मैं समझता हूं देश के वरिष्ठतम साहित्यकारों में
से एक यात्रीजी की प्रामाणिक टिप्पणी के बाद कुछ और कहने को रह ही नहीं जाता.
ओमप्रकाश कश्यप
जी-571, अभिधा, गोविंदपुरम्
गाजियाबाद—201013
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कुछ पत्र पत्रिकाओं ने अपने आवरण पर मेरी पेंटिंग्स ली हैं -
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