आलेख



डा.लाल रत्नाकर की कलाकृति

प्रो. ईश्वरी प्रसाद



दिल्ली की कला गैलरी की रफतार को देखकर ऐसा लगता है कि समाज में कलाकृतियों के प्रति लोगों का आकर्षण तेजी से बढ़ रहा है दिल्ली में न केवल चि़त्रशालाओं की संख्या बढ़ी है बल्कि इनकी व्यस्तता और दर्शकोंकी संख्या भी बढ़ी है। यह स्पष्ट मालूम पड़ता है कि कलाकार और समाज को एक मंच पर लाने का सबसे आसान और उपयोगी भूमिका दिल्ली की चित्रशालाएं निभा रही हैं। यही वह स्थान है जहां चित्रकार, दर्शक, समीक्षक और ग्राहक एक दूसरे के संम्पर्क में आते हैं और अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। इन्हीं चित्रशालाओं में इन दिनों रविन्द्र भवन कला संग्रहालय में डा.लाल रत्नाकर के चित्रों की प्रदर्शनी चल रही है जिसका आकर्षण दूसरे चित्रशालाओं से भिन्न है।
 
चित्रकला के मानदण्ड
अपने भावों को दूसरों तक पहुंचाने के तरीकों में चि़त्रकला का विशेष स्थान है। संदर्भ वाहन मूलतः शब्दों या दृष्टि के माध्यम से होता है। चित्रकारी आंखों के माध्यम से दिमाग में संदेश देता है। भाषा जहां उपयुक्त शब्दों बराबर हमें आकर्षित करती है, चित्रकला लकीरों औरा रंगों का सहारा लेकर देखने वालों की इंन्द्रियों को संगीत की भाति आनंद देती है। आंखों द्वारा देखे गये भाव आवाज से अधिक प्रभावकारी होते हैं। आवाज धीमा धीमा होता है। आंखें सूचना ग्रहण करने में काफी तेज होती हैं। अतः दिमाग द्वारा सूचना ग्रहण करने का सबसे बेहतरीन माध्यम हमारी आंखें हैं। यि एक सच्चाई प्रतीत होता है कि तेजी से बदलते दुनियां के घटनाक्रमों को कलाकार के सिवा कौन आंखों में समाहित कर सकता है। यहीं कारण है कि कलाकार की भूमिका काफी महत्तवपूर्ण समझी जाती है।
   
      कल्पना और श्रृजनात्मकता से युक्त किसी भी कारीगरी के काम को कला कहां जाता है। मानवीय जीनव में आदिकाल से कलाकृति अभिव्यक्ति का एक शक्तिशाली साधन है। किसी कलाकृति को देख कर आंखें एक ही बार में उन सारे संर्दभों को आत्मसात कर लेती है, जो कलाकार के अंदर छिपे होते हैं।  कला के कई स्वरूप हैं। जब चित्रों के माध्यम से भावों की अभिव्यक्ति की जाती है, ता उसे चित्रकला कहते हैं। चित्रकारी का सृजन तीन तत्वों के सम्मेलन से होता है, समतलधरातल, रेखाएं लकीर और रंग। लकीरों के माध्यम से कलाकार अपने भावों को आकृति प्रदान करता हैं । उन्हीं आकृतियों में रंगों के सामंजस्य से जान लाई जाती है। रंगों के सामंजस्य में ही कलाकार के हाथ की जादुगीरी छीपी होती  है । आधुनिक चित्रकारी में रंगों की परम्परागत पहचान समाप्त ही हो गई है । रंगों के सहारे कलाकार विभिन्न भावनाओं को चित्रों में रेखांकित करता है । साथ ही प्रतीकों के माध्यम से वह दर्शकों की कल्पना को एक दिशा देता है । जब चित्र दर्शकों के दिलों को  स्थापित करने में सफल हो जाता है, उसे कला का दर्जा मिल जाता है । अतः लकीरों की बारीकी  रंगां का सामंजस्य और सटीक प्रतीकों का चयन ही साधारण चित्रकारी की कला को दर्जा में दाखिला देता है ।


     चित्रकारी के माध्यम ये अपनी भावनाओं को दूसरों तक पहुंचाने का काम बहुत कठीन होता है । कारण है कि जीवन अविरल प्रवाह के समान है । यह कभी भी और कहीं भी रूकता नहीं है । लेकिन चित्रकार अपने चित्र में सिर्फ एक क्षण की घटना को ही पकड कर संजो सकता है । उसी क्षण के मारफत  उसे जीवन के खास पक्ष को समग्रता में अभिव्यक्त करना होता है। यदि सही क्षण का चुनाव नहीं हुआ तो कलाकार अपने लक्ष्य को नहीं पा सकता है। उसी प्रकार चित्र में अंकित मूर्ति को भी जीवन के उस पक्ष का प्रतिनिधित्व करना चाहिए वरना भावों की अभिव्यक्ति नहीं होगी। सही प्रतीकों का होना जरूरी है। ये सारी प्रक्रिया काफी जटिल है। इसके बावजूद चित्र को मनमोहक होना चाहिए वरना दर्शकों की आंखे रूकेंगी नहीं। सब मिलाकर चित्रकला का सृजन काफी दुरूह काम है।
        कला सृजन के पीछे कलाकार के लक्ष्य होते हैं। कला के माध्यम से कलाकार जीवन में सौन्दर्य की खोज करता है। सौन्दर्य का एक स्तर व्यक्तिगत आनन्द की अनूभूति से है। जब कलाकृति रसात्मक होती है तो इसका सीधा असर हमारी इन्द्रियों पर पड़ता है। चित्र को देखकर जब दर्शकों में सौन्दर्य बोध होता है तो उसे कला की उपलब्धि मानी जाती है। यह सौन्दर्यबोध और उससे उपजा आनन्द की अनुभूति किसी सुन्दर दृश्य को देखकर हो सकती है। मनुष्य के सुन्दर स्वरूप का रेखांकन, प्रकृति के सुन्दर छवि का अवलोकन तथा आनन्ददायक भावों का चित्रण दर्शकों में आकर्षण और आनन्द पैदा करते हैं। ऐसी कलाकृति अक्सर स्वांतः सुखाय के लिये होती है।

      सौन्दर्य का एक दूसरा स्तर भी है । इसमें सुंदरता की खोज वस्तुओं और छटाओं  में नहीं होती । यह सौदर्य समाज व्यवस्था के स्वरूप में ढुंढा जाता है । कलाकार सौदर्य की खोज वैसी सामाजिक व्यवस्था में करता है, ओ समाज में रहने वाले लोगों को सुखमय जीवन दिलाते हैं। इस सामाजिक सौदर्य के उद्देश्य की पूर्ति के लिए कलाकार चित्रकारी के विभिन्न तत्वों को सुव्यस्थित और क्रमबद्ध ढग से सजाता है। अपने विवके से कलाकार तय करता है, कि उसे अभिव्यक्ति को किस रूप में प्रस्ुतत किया जाय। ताकि वह सामाजिक जीवन में खास पक्ष को प्रदर्शित करते हुए लोगों में अपने प्रति आकर्षण पैदा कर सके। वह पीटी पिटाई तकनीक से हटता भी है। उदाहरण स्वरूप जार्ज रोनाल्ड एक वैश्या का चित्रण करता है। इस लिए वह सुंदर आकृति वाली युवती को रेखांकित नहीं करता। वह उसके शारीरिक और आध्यात्मिक गिरावट से उसे दर्शाता है। यह चित्र श्रेष्ठ कलाकृति में गीना जाता है। जब कलाकार की यह तमन्ना होती है ि कवह समाज में आ रही विकृतियों को समाप्त कर नये समाज की स्थापना करें तो वह उप बुराईयों को चित्र के मारपफत दरसाता है, ताकि लोगों में एक नहीं चेतना पैदा हो सके।  ऐसे कलाकार चित्रों के माध्यम से एक सामाजिक क्रांत्रि को लक्ष्य अपने दिलों में संजोता है।  इन कलाकारों का लक्ष्य समाज का नव निर्माण होता है। इन चि,ों द्वारा भी सौन्दर्य की ही खोज है, जो सुव्यवस्थित समाज के रूप में सामने आता है।  इन चि़त्रों में श्रृजात्मकता होती है और ये कला की श्रेणी  में आते हैं। इनमें कला का लक्ष्य समाज को गढ्मड से निकालकर अच्छी व्यवस्था का निर्माण है।



   चित्रकार की कलात्मकता का मूल्यांकन उसके चित्रों के मारफत होती है, जो घर ,म्यूजियम और गैलरी में टंगे होते है। कलाकार के प्रतिमा को कई मानदण्ड हैं।  अच्छे कलाकार की पहचान है कि  वह अपने चित्रों के माध्यम से अपने गांवों को दर्शकों तक पहुंचाने में सफल होता है। अपनी तूलिका से कलाकार यदि दर्शकों के दिलों को झकझोर सकता है और चित्र में अंकित संदेशों को दर्शकों तक पहुंचा सकता है तो वह अच्छी श्रेणी का कलाकार है। लेकिन चित्र में चुंम्बकीय शक्ति तभी पैदा होती है जब कलाकृति है जब कलाकृति सौन्दर्यबोध के लिहाजन संतोषजनक है।

   सफल कलाकार की दूसरी पहचान है कि वह दर्शकों में नये अनुभवों का बोध कराने की क्षमता रखता है। कलाकार चित्रों में अपने घनीभूत भावों को अंकित करता है क्योंकि जीवन ठहरने वाला नहीं है। भावों का घनीभूत होना इसपर निर्भर करता है कि कलाकृति में अनावश्यक बातें नहीं हैं। वह प्रतीकों के माध्यम से ही गागर में सागर भरता है। कुशल कलाकार विखरे अनुभवों को संकेतों के मारफत सम्पूर्णता में प्रस्तुत करता है। यदि कलाकार दर्शकों की कल्पना को वहां तक ले जाने में सफल होता है जहां चित्रकार के आह्वान स्पष्ट सुनाई पड़ते हैं तो वह प्रतिभावान कलाकार है।

कलाकार की तीसरी कसोटी है अच्छा कलाकार अपनी कला कृति मैं चिर नवीनता के गुणों का समावेश करता है सुंदरता की खोज में वह रंगो रेखा और संकेतो का ऐसा संगम तैयार करता है की चित्र को जितनी बार देखा जाए उतनी बार नवीन मालूम पड़ता है इन सारे गुणों से लैस चित्रकारी कला के अच्छे स्तर में आती है

डॉ.लाल रत्नाकर के चित्र संग्रह.
ललित कला अकादमी की गैलरी में लगे डॉ. लाल रत्नाकर के 50 चित्रों को एक साथ देखने पर कई बातें सामने आती हैं। सबसे पहले यह स्पष्ट मालूम पड़ता है कि यह स्वांतः सुखाय के लिए नहीं बनाए गए हैं। स्वांतः सुखाय वाले चित्रों में अक्सर जीवन को असंबद्ध विचारों की अभिव्यक्ति होती है। रत्नाकर के चित्रों में लुभावने प्रकृति की छटा सुंदर स्त्री तथा मनमोहक प्रसंगों के दर्शन नहीं होते हैं कलाकार को इसीलिए व्यक्तिवादी भी नहीं कह सकते क्योंकि ओवैसी कलाकृतियां सामाजिक लक्ष्यों को परिधि से बाहर होती हैं और इनका कोई संदर्भ नहीं होता व्यक्तिवादी कलाकार अक्सर जीवन की कुरूप अदाओं से टकराने में उनसे पहले पलायन कर जाता है वह जीवन के कोलाहल से दूर रहकर निर्गुण सौंदर्य की खोज में लग जाता है और अपनी अलग दुनिया बसा लेता है।

डॉ लाल रत्नाकर के चित्र संदेश वाहक हैं यह जीवन अनुभव की उपज मालूम पड़ते हैं कलाकार अपने जीवन लक्ष्य को लोगों तक पहुंचाना चाहता है रेखाओं रंगों और प्रतीकों का चयन भी उसने किसी सामाजिक लक्ष्य को ध्यान में रखकर किया है इन चित्रों से कलाकार के दो अंतरंग भाव सामने आते हैं एक ग्रामीण परिवेश की पृष्ठभूमि और दो सामाजिक विषमता से उपजे उत्पीड़न की अभिव्यक्ति।

रत्नाकर के चित्रों की पृष्ठभूमि ग्रामीण परिवेश को दिखाते हैं इन चित्रों में भव्य अट्टालिकाएं आधुनिक जीवन शैली और शहरी जीवन के घुटन की अभिव्यक्ति नहीं है ग्वालन में गायों से गिरी एक सामान्य महिला है प्रपंच में महिलाएं गुफ्तगू कर रही हैं जीवन यात्रा में एक पुरुष अपनी गठरी लिए एक स्त्री से जीवन यात्रा के अनुभव बता रहा है सारे चित्र ग्रामीण इलाके के हैं इन चित्रों की व्याख्या से ऐसा लगता है कि कलाकार भारतीय जीवन को ग्रामीण परिवेश की उपज मानता है शायद कलाकार गांधी की तरह यह भी मानता है कि इस देश की आत्मा गांव में निवास करती है और उसका विकास गांव से ही होकर गुजरता है कलाकार यह मानने को तैयार नहीं है कि ग्रामीण परिवेश जहां 70þ आबादी रहती है वर्तमान प्रभावशाली तथा सभ्यता के वाहक नहीं हैं जो आधुनिक सभ्यता खेती और गांव को औद्योगिक सभ्यता का मलमूत्र मानती है यह इसके विनाश में नई कल्याणकारी सभ्यता का उदय मानती है रत्नाकर का कलाकार भरसक उसी जीवन में लौटना चाहता है जहां छोटी बस्तियां हैं घरेलू जानवर तथा सादे जीवन व्यतीत करने वाले लोग रहते हो यह चित्र यह सोचने को विवश करते हैं की पश्चिमी देशों का नकल नए भारत के निर्माण का फारमूला नहीं हो सकता है ऐसा एहसास होता है कि गैलरी में लगे चित्र एक स्वर से ग्रामीण भारत की जीवन शैली याद दिला रहे हैं।

गैलरी में लगे चित्रों से कलाकार के बेचैन मन का भी एहसास होता है डाक्टर रत्नाकर सौंदर्य को संकीर्ण दायरे में नहीं मानते हैं वरना वह प्राकृतिक छटा सुंदर महिला का चित्रण करते इसके विपरीत रत्नाकर का कलाकार सामाजिक व्यवस्था में सौंदर्य की खोज कर रहा है वह किसी बड़े सामाजिक बदलाव की तमन्ना लेकर बैठा है यही उसका सौंदर्य बोध है यह चित्र यह कह रहे हैं कि भारतीय समाज में सौंदर्य की अस्थापना तभी होगी जब समाज की वर्तमान संरचना को सांगोपांग बदला जाए जब तक भारत की सामाजिक व्यवस्था का स्वरूप मीणा रही है यह सुंदर नहीं हो सकता इसने देश को जड़ बना रखा है मीनार के निचले हिस्से में कोई शक्ति नहीं बची है क्या है यह सड़ी-गली व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह कर सके कलाकार शायद यह भी मानता है कि भारत का विदेशियों से हर युद्ध में हार खाने का तथा आजाद भारत के विकास को औरत रहने का यही कारण है इस सामाजिक व्यवस्था के रहते राष्ट्र का नवनिर्माण की कल्पना अधूरी रहेगी .


भारतीय सामाजिक व्यवस्था ही रत्नाकर के चित्रों की आत्मा है इन चित्रों में देश की सामाजिक विषमता इतने रूपों और संदर्भों में आती है की कलाकार की सारी कल्पना इसी खूट से बँधी सी लगती है कलाकार का विद्रोही मन इसी को बार-बार प्रदर्शित करता है अपने रंगों और संकेतों के मार्फत समाज के इन्हीं कुरीतियों को दर्शाया गया है।

लाल रत्नाकर के चित्रों का मूल्यांकन करने से कई प्रश्न सामने आते हैं हिंदुस्तान दुनिया के प्राचीन देशों में एक पुराना देश है प्राचीन भारत भारत विद्वानों और कलाकारों अपने जीवन के अनेक क्षेत्रों में विशेषता विशिष्टता प्राप्त की है शिल्प कला और वास्तुकला मैं भारतीय कलाकार अद्वितीय रहे हैं। शिल्प कला के गौरवमई इतिहास की चर्चा करते हुए डॉक्टर लोहिया ने लिखा है दुनिया के किसी भी अन्य देश में अपनी आत्मा के इतिहास को और अपनी इतिहास की आत्मा को भारत के समान पत्थरों पर खोज कर लुभावनी सकिन नहीं पी होगी लुभावनी शक्ल नहीं दी होगी भारतीय शिल्पकारी में एक तरफ इतिहास और धर्म विषयक चिंतन में इस्मिता और दूसरी तरफ धार्मिक एवं ऐतिहासिक घटनाओं के काल्पनिक चित्रों में स्वास रोकने वाली लगभग चिरंतन सुंदरता की अनमोल विशाल दूसरे देशों के शिल्प में नहीं मिलती है.

प्रश्न है कि ऐसी प्रतिभा का प्रदर्शन चित्रकला में क्यों नहीं हुआ भारत की प्राचीन चित्रकारी अजंता है अजंता का कितना हिस्सा मौजूद है वह कला के दृष्टिकोण से अद्वितीय है लेकिन बाद के जमाने में यह समाप्त क्यों हो गया शायद प्राचीन भारत के कलाकार चित्रकला से अधिक स्थाई माध्यम पत्थरों के शिल्प कला को कई अर्थों में यह उनका अधिक उपयुक्त चुनाव था लेकिन बाद के कलाकारों ने चित्र कला के प्रति आकर्षण क्यों नहीं हुआ जिस काल में यूरोप में चित्रकला शिखर पर था और वहां उच्च कोटि के चित्रों का निर्माण हो रहा था भारत के कलाकारों ने इसके प्रति आकर्षण इनदिनों नहीं हुआ क्योंकि उसी समय भारतीय समाज अपने आंतरिक और विनाश से जूझ रहा था अपनी रूबी मनोवृति के कारण भारतीय कलाकार राष्ट्रीय जीवन की बुनियादी कमजोरियों के सामने लाने में अक्षम हो गया समसामयिक भारत में भी यह रोगी मनोवृत्ति समाप्त नहीं हुई है यहां की सामाजिक चेतना में विशेष बदलाव नहीं आया है यहां का कलाकार समाज के इस कुरूप स्वरुप या चित्रण नहीं करना चाहता है अधिकतर कलाकार प्राकृतिक सौंदर्य शहरी जीवन तथा पश्चिमी सभ्यता की झलक को अपनी कला का माध्यम बनाता है इन कलाकारों की कल्पना में सुंदर भारत की खोज ग्रामीण जीवन में जाकर नहीं हो सकता है।


अंत में
डॉ.लाल रत्नाकर ने अपने चित्रों के मार्फत राष्ट्रीय जीवन के ऐसे पहलू को उजागर किया है जिसकी जवाबदेही यहां के इतिहासकारों और समाजशास्त्रियों की है । यह एक सच्चाई है कि भारत का सामाजिक धरातल जाति प्रथा से बना है यूरोप का वर्ग व्यवस्था से यह यूरोप का इतिहास जाति व्यवस्था की पृष्ठभूमि में लिखा जाए तो वह हास्यास्पद होगा वैसे ही जाति प्रथा के रहते भारत की व्याख्या को वर्ग व्यवस्था के परिप्रेक्ष में करना गलत है । हमारे कथाकारों और विद्वानों ने इसे अभी तक या तो अज्ञानतावश या शरारतवश इसे स्वीकार नहीं किया है । लेकिन राष्ट्रीय चेतना के इस पहलू की अभिव्यक्त राष्ट्रहित में है । जब तक सामाजिक विषमता समाप्त नहीं होती भारत आगे नहीं बढ़ सकता है। रत्नाकर ने भारत के विद्वानों और कलाकारों द्वारा नजरअंदाज किए गए पहलू को अपने चित्रों की विषय वस्तु बना कर एक सामाजिक दायित्व का निर्वाह किया है । रत्नाकर के चित्र हिंदुस्तान के बूढे समाज में नव जीवन का संदेश लेकर आए हैं। यदि दर्शकों के दिलों में एक नई सामाजिक चेतना पैदा होती है तो यह कलाकार की उपलब्धि होगी । इन कलाकृतियों से उन लोगों का मनोबल बढ़ेगा जिनके जीवन में व्यवस्था परिवर्तन से बेहतर जीवन अवसर उपलब्ध होंगे। डॉ. लाल रत्नाकर का कलाकार एक समाज सुधारक है।


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डॉ. लाल रत्नाकर की कलाकृतियों

में सामाजिक न्याय की अक्काशी।

बी आर विप्लवी
(कथाकार,कवि,गीत और ग़ज़लकार के साथ सामाजिक विमर्श और भारत सरकार के रेल विभाग से सेवानिवृत अधिकारी)

बी आर विप्लवी 

रत्नाकर जी की कला का कोई जवाब नहीं है। उनकी तूलिका रंगों और आकृतियों के माध्यम से गूढ़ एवं जटिल विषय वस्तु को भी सरल बना कर व्याख्यायित करते हुए पेश करती है। किंतु उस सरलता में भी एक विशिष्ट तरह का इशारा छुपा होता है जिसे बारीक़ी से समझने और विश्लेषण करने की नज़र चाहिए होती है। उनके चित्रों के माध्यम से एक बहुत बड़े सामाजिक- वैचारिक विमर्श को नया आयाम मिलता है। 

तृष्णा : आयल ऑन कैनवास 
      उनके चित्रों में अक्सर ग्रामीण परिवेश अपनी पुरातन परिपाटी के साथ-साथ नवोन्मेषी भाव भंगिमा में नज़र आता है । उनकी यह कला  अपने पुराने इतिहास की पृष्ठभूमि में वर्तमान परिस्थितियों को रूपायित  करने के लिए एक सेतु का काम करती है। डॉ.लाल रत्नाकर ऐसे कलाकार हैं जिन्होंने भारतीय ग्रामीण जीवन के सांस प्रस्वांस में जड़ीभूत  वर्ण- व्यवस्था वाली घृणित जीवन शैली को शायद पहली बार चित्रों के ज़रिए जीवंत करते हुए देश और समाज से कुछ गहरे सवाल पूछे हैं--यथा मनुष्य मनुष्य में जन्मना भेद क्यों,तथा एक व्यक्ति जन्म के आधार पर किस प्रकार नीच तथा उच्च माना जाता है ? आखिर सारी योग्यताओं की कसौटी तथा मापदंड भारत में जाति ही क्यों है? क्या किसी के श्रम, कला, ज्ञान-विज्ञान तथा उसकी निर्माण कारी सोच एवं निर्मिति  की इस देश के विकास में कोई अहमियत नहीं है?---आदि आदि। मेरी जानकारी में शायद यह पहली बार है कि ऐसे ज्वलंत तथा सास्वत प्रश्न पर किसी ने सवाल उठाया है। तथाकथित कुलीन मानसिकता वाले प्रच्छन्न जातीय दम्भ से परिपूर्ण मनीषियों- कलाकारों में अकेले पड़ जाने का जोख़िम उठाकर, हिम्मत से -सामाजिक विसंगतियों के विरुद्ध खड़े होने का जो काम उन्होंने किया है वह बहुत ही विरल है। मैं उनकी अद्भुत कला तथा उस में समाए हुए दलित-बहुजन जीवन से जुड़े तमाम पक्षों से अभिभूत हूं। उनकी नैतिक समझ और कुरीतियों से लोहा लेने की उनकी अदम्य क्षमता को यूं ही उत्तरोत्तर बढ़ते जाना होगा।
घसिहारिने : आयल ऑन कैनवास 
   डॉ. लाल रत्नाकर के चित्रों में नारी जगत के चित्र बहुतायत में अपनी पूरी जीवंतता लेकर उभरे हैं । यह कोई अप्रत्याशित नहीं है तथा बहुत ही साफ़ कहा जा सकता है कि ग्रामीण समाज की पूरी अर्थव्यवस्था; विशेष रुप से दलित बहुजन समाज की,स्त्री के कंधों पर ही टिकी हुई है -- इसी बात को कलाकार बार-बार अपने चित्रों में लाता है-- चाहे वह खेत खलिहान का दृश्य हो, जुताई-बुवाई का दृश्य हो,पशुओं के साथ उनके तादात्म्य में तथा पालनकर्ता के रूप में लगाव का चित्र हो,या फिर घरों में ओखल-मूसल, आटा चक्कीपर गीतात्मक श्रमशीलता, सिलबट्टा के साथ, घसियारनें, पनिहारिनें, या गांव या खेतों में महिलाओं की आपसी गोष्ठी और दुखम सुखम के चित्र हों, वे अपने परिवेश के क्लाइमैक्स तथा माहौल को साथ लेकर उपस्थित होते हैं। चित्रों में उनकी भाव-भंगिमा, चितवन, हाथों के इशारे तथा उनके वेशभूषा ने चित्रों में जो कुछ अनकहा सा छुपा होता है-जो अपने आप बहुत सारी कथा-कहानियों को व्याख्यायित करता है ।यही नहीं बल्कि इन चित्रों में स्त्री की देह की प्राचीन भोगवादी और मनुवादी यौनिकिता से अलग हटकर उसके श्रम तथा कार्य व्यापार को प्रमुखता से अंकन किया गया है। यहां स्त्री कोई बाज़ारू वस्तु या 'उपयोग करो और फेंक दो' वाली वस्तु बनकर नहीं आती बल्कि वह समाज में अपनी पूरी दावेदारी के साथ आती है।
उनके कई चित्रों में तो स्त्री-चरित्र अपनी पूरी मालिकाना ठसक के साथ चारपाई पर या मचिया पर बैठी हुक्म चलाते सी नज़र आत हैं जो हमारी पुरानी मात्री प्रधान जीवन परंपरा की याद दिलाते हैं। इन चित्रों में स्त्री आगे आने वाली पीढ़ी की बहू-बेटियों को किस प्रकार नैतिकता एवं आचरण का पाठ भी अपने कार्य व्यापार मैंन शरीक़ करके ही सिखाती हैं जिससे जिंदगी का व्यावहारिक ज्ञान हासिल हो सके।
बुकवा : आयल ऑन कैनवास 
   इस प्रकार हम देखें तो डॉ लाल रत्नाकर ने अपने चित्रों के माध्यम से स्त्री देह की सुंदरता का अक्स तो दिखा रहे हैैं लेकिन उस सुंदरता को प्रकृति से तादात्म्य स्थापित करने का  जो सुनहरा मौका वे सृजित कर देते हैं उससे इस सुंदरता की अर्थव्यवत्ता तथा उसकी प्रासंगिकता सिद्ध हो जाती है। इसी प्रकार वे अपने कई चित्रों में समाज के निचले वर्ग के कामगारों की मेहनत-मशक़्क़त भरी जिंदगी को भी वे अपने चित्रों में उतार देते हैैं । जैसे साफ़- सफ़ाई में लगे स्त्री-पुरुष झाड़ू लेकर अपने कार्य में किस प्रकारसेवा भावना से लगे हुए हैं तथा वहीं बैठा कोई धर्म का तथाकथित पंडा-पुरोहित अपनी माला-टीका-छाप तिलक,धोती-जनेऊ के लम्पट साज-सज्जा में अपनी शातिर नज़रों से किस प्रकार उन्हें देखता है - यह भी चित्र वहां मिलते हैं। यही नहीं बल्कि गांव- गिरांव में पूजा-पाठ, हवन-पूजन के नाम पर किस प्रकार ब्राह्मणवादी परंपरा लोगों को मानसिक गुलाम बनाकर उनका आर्थिक शोषण कर रही है- इसके विचित्र वहां बहुतायत से देखे जा सकते हैं। वास्तव में का डॉ.लाल रत्नाकर का एक-एक चित्र अपने आप में कथानक के साथ पूरा उपन्यास है, जिसके बारे में विस्तार से बात की जा सकती है । 
       
पाहुन  : आयल कैनवास पर  : श्री शरद यादव के संग्रह में 
कुल मिलाकर डा.लाल रत्नाकर के चित्रों में जिस समाजवाद का झंडा बुलंद है उसकी आवाज़ गली मोहल्ले गांव-गांव से अपनी बेचैनी के साथ नमूदार हो रही है जो शायद एक सच्ची कलाकार के कामयाबी की निशानदेही करता है। कला साम्राज्य के जिस पाएदारी, जिस पारितोषिक एवं जिस पहचान के हकदार डॉ.लाल रत्नाकर वह शायद उन्हें आज तक भी नहीं मिल पाया  है। यही भारतीय सामाजिक विभेद की कलई खोलने के लिए पर्याप्त है जिसके कारण एक बहुत बड़े वर्ग के पास उपलब्ध कला तथा तकनीक बिना प्रोत्साहन के अंतिम सांसे  गिन रही है। शायद इस देश में जाति तथा वर्ग चरित्र के कारण लाल रत्नाकर जैसे कितने ही कलाकार खुद अपने देश-समाज भी अनचीन्हे बने हुए हैं। किंतु जो लोग कला के मर्म को समझते हैं उनके ज़रिए उनकी कलाकृतियों ने देश-विदेश में धूम मचा रखी है। कला के साथ परिवर्तनकारी सोच का ऐसा समन्वय बिरला ही  कही मिले।  ऐसे मनीषी कलाकार को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं।
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लाकडउन और वैश्विक महामारी कोरोना में कला

डा.लाल रत्नाकर
इस वेविनार के आयोजकों धन्यवाद के साथ ! 

जैसा की सर्वविदित है कि कला जहां अभिव्यक्ति का स्रोत है वही कला जनमानस को सूचित और संप्रेषित भी करती है नाना प्रकार की सूचनाओं को और उसके माध्यम से बहुत सारी घटनाएं एवं उनकी जानकारी भी कराती है। जब एक कला किसी तरह से मौन हो जाती है तो दूसरी कला अपना काम करना आरंभ कर देती है अब जैसे इस वैश्विक महामारी में यकायक लाकडउन की घोषणा हो गई, जनजीवन ठप हो गया और पूरे देश में व्यवस्था के साथ खड़े होकर के अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन किया इस बीच व्यक्ति के पास अभिव्यक्ति और संप्रेषण के माध्यम सीमित हो गए सोशल मीडिया और सामान्य मीडिया में जो बातें होती रही हो उनमें एक तरह का विभेद और द्वंद हमारे सम्मुख उपस्थित हो गया ऐसे समय में कलाकार की भूमिका केवल एक भावनात्मक अभिव्यक्ति की भूमिका निभा कर शांत नहीं रह सकती। बल्कि वह ऐसे माहौल में अपनी जिम्मेदारी समझता है और अपनी तरह से सोचता है।

इस कलाकार में कैमरामैन भी हो सकता है पेंटर और इंटरव्यूर भी हो सकता है। और इन घटनाओं के साथ उसके अपने तादात में भी जुड़ते हैं यही कारण है कि उसकी रचना उसके सोच के साथ बढ़ती चली जाती है बहुत जरूरी है कि हम ऐसे में उन परिस्थितियों को जाने और उसके लिए उपयुक्त परिवेश तैयार करते हुए अपनी अभिरुचि का समावेश कैसे रोक सकते हैं और यही कारण है कि लंबे समय से मानव सभ्यता विभिन्न तरह की अभिव्यक्तिओ के मध्य अपनी उपस्थिति दर्ज कराती है। हमने इस बीच और देखा है कि किस तरह से जिनके पास सिस्टम की चाबी है और वह किस तरह से उसका इस्तेमाल करते हैं।

इस बीच घटी घटनाओं पर यदि बात की जाएगी तो बहुत सारे लोग उससे अपनी असहमति दर्ज कर सकते हैं लेकिन जब भी वह विश्लेषण करेंगे तो पाएंगे कि जिस तरह से हमारी सरकारें जन सहयोग के लिए निरंतर अंधकार और आभासी एहसास कराती हैं वह यह कैसे नहीं जान पाती हैं कि व्यक्ति का जीवन चंद रुपयों में सुरक्षित हो जाएगा। हजारों हजार की संख्या में देश के विभिन्न हिस्सों में रह रहे कलाकार जिनको हम विविध रूपों में देख सकते हैं वह भवन निर्माण करता हो सकते हैं वह पेंटर हो सकते हैं वह कार्बर हो सकते हैं। वह बार्बर हो सकते हैं। लकड़ी का काम करने वाले लोग हो सकते हैं पत्थर काटने वाले लोग हो सकते हैं शिक्षा खींचने वाले लोग हो सकते हैं सिलाई करने वाले लोग हो सकते हैं या रंगाई करने वाले वस्त्रों की, घरों की या मिट्टी और हाथों से बनाने वाले तमाम तरह की कलात्मक उपादान जिनमें कटोरे कटोरे पंखे आदि आदि तमाम तरह के सामग्री के साथ साथ मशीनों की सहायता से काम करने वाले लोग जिनको आप किस नजर से देखेंगे।

केवल अपने घर में बैठ कर के कुछ कलाकृतियां तैयार कर लेना कला समझते हैं तो निश्चित तौर पर यह हमारी अज्ञानता और ए दूरदर्शिता ही है जिसमें केवल ललित कलाओं में उन्नत कलाओं को रख कर के देखा जाना ही आज कला नहीं है।
इसलिए हम यह कह सकते हैं कि लाकडाउन केवल उपयोगी कलाओं के लिए ही नहीं बल्कि हम जिन विद्यार्थियों को उन्नत कला की शिक्षा देते हैं उनके साथ भी अन्याय हुआ है और निश्चित तौर पर हम यह कह सकते हैं कि इन लगभग तीन महीनों में जो चीजें वह हासिल कर सकते थे वह अब अपने जीवन में दोबारा नहीं कर सकेंगे। इसलिए इस वैश्विक बीमारी करोना के कारण आर्थिक सांस्कृतिक सामाजिक कठिनाइयों के साथ-साथ अध्ययन अध्यापन की कठिनाई एक अपूरणीय क्षति है।


यहां मैं अपने कुछ चित्र आपको दिखाता हूं जो कोरोना के लाकडाउन के दौर में बनाए हैं :










































महत्वपूर्ण यह है कि इस विमर्श में शरीक होकर के बहुत पुराने पुराने परिचितों को मिलने का मौका मिला और अपनी बात कहने का व्यापक प्लेटफार्म मिला जिस तरह से लोगों को मेरे चित्रों और मेरे वक्तव्य से सत्य और कर्म की पहचान हो रही थी सहज ही उसमें उनकी मनोभावना संदेश में निकल कर के आ रही थी।
संचालिका ने आधी आबादी के बारे में जब मुझे जोड़ते हुए संबोधित किया तो मेरा जो आशय था लॉकडाउन के मध्य मैंने जो चित्र बनाए थे वह पूरी आबादी के लिए फिर और पूरी आबादी के साथ एक कलाकार के रूप में मैंने अपनी बात रखी ना की आधी आबादी और उसकी समस्याओं को जिसको मैं अपनी कला में केंद्रित करता हूं।
हालांकि अन्य कला विद्वानों ने क्या महसूस किया होगा यह तो मैं नहीं जानता लेकिन मैंने अपने उत्तरदायित्व को बखूबी निर्वहन किया और समय की प्रासंगिकता को देखते हुए लॉकडाउन के मध्य में कैसी कला से सृजीत हो सकती है और कला विद्यार्थियों को क्या कष्ट झेलना पड़ रहा है उस पर अपनी बात ज्यादा फोकस किया क्योंकि वैश्विक महामारी निश्चित तौर पर देश में लंबे समय तक अपना पांव पसारे रखेगी ऐसा वैज्ञानिकों का मानना है और जब तक इस पर कोई कारगर इलाज आएगा तब तक ना जाने कितनी त्रासद घटनाएं घट चुकी होगी हमारी विरासत संभवत उन घटनाओं कितना सहेज पाएगी यह एक अलग सवाल है।
इसी तरह से मैंने कला प्राध्यापकों और विद्यार्थियों से निवेदन किया कि अगर देश का खाका आपके मन में है तो वह हमारे मनीषियों चिंतकों और समाज सुधारकों के आदर्शों पर चलकर के ही पूरा किया जा सकता है इसलिए मेरा मानना है कि अध्यापकों को अपने काम में ईमानदार होना चाहिए और विद्यार्थियों के प्रति दुर्व्यवहार और दुराचरण नहीं होना चाहिए।
मेरा आशय यहां दुराचरण से यह था कि जिस तरह की शिक्षा व्यवस्था आज चल रही है वह निश्चित तौर पर दुनिया के किसी भी मानदंड पर खरी नहीं उतरती।
इस मध्य मेरे अध्यापन का जो नुकसान हुआ है उसको मैंने देश के हर नुकसान से बड़ा नुकसान मान करके इस पूरे वैश्विक महामारी को अपने वक्तव्य में स्थान दिया है और जो मेरा लक्ष्य था वह इस महामारी ने पूरा नहीं होने दिया मैं उन विद्यार्थियों के प्रति जिन्हें मैंने भरोसा दिया था कि कम से कम इस सत्र की विद्यार्थी अपनी विधाओं में पूर्व की भांति पारंगत साबित होंगे ऐसा मेरा विश्वास है जो अधूरा रह गया।
आयोजकों को बधाई देते हुए उनका धन्यवाद ज्ञापन ज्ञापन करते हुए मैंने अपना वक्तव्य यहीं पर समाप्त किया था।

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कलाओं की ओर बढ़ता गाजियाबाद 
( अखिल भारतीय कला उत्सव गाजियाबाद-2013 के विशेष सन्दर्भ में )  

डॉ.लाल रत्नाकर         
          
इस वर्ष के अखिल भारतीय कला उत्सव गाजियाबाद की चर्चा हो उससे पहले हमें गाजियाबाद में कलाओं के उद्भव को जानना लाजिमी होगा, गाजियाबाद देश की राजधानी दिल्ली (राष्ट््रीय राजधानी क्षेत्र) के करीब का शहर होने के साथ साथ उत्तर प्रदेश का एक औधोगिक शहर है इसका विकास जितने अल्प समय मे हुआ है निश्चित रूप से यह प्रतीत होता है कि भविष्य मे यह शहर विभिन्न विधाओ का केन्द्र बनेगा। ऐसे मे समय की मांग है कि इस शहर मंे कला एंव सांस्कृतिक गतिविधियों का विकास हो। अखिल भारतीय कला उत्सव गाजियाबाद के तत्वाधान में 2004,2005,2006 के उपरान्त इस वर्ष 2013 का आयोजन कई मायने में गाजियाबाद की कला के विकास में मील का पत्थर सावित हुआ है।  लम्बे अन्तराल के उपरान्त गाजियाबाद में अखिल भारतीय कला उत्सव गाजियाबाद-2013 का आयोजन इसलिए सम्भव हो पाया क्योंकि कलाप्रेमी श्री संतोष कुमार यादव का संरक्षकत्व मिला निश्चित रूप से यह अवधारणा पुर्नस्थापित हुयी कि कलाआंे के समुचित विकास के लिए संरक्षकत्व की महति आवश्यकता है। गाजियाबाद जहां नगरीय विकास की अपनी अवधारणा में प्रगतिगामी है, वैश्विक मान्यताओं के अनुरूप अपना स्वरूप गढ़ने में अग्रणी है यद्यपि उनका उद्येश्य व्यवसायिक ही है, पर भले ही आज उन्हें इसबात की जरूरत महसूश न हो पर कहीं न कहीं हमें हमारी उन परम्पराओं को भी जीवित रखते हुए उन्हें प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। इन्हीं उद्येश्यों की पूर्ति के लिए सांस्कृतिक गतिविधियां बढ़ाई जानी आवश्यक हैं, जिसे प्रशासन ने एक आयाम दिया है जिसमें ‘कलाधाम’ का निर्माण ही इन्हीं उद्येश्यों की पूर्ति के लिए गाजियाबाद विकास प्राधिकरण गाजियाबाद द्वारा कराया गया है।

हमेशा की तरह इसबार भी देश के कोने कोने से मूर्तिकारों एवं चित्रकारों की एक बड़ी टीम जिसमें युवा एवं वृद्ध समान रूप से शरीक हुए हैं जिनका उल्लेख आगे किया जाएगा। इस कला उत्सव में मूर्तिकारों को अधिक समय और चित्रकारों को अपेक्षाकृत कम समय की जरूरत होती है इसीलिए मूर्तिशिल्पी फरवरी,24,2013 को ही आ गए जिससे वह अपना कार्य समय से आरम्भ कर सकें और तय समय के भीतर पूरा कर लें। अतः मूर्तिकला कार्यशाला के आयोजन का आरम्भ फरवरी,25,2013 को 11 बजे मुख्य अतिथि के रूप में पधारे पद्मश्री राम वी. सुतार के करकमलों द्वारा हुआ जिसकी अध्यक्षता संतोष कुमार यादव, उपाध्यक्ष, गाजियाबाद विकास प्राधिकरण ने की संरक्षकत्व का दायित्व एस.वी.एस. रंगाराव जिलाधिकारी गाजियाबाद ने निर्वहन किया, इस अवसर पर सुश्री किरन यादव यातायात पुलिस अधीक्षक एस.वी राठौर एवं डी.पी.सिंह विशेष कार्याधिकारी गा.वि.प्रा. ने इस    निहायत सादे समारोह में अतिथियों को उनके किट और पुष्पगुच्छ प्रदान किए। तद्परान्त मुख्य अतिथि पद्मश्री राम वी. सुतार ने इस अवसर पर मूर्तिकला कार्यशाला का शुभारम्भ एक विशाल शिला पर अपने कुशल शिल्पी अन्दाज में जिस सधे अन्दाज से आघात लगाए तो कलाधाम का प्रांगण फिर से उस अट्हास से उन्मादित हो उठा इस अवसर पर राजस्थान से बुलाए गए मूर्तिकारों के सहायकों का भी स्वागत किया गया। नगर से पधारे कला प्रेमी, पत्रकारगण, कला विद्यार्थियों एवं गाजियाबाद विकास प्राधिकरण के अधिकारीगण, अभियन्तागण, अभियन्त्रण सेवाओं एवं अन्य कर्मचारीगण के सम्मुख मूर्तिकारों ने अपनी शिलाओं को चिन्हित किया। संयोजकत्व एवं सहभागी मूर्तिकार का दायित्व भी लेखक ने निर्वहन किया एवं कार्यक्रम का संचालन डा.प्रकाश चैधरी ने किया।  

मूर्तिकारों ने अपने किट से एप्रिन निकाले पहने स्केच बुक पर कुछ आडी तिरछी रेखाएं खींचनी आरम्भ की, फिर क्या था कलाधाम परिसर में हथौड़े और छेनियों की झनकार और ग्राईण्डरों का शोर उनसे निकलते हुए आकार दर्शकों की जिज्ञासा और काले मार्बल में बनते आकार कलाकारों की चहल कदमी आपसी हालचाल और उनके काम का हल्का से आकलन फिर क्रेन से शिलाओं का नियन्त्रण इस प्रकार आरम्भ हुयी मूर्तिकलाओं की कार्यशाला। पूरे परिसर में संगीतलहरी के साथ सर्द हवाएं सायंकाल तक कोई रूकने का नाम ही नहीं ले रहा है। दर्शकों का कौतुहल बना हुआ है आकार दिखाई तो दे रहे हैं पर वे आकलन नहीं कर पा रहे हैं क्या बनेगा, एक तरफ से हताश दूसरे मूर्तिकार से वही सवाल क्या बना रहे हैं। उन्हें समझ नहीं आ रहा है कि इनमें असली मूर्तिकार कौन हैं, जो शिलाओं को तोड़ रहे हैं या जो उन्हें निर्देशन कर रहे हैं, अद्भूद संगम है।  यहां यह बताना जरूरी है कि अब तक जितने भी कैम्प यहां आयोजित हुए हैं उनमें काला मारबल ही प्रयोग किया गया है। आइए बताते हैं कौन कौन हैं इसबार के मूर्तिकार और ये कहां से यहां आए हैं -  पहले चलते हैं तारक ‘दा’ के पास इनका पूरा नाम है श्री तारक गरई यह कोलकाता से आए हैं ये इससे पहले भी सम्पन्न कला उत्सव में शरीक रहे हैं 2006 और 2007 स्वतंत्र रूप से कार्य करने वाले समकालीन मूर्तिकार हैं अन्र्तराष्ट््रीय ख्यातिलब्ध तारक दा शान्ति निकेतन से कला की शिक्षा के बाद अपनी एक पहचान बनाए हैं, सभी माध्यमों में बंहुत ही निपुणता से कार्य में दक्ष हैं साथ ही अन्य कलाओं में भी अपनी दखलंदाजी रखने वाले दादा सरल और मृदुल स्वभाव के व्यक्ति हैं। 2006 के कैम्प की इनकी एक समूह प्रतिमा जिसमें तीन प्रतिमाएं बनायी गयी थीं जिन्हें कलाधाम में स्थापित करते समय अलग अलग कर दिया गया जिससे उसकी भव्यता तो कम ही हुई और अर्थहीन भी हो गयी, इससे दादा को पता चला तो बहुत दुख हुआ, संयोजक के नाते मैंने पुनः उन्हें गाजियाबाद आने के लिए राजी किया, जब यह बात उपाध्यक्ष महोदय को पता लगी तो उन्होंने दादा को आश्वस्त किया कि इसे संयोजित कर समुचित और उपयुक्त स्थान पर लगवाया जाएगा। इसबार दादा ने तीन विशाल शिलाखंड लगभग 10 फुट ऊंचाई का वरण किया और उनको संयोजित कर ‘बुद्ध’ का विशाल चेहरा निरूपित किया, इसे बनाने में तीन सहयोगी कारबरों के साथ 15 दिनों तक निरन्तर कार्य किए। इसी क्रम में उन्होने एक और शिलाखंण्ड को आकार दिया जिसका नाम ‘कृष्ण’ रखा। दादा का गाजियाबाद से बहुत ही अपनेपन का सम्बन्ध हो गया है उन्हें यहां कला के विकास की असीम सम्भावनाएं दिखती हैं। यही तो बात है जिसके लिए उन्होने मूर्तियों के एक पार्क की मांग कर डाली। 

सी.पी.चैधरी उदयपुर राजस्थान से हैं यह राष्ट््रीय स्तर के वरिष्ठ मूर्तिकार हैं यह गाजियाबाद के अखिल भारतीय कला उत्सव में पहली बार शरीक हुए इन्होंने ‘खिड़की’ की रचना की है।  रतन लाल कन्सोडरिया अहमदाबाद गुजरात के जानेमाने मूर्तिकार हैं यह पहलीबार गाजियाबाद के अखिल भारतीय कला उत्सव में सिरकत किए हैं इन्होंने यहां जल संरक्षण पर अपना शिल्प तैयार किया हैं।  नागप्पा प्रधानी बंगलौर कर्नाटक से है विश्वभारती कला निकेतन शान्तिनिकेतन से शिक्षा लेकर के कला महाविद्यालय बंगलौर कर्नाटक मूर्तिकला विभाग में प्राध्यापक हैं पहलीबार गाजियाबाद के अखिल भारतीय कला उत्सव में शरीक हुए हैं ‘कम्पोजिशन’ नाम से आधुनिक शिल्प बनाया है।   शिब प्रसाद बरार रायपुर छत्तीसगढ़ से आए ‘मदरचाईल्ड’ शीर्षक से एक शिल्प तैयार किए हैं।  अशोक कुमार महापात्रा पुरी उड़ीसा से हैं इन्होंने ‘मूर्तिकार’ परम्परागत शैली में बनाया है।  सुशान्त कुण्डू मुम्बई महाराष्ट्र् से आए ये गाजियाबाद के कला आन्दोलन के सक्रिय युवा है मूर्तिकला कैम्प की तैयारी में हमेशा से इनका सहयोग रहा है, पहले गाजियाबाद आ जाना और सबसे बाद में जाना। युवा मूर्तिकार के नाते समकालीन कला पर गहरी पकड़, रचना की कसौटी पर खरे सुशान्त मेरे इस आयोजन के प्रमुख हिस्से से हो गए हैं।  पी.इलाचेन्झियन युवा मूर्तिकार हैं तमिलनाडु से पधारे चेन्झियन अनेक माध्यमों में दक्ष हैं इनके मेटल के काम तो बहुत ही गजब के हैं। यहां पर जो वृषभ इन्होंने बनाया है अब वह पुराने बस अड्डे के चैराहे पर विराजमान है।  नीलेश शिन्दे नागपुर महाराष्ट््र के युवा मूर्तिकार हैं गाजियाबाद पहलीबार आना हुआ पर अपने कौशल का प्रदर्शन जिस शिलाखण्ड में दिखाया है वह समकालीन मूर्तिशिल्प का नमूना है जिसे ‘सूरज और चांद’ शीर्षक दिया है।  परमिन्दर सिंह सन्धू पंजाब से आए और पहाड़ सी शिला चुनी और गढ़ दिया उसे जिसके अर्थ तलासते रहें लोग।  शिवान और कुमार सन्तोष जो गाजियाबाद से हैं ने भी आकृतियां तराशी हैं।  इन सब के साथ मुझे भी तारक दा ने लगा दिया उस विशाल शिलाखण्ड को गढ़ने के लिए जिसमें मुख्य अतिथि पद्मश्री राम वी. सुतार ने मूर्तिकला कार्यशाला का शुभारम्भ उसी विशाल शिला पर अपने कुशल शिल्पी अन्दाज में जिस सधे अन्दाज से आघात लगाए थे। मैने अपने कला पात्रों को रूपायित किया जिसमें आगे पीछे अनेक लोग जुड़ते गए कुल संख्या हो गयी सात, एक दूसरे को सहारा देते मानवीय सम्वेदनाओं को समेटे बिना सिर के सात लोग एक साथ आ गए।  यह सारे मूर्तिकार लगातार अपने कार्य मार्च,04,2013 तक पूरा करने का प्रयत्न तो किए लेकिन इसबार की शिलाओं का आकंर इतना विशाल था जो सामन्यतया किसी भी कैम्प में नहीं दिया जाता, परन्तु सभी ने अपने मनोयोग से अपने समस्त कार्यों को पूरा ही कर लिया था। 

चित्रकारों की कार्यशाला फरवरी,27, 2013 को श्री उदय प्रताप सिंह अध्यक्ष हिन्दी संस्थान उ.प्र. एवं प्रख्यात साहित्यकर्मी श्रीमती चित्रा मुद्गल जी के करकमलों द्वारा सम्पन्न हुआ जिसकी अध्यक्षता संतोष कुमार यादव, उपाध्यक्ष, गाजियाबाद विकास प्राधिकरण ने की संरक्षकत्व का दायित्व एस.वी.एस. रंगाराव जिलाधिकारी गाजियाबाद ने निर्वहन किया, इस अवसर पर एस.वी राठौर एवं डी.पी.सिंह विशेष कार्याधिकारी गा.वि.प्रा. ने इस निहायत सादे समारोह में अतिथियों को उनके किट और पुष्पगुच्छ प्रदान किए कार्यक्रम का संचालन विनोद वर्मा ने किया।   अगर देखा जाय तो कलाएं हमारे समाज का प्रतिनिधित्व भी करती हैं, वे केवल एक सजावट की सामग्री नहीं हैं इनमें कलाकार की अपनी अभिव्यक्ति भी है।   इसबार जो चित्रकार इसमें शिरकत किए वे इस प्रकार हैं श्री आलोक भट्टाचार्य कोलकाता, श्री भंवर सिंह पंवार, अहमदाबाद, गुजरात. श्री प्रेम सिंह, नोएडा. श्री आर.के. यादव, नई दिल्ली, श्री राव साहब गुरवु, पुणे, महाराष्ट््र, श्री मुरली लाहुटी पुणे, महाराष्ट््र, श्री अशोक भौमिक, नई दिल्ली, डा. राम शब्द सिंह, सहारनपुर, श्री मनोज बालियान, नई दिल्ली, श्रीमती डा. लता वर्मा, गाजियाबाद, श्रीमती कविता बालियान, गाजियाबाद, श्री कुमार संतोश, गाजियाबाद, श्रीमती रेनू यादव, गाजियाबाद, डा. अल्का चडढ़ा, मेरठ, श्रीमती प्रियंका जैन, सोनीपत, हरियाणा, श्रीमती रजनी, फरीदाबाद, हरियाणा, डा.दल श्रृंगार प्रजापति, मोदी नगर, गाजियाबाद। अरविन्द कुमार, गाजियाबाद. श्रीमती सीमा भाटी, गाजियाबाद, श्रीमती प्रीति वर्मा, गाजियाबाद, यदु एवं पुरू गाजियाबाद से इनके अतिरिक्त अनेक वे लोग भी शरीक हुए जो कुछ करना चाहते थे।  अन्य सांस्कृतिक गतिविधियों में इस कैम्प के दरमियान सायंकालीन दैनिक कार्यक्रम चलता रहा जिनमें कवि सम्मेलन, मंचन, नृत्य एवं नृत्य नाटिकाएं भी आयोजित हुईं प्रमुख रूप से इसमें जो कवि शरीक हुए उनमें डा. लक्ष्मी शंकर बाजपेयी, निदेशक-आकाशवाणी, श्रीमती कीर्ति काले, विष्णु सक्सेना, पापुलर मेरठी, देवल अशीष, सुरेंद्र दुबे, विजेंन्द्र परवाज, नवाज देवबंदी, मासूम गाजियाबादी। गान्धर्व संगीत महाविद्यालय के कलाकार, वी.एम.एल.जी. कालेज गाजियाबाद की छात्राएं, एम.एम.एच. कालेज गाजियाबाद के छात्र छात्राएं, आजमगढ़ से पंडित नाट्य मंच। सारंगा, नई दिल्ली आदि ने अपने अभिनय से दर्शकों एवं कलाकारों की वाह वाहियां बटोरी। ़ 
अखिल भारतीय कला उत्सव गाजियाबाद-2013 के प्रायोजक आम्रपाली ग्रुप थे गा0 वि0 प्रा0 गाजियाबाद के तत्वाधान में इस कला उत्सव में निर्मित मूर्तियां एवं कलाकृतियां अपने तरह की एक अमूल्य निधि हैं।  
पूरा आयोजन दिनांक.04 मार्च 2013 को प्रो0 राम गोपाल यादव सांसद व नेता संसदीय दल लोकसभा समाजवादी पार्टी के द्वारा समापन की रस्म को पूरा किए सम्पूर्ण कला उत्सव में निर्मित मूर्तियां एवं कलाकृतियांे का अवलोकन कर प्रो0 यादव ने इनकी प्रासांगिता पर बल देते हुए राष्ट््र के कोने कोने से आए हुए कलाकारों का आभार ज्ञापित किए कि वह अपने कौशल से इस शहर के लिए बेशकिमती कलाकृतियां तैयार कर रहे हैं यह शहर हमेशा इन्हें याद रखेगा। प्रो0 यादव ने उपाध्यक्ष, जिलाधिकारी, सचिव व समस्त गा0 वि0 प्रा0 गाजियाबाद के अधिकारियों की प्रशंसा करते हुए मुझे (लेखक) भी हिम्मत बधाई कि मैं अखिल भारतीय कला उत्सव गाजियाबाद के संयोजकत्व का दायित्व पूराकर पा रहा हूं। इस अवसर पर कलाप्रेमी नगरवासी, छात्र छात्राएं एवं समस्त कलाकार शामिल हुए।  
कलाओं की ओर बढ़ते गाजियाबाद की कला संकल्पना का एक चरण और आगे बढ़ा जिसमें कलकारों की मांग पर उपाध्यक्ष गा0 वि0 प्रा0 गाजियाबाद से मशविरा कर मूर्तिकला पार्क के निर्माण की प्रो0 राम गोपाल यादव द्वारा घोषणा की गयी जिसका श्री अखिलेश यादव मुख्यमंत्री मुख्यमंत्री उत्तर प्रदेश ने गाजियाबाद आगमन पर संजय नगर में ‘मूर्तिकला पार्क’ का शिलान्यास भी किया ।
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(लेखकः प्रख्यात चित्रकार हैं,अखिल भारतीय कला उत्सव गाजियाबाद के संयोजक हैं, एम.एम.एच.कालेज गाजियाबाद मे चित्रकला विभाग के अध्यक्ष)  
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पत्थर के कोल्हू में उत्कीर्णित लोक कला


डा.लाल रत्नाकर

पत्थर की खुदाई

                             इस प्रदेश में प्राचीन काल से उन्नत कला के रूप में पत्थर का काम होता चला आ रहा था, उदाहरण के लिए  सारनाथ (बनारस) में अन्य युगों के अतिरिक्त गुप्तकाल की मूर्तिकला का एक बहुत बड़ा केन्द्र था, और इस सारे क्षेत्र में विष्ेाशकर मिर्जापुर क्षेत्र में पूर्व मध्यकालीन कला का बड़ा क्षेत्र था। इस प्रकार यहां पत्थर की खुदाई-करने वाले कलाकार हुआ करते थे, परन्तु लोक कला में तुलनात्मक दृश्टि से पत्थर की खुदाई का काम कम हुआ। कुछ तो लोक देवताओं की मूर्तियों को फिर से प्रतिश्ठित कर दिया जाता है और नये सन्दर्भ में उनकी पूजा की जाती है। कहीं-कहीं सती के पत्थर मिलते है, जो मिर्जापुर तक में ही सीमित हैं और उनमें से तो कुछ दो तीन सौ वर्ष पुराने लगते हैं इन सब आकृतियों का हम यथास्थान उल्लेख करेेंगे। कुछ ऐसी व्यावहारिक वस्तुओं को भी देवता स्वरूप मान लिया गया है जैसे पत्थर के कोल्हू।1

                     यहाँ हम एक मुख्य रूप से विस्तार के साथ उसे लेगें जो गाँवों में सामान्य रूप से पाया जाता है, परन्तु अब इसकी उपयोगिता समाप्त हो गयी है। अतः पिछले 50, 60 वर्शो से या कुछ और अधिक समय से इनका निर्माण बन्द हो गया है। यह पत्थर की बड़ी-बड़ी षिलाओं के बने कोल्हू हैं जो किसी समय प्रत्येक गांव में रहे होंगे परन्तु अब कहीं-कहीं गांव के किनारे दिखलाई पड़ जाते हैं इनमें एक गोल भाग हेाता है जो प्रायः 70 या 80 सेण्टीमीटर ऊँचा होता है यही भाग अलंकृत होता है, हम इन अलंकारों का आगे विवरण देगें। इसके पूर्व हम इस कोल्हू का थोड़ा हाल दे देना आवष्यक समझते हैं। 
                                                         


                        यह कोल्हू गन्ने का रस निकालने के लिए बनाया जाता था। और पूरा का पूरा एक पत्थर का होता था जो कोई 2-1/2 या तीन मीटर ऊँचा होता था इसका निचला भाग भूमि में गाँठ दिया जाता था यह अंष सादा होता था जमीन से बाहर निकले हुए अंष में एक गरदन के समान होता है देखिए चित्रसंख्या (217)। इस गरदन पर एक लकड़ी का तख्ता बाँधकर बैल हाॅकने वाले का एक प्लेट फार्म की तरह बना दिया जाता था जो बैल के साथ-साथ घूमता रहता है। इसके ऊपर कोल्हू वाला मुख्य भाग होता है जो अलंकृत होता।2 

             इन कोल्हूओं का ठीक-ठीक अध्ययन नहीं हुआ है और ऐसी आशा की जाती है कि हमारे क्षेत्र में इसके सैकड़ों उदाहरण होंगे लेकिन लोगों की उदासीनता के कारण कितने नश्ट हो गये। दीवार में दब गये या जीमन में ही लुप्त हो गये फिर भी यहां कुछ उदाहरणों द्वारा जिनका जिक्र किया जा रहा है उससे दो बातें प्रकट होती है इनमें से पहली तो यह है कि अधिकाष कोल्हूओं में जो अलंकरण बने हैं वह किसी नियम या परम्परा में बंधे नहीं हैं अर्थात् मूर्तिकार परम्परा से प्राप्त अनेकानेक अलंकरणों में से किसी भी समूह का प्रयोग कर सकता था परन्तु इनके अंकन का विधान परम्परागत षैली में ही हुआ करना था। दूसरी ओर मैं बनारस जिले के कन्दवा क्षेत्र, जो काषी हिन्दू विष्वविद्यालय के उत्तर-पष्चिम के कोने पर पंचकोषी मार्ग पर है, में खोज के सम्बन्ध में धूमा। गाँव के बाहर एक प्रसिद्ध षिवालय है जिसमें कर्मदेष्वर  महादेव मूर्ति की प्रतिश्ठा हुई है। उसके सामने सुप्रसिद्ध बंगाली रानी भवानी का बनवाया हुआ एक बहुत बड़ा तालाब भी है। इसी के किनारे मुझे एक सुन्दर ढंग की खुदाईयुक्त कोल्हू मिला। दुर्भागयवष इसके दो ओर दीवारें खींच दी गयी है इससे इसका आधा भाग दीवार के अन्दर दब गया है इस क्षेत्र के आस-पास में अन्य भी कोल्हू देखने को मिले। यह सब बहुत कुछ एक ही प्रकार के हैं अर्थात् इनमें क्रमवार एक ही प्रकार की डिजाइन बनी है। इससे यह भी सम्भावना होती है कि इन कोल्हूओं की कोई स्थानीय परम्परा रही होगी जिसके अनुसार ये आकृतियाँ बनती थी। यदि प्रत्येक क्षेत्र में पर्याप्त उदाहरण मिल जाय तो तुलनातम्क अध्ययन से यह पता लगाया जा सकता है कि इस प्रकार की क्या-क्या परम्पराएं थी। परन्तु अधिक उदाहरणों के अभाव में इस प्रकार का कोई निश्कर्श निकालना ठीक नहीं होगा। 

             कोल्हूओं की यह परम्परा कम से कम 100 वर्षों (लगभग सौ वर्षों) से बन्द हैं अतएव यह कोल्हू 100 वर्ष या उससे अधिक पुराने होने चाहिए। परन्तु इनकी खुदाई का काम देखते हुए इनका समय निष्चत करना बहुत ही कठिन है, क्योंकि इनमें परम्परा चली आ रही है जो सैकड़ों वर्षों में भी कम ही बदलती है। हम आगे के उदाहरणों के आधार पर देखेंगे कि इनकी परम्परा थोड़ी बहुत भीत पर बनाए हुए चित्रों आदि से भी मेल खाती है। इस प्रकार हम इन्हें उसी सामान्य रूप से प्रचलित लोक षैली के अन्तर्गत मान सकते है। परन्तु एक दृष्टि से देखें तो कुछ अलंकरण तो इस प्रकार के है जिन्हें हम सीधे (सारनाथ संग्रहालय की) कुषाण कालीन मूर्तियों से जोड़ सकते हैं। इसलिए प्रसिद्ध सुप्रसिद्ध विदुषि ‘स्टेला क्राइमरिष के शब्दों में, ‘‘इस  प्रकार का शिल्पकाल विहीन (टाइमलेस) हैं, फिर भी कुछ ऐसे संकेत मिलते हैं जिनसे वर्षों पुराने होंगे परन्तु इससे ज्यादा पुराने नहीं हो सकते। जैसे कुछ जगहों पर जो मेहरावें बनी है, जो उत्तर मुगलकला की जान पड़ती है‘‘।

              इन कोल्हुओं में अधिकांश अलंकरण विहीन या सादे हैं पर उनमें भी एक ओर सूर्य, चन्द्र वाला मोटिफ (अभिप्राय) अवश्य मिलता है। इस प्रकार यह निश्चित ही कोई माँगलिक चिन्ह था जिसका आवश्यक प्रयोग होता था। सामान्यतः सूर्य चन्द्र वाले अभिप्राय का अर्थ अनन्त काल होता है इसलिए हम यह अर्थ ले सकते है कि इस कोल्हू की अनन्त काल के लिए स्थापन हो गयी। भारतीय परम्परा और हिन्दू धर्म में किसी भी कार्य को छोटे-बड़ें का अभिप्राय आपदाओं से रहित और सूर्य चन्द्र के रहने तक की कामना के लिए यहाँ भी सूर्य-चन्द्र की आकृति बना दी जाती थी। यह एक परम्परा है जो अलंकृत कोल्हूओं के साथ-साथ चलती है।

यहाँ हम कुछ विशेष रूप से अलंकृत कोल्हुओं का वर्णन करेंगे। श्री दूधनाथ यादव ग्राम विसुनपुर, जनपद जौनपुर के यहाँ एक कोल्हू है। इसमें बहुत बारीकी के साथ चारों ओर खुदाई की गयी है।
जिसमें अनेक प्रकार की आकृतियाँ है। अन्य अलंकृत कोल्हुओं के समान इनमें भी ऊपर और नीचे फूलों की पट्टियाँ है और बीच में खड़ी पट्टियों के द्वारा स्थान को बांट कर दृश्य दिखलाये गए हैं। यहाँ प्रत्येक का अलग-अलग वर्णन है ..................................

अ - बटी हुई रस्सी का अलंकरण ............... यह अलंकरण ऊपर और नीचे के हासियों में दिया गया है, यह अलंकरण बहुत पुराना है जो अशोक के स्तम्भ शीर्षों के फलक पर मिलता है तब से ये बराबर भारतीय कला में चला आ रहा है।

आ- इसके नीचे एक फूलों की बेल है जो षायद कमल के फूलों की बेल है। इसमें फूल उल्टे लटके हुए हैं ये मुगल कला से प्रभावित हैं। इसमें थोड़ा नीचे एक सकरी पट्टी में त्रिभुज बने है नीचे की ओर एक सकरी पट्टी में मनके बने है। ये भी अशो काल में अशो के स्तम्भों से चले आ रहे हैं और उसके नीचे चौड़ी पट्टी में त्रिभुजाकार अलंकरण है। 



                          अब हम मुख्य दृश्यों को लेते है, एक ओर एक घोड़ें का रथ है, जो बहलीनुमा है इनमें घोड़ें की पीठ पर लगाम पकड़े हुए एक आदमी खड़ा है और घोड़े को हाक रहा है और इसमें सूक्ष्मता के साथ खुदाई हुई है। इस रथ पर एक चक्र है जिसे हम सहर्श सूर्य मान सकते है और चक्र के ऊपर चन्द्र है चारों और खिले हुए फूल बने है। और इन फूलों की परिकल्पना उसी प्रकार लगती है जैसे षुंगकाल की मूर्तियों में या मिट्टी के टिकरों में पायी जाती है। स्वय चक्र और उसके ऊपर चन्द्रमा भी षुंग या कुशाण काल के पत्थरों के फलकों से बहुत मिलते जुलते हैं यहाँ हम उदाहरण के लिए सारनाथ संग्रहालय से प्राप्त मथुरा में बनी भिक्षु बल की बनवाई हुई मूर्ति की दंत्र पर त्रिषुल की बनी हुई आकृति को लेते है। जो आमतौर से पहली षती ईष्वी की मानी जाती है क्योंकि यह कनिश्क प्रथम के तीसरे षासन वर्श में बनी। 

          यद्यपि इन दोनों उदाहरणों में सत्तरह अट्ठारह सौ वर्शो का अन्तर है फिर भी हमें इनमें अद्भुत साम्य दिखलाई पड़ता है। घोड़े चलाने वाले सईस की आकृति भी इस क्षेत्र में पाये गये भित्ति चित्रों में अंकित मानव चित्रों के बहुत नजदीक है, परन्तु उसको यहां बहुत सुव्यवस्थित और बारीक ढंग से बनाया गया है। हम ऊपर कह चुके है कि इन दृष्यों में खड़ें बल की पट्टियाँ जिनमें भी कुछ अलंकरण होता है। ऊपर वाले दृष्यों में दो आयताकार पैनलों को मिला दिया गया है और बीच की पट्टी को भी जान-बूझ कर खण्डित किया गया है। ऊपर के कोने का किसी फूल के चाँदे का चैथाई भाग दिखाया गया है, जो कमल का ही रूपान्तर हो सकता है। इस प्रकार का अंकन भी बहुत प्राचीन काल की खुदाईयों से मिलता-जुलता है। 
इस प्रकार हम यहाँ एक साथ कई विषेशताएं देखते है................. 

लोक कला के प्रचलित रूप। 

उनका बहुत परिश्कार किया हुआ रूप । 
परम्परा में रहते हुए भी उससे उन्मुक्त। 
अत्यन्त प्राचीन काल की भारतीय मूर्तियों से सन्निकटता, यद्यपि प्रायः सत्तरह अट्ठारह सौ वर्शो का व्यवधान पड़ चुका है। 
          दृष्यों को खाने मेें बाँटने की परम्परा भी पुरानी है, जो बराबर चलती रही। सारनाथ से गुप्त या गुप्तोत्तर काल के ऐसे षिला फलक मिले है, जिसमें बुद्ध का जीवन इसी प्रकार खानों में बाँट कर दिखलाया गया है और 1516 ई0 की वनपर्व की चित्रित प्रति में भी हमें ऐसे ही दृष्य मिलते हैं जिसमें बीच-बीच में खड़ी पट्टियों द्वारा दृष्यांें को अलग किया गया है। जैसा ऊपर कहा जा चुका है कि प्रत्येक दृष्यों के बाद एक खड़ी पट्टी है। अन्य स्थनों पर भी इससे मिलते-जुलते अलंकरण प्राप्त होते हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि यह सारे अलंकरण लोक कला की परम्परा में होते हुए भी बहुत बारीकी से खोदे गये हैं, इससे यह निश्कर्श निकलता है कि कारीगर में उच्चकोटि की रचना करने की क्षमता थी, और यह भी सम्भव है कि वह नागरिक उपयोग के लिए नगरीय कला में भी रचनाएं बनाता था। उदाहरण के लिए ये पूरी सम्भावना है कि यही संगतरास-जिसने इस कोल्हू की खुदाई की होगी उसी ने नगर के लिए दूसरे प्रकार के अलंकारिक पत्थर भी खोदें होगें अथवा किसी देवता की सुन्दर मूर्तिै गढ़ी होगी जो किसी मन्दिर में षोभायमान होगी, परन्तु इस अवसर पर कोल्हू के बाहरी भाग को उकेरने ;ब्।त्टप्छळद्ध में उसने केवल लोक-कला की किन्तु परम्परागत आकृतियाँ ही बनायी है, इस प्रकार इनका आकर्शण और भी बढ़ जाता है। अब हम यहाँ कुछ फलकों ;थ्स्।ज् ैन्त्थ्।ब्म्द्ध को सारंाष में लेते हैः-
अ- कुष्ती का दृष्य: 
इसमें दो पहलवान गुथे हुए है। इनकी आकृति ठेठ लोक-कला षैली की है जैसा कि हम ऊपर भित्ति चित्रों में भी देख चुके हैं अर्थात् इनका धड़ त्रिभुजाकार है, गर्दन पतली ओर लम्बी, सिर अण्डाकार है। परन्तु यहाँ उनकी टाँगें बड़ी लचीली अर्थात् डाल की तरह है, जिनका मध्य भाग बिल्कुल गोलाकार सा रखा है। इस दृश्य में अद्भुत गति है, पहलवानों का षरीर बहुत ही लचीला दिखलाया गया है और दृष्य में एक विषेश प्रकार का रिद्म है। इस दृष्य के दोनों ओर छोटे-छोटे त्रिकोणों की गोट है जैसा कि हम भित्ति चित्रों में देख चुके हैं। 

आ- एक अन्य पैनल में एक रथ चला जा रहा है जिसमें घोड़ा जुता हुआ मालूम पड़ता है परन्तु उसका षरीर बहुत भारी बनाया गया है और चेहरा भी चिड़िया के समान दिखलाया गया है। यद्यपि ये पषु यर्थाथ से थोड़ा भिन्न है परन्तु नगर खींचने के प्रयास में इसके पैर बड़ें स्वाभाविक ढंग से मुड़े है और इसके पेट पर लटकाता हुआ माँस भी बडे़ स्वाभाविक ढंग से दिखलाया गया है, इसके सामने लगाम पकड़े एक नाटा सा व्यक्ति है, जो इसका सईस हो सकता है। पीछे बड़ा सारथ है जिस पर कुछ बड़ें लोग खड़ें हैं इस फलक को देखने से यह स्पश्ट है कि इन अंकनों में परम्परा और यर्थात् का एक अद्भुत प्रकार का मिश्रण हुआ है। इस प्रकार के हल्के-हल्के संकेतों से दृष्यों में आकर्शण बढ़ गया है और इससे षिल्पकार के कृत्तिव का परिचय भी मिलता है। इ- एक अन्य फलक में दो व्यक्ति हाथ में संगीनयुक्त बन्दूक लिए आगे चले जा रहे है। इसमें अपेक्षाकृत यथार्थ का अधिक प्रयोग हुआ है। आषा की जाती है कि मूर्तिकार ने सामरिक जीवन की छाप इस पर डाली है इस प्रकार परम्परा से हटकर जो आकृतियाँ मिलती हैं उनसे भी आकर्शण बढ़ता है। 
ई- इसके बाद हम अगले, फलक में अत्यन्त सुन्दर मोर पाते है। इसकी पूँछ चीनी पंखे के समान फैली हुई है और हम इसे उत्तर मुगलकाल के एकेन्थस प्रकार के पत्ते से जोड़ सकते हैं इसमें रेखाएं बहुत प्रवाहपूर्ण हैं। 
उ-   इसके अतिरिक्त एक फलक पर हाथी और उसका सवार है यहाँ हाथी का धड़ सूँड़, पूँछ आदि अंग बहुत स्वाभाविक ढंग से बनाये गये हैं।  पैर मुडे़ हुए हैं जो घोड़ें के पैर के मिलान से ज्यादा निकट है इस प्रकार विलक्षणता उत्पन्न की गयी है, जो आकर्शण है हाथी की पीठ पर एक व्यक्ति बैठा है, जो एक लम्बे झण्डेनुमा अंकुष से उसे चला रहा है। उक्त प्रकार का अर्थात् लम्बा डण्डानुमा अंकुष का प्रयोग हम एक भित्ति चित्र में भी देख चुके है।
उपर्युक्त वर्णन से हम इस निश्कर्श पर आते हैं कि कुछ ऐसी लोक कलाएं भी थी जिनका आधार (बेस) अवष्य परम्परागत था किन्तु उसमें कलाकार की मौलिक कल्पना का योग था। वस्तुतः ऐसी कल्पनाओं के प्रयोग द्वारा कलाकार उस परम्परा में नवीनता उत्पन्न करता था। लोक षैली का कलाकार होते हुए भी वह साधारण कोटि का काम नहीं करता था बल्कि उसमें सुक्ष्मता एवं अलंकारिता को महत्वपूर्ण स्थान देता था, इससे यह अनुमान होता है कि लोक जीवन में इन विषेशताओं की पहचान रही होगी और लोग अच्छे कलाकारों की क्रद करते रहे होंगे। किन्तु लोक-कला की परम्पराएं इतनी मजबूत थीं कि उनमें किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं लाया जा सकता था, परन्तु ऐसा न था कि कलाकार या सामग्री बनाने वाली व्यक्ति अपने को परम्परा के बन्धन में बँधा हुआ मानता हो, क्योंकि यदि यह परम्परा बन्धन स्वरूप होती तो उसमें इतनी सुन्दर अभिव्यक्ति नहीं हो सकती थी। वस्तुतः यह परम्परा उनको एक नयी प्रेरणा देती थी और उस प्रेरणा से प्रेरित होकर वे कलाकृतियों का निर्माण करते थे। हमने ऊपर बन्दूकधारी दो सिपाहियों की चर्चा की हैं। इस प्रकार के दृष्य तत्कालीन समाज से लिये गये हैं। कलाकार इन्हें अपनी कला में स्थान देकर परम्परा में एक नयी खिड़की खोल देता है जिससे परम्परा में ताजगी आ जाती है, परन्तु तारीफ है कि इनका अंकन भी ऐसे ढंग से होता है कि यह भी उसी परम्परा के एक अंग बनकर उपस्थित होते हैं। यदि हम तुलना की दृश्टि से देखें तो बहुत से ऐसे क्षेत्र मिलेंगे जिनमें परम्परागत दृष्यों के साथ-साथ तत्कालीन समाज की भी कुछ झलक पड़ जाती है, इनका बहुत अच्छा उदाहरण बंगाल की बालूचर साड़ियों या कालीघाट पर (चित्र) या बंगाल के मन्दिरों में बने हुए टेराकोटा में मिलता है। इनमें भी योेरोपियन लोग बार-बार दिखालाए गये है। इसलिए विषुनपुर जिला जौनपुर के इस कारीगर को भी उसी श्रेणी में रखते हैं जिसने अपने समाज की भी एक छाया इस पैनल (फलक) मेें की है। 
आजमगढ़ जिले के खानजहाँपुर ग्राम में एक कोल्हू मिला। अनेक विषेशताओं में ऊपर के विषुनपुर जौनपुर ग्राम के कोल्हू से मिलता-जुलता हैं। अपेक्षाकृत इसकी खुदाई कम बारीक है, तथापि इसके फलकों में बहुत जानदार आकृतियाँ है। यहाँ भी एक बहुत उच्च्कोटि का मोर बना है।  दूसरे पैनल में हनुमान जी की बड़ी विलक्षण आकृति है। इन पैनलों के बीच में एक चटाईदार खड़ी पट्टी और एक कमल की पंखुड़ियों की पट्ट भी बनी है। 
                       आजमगढ़ जिले के खानजहाँपुर ग्राम का एक कोल्हू
 हनुमान जी की आकृति की मूर्ति एक मेहराबदार स्थान के नीचे बनी है इसमें वे बड़ी निर्भय व ओजपूर्ण मुद्रा में आगे चलते हुए दिखलाए गये हैं उनके दोनों पैरों के बीच कोई राक्षस गिरा पड़ा है जिसे रौंदते हुए चले जा रहे है। ऊपर उठे हुए दोनों हाथ या पैरों के जोड़ कोणात्मक ढंग से दिखलाए गये है। जिससे आकर्शण बढ़ जाता है इसी प्रकार से पूँछ दाहिनी ओर बगल में उठकर घूमी है जो कि उनके सिर तक पहुँच जाती है न जी का वक्षस्थल बहुत चैड़ा है और कुछ माँसपेषियाँ उभरी हुई दिखलाई गई है बदन पर जनेऊ है, चेहरा छोटा है, मुँह खुला है, सिर पर एक त्रिभुजाकार टोपी जैसी चीज दिखलाई पड़ती है। उठे हुए हाथों  में कुछ आयुध है जो ठीक से प्रकट नहीं होते।
यहाँ पर ग्राम विषुनपुर जनपद जौनपुर के एक कोल्हू के दो फलकों का उल्लेख और दिया जा रहा है। एक में तो हाथी पर सवार दो व्यक्ति है। इनमें एक तो हाथी का मालिक है जो बैठा हुआ हुक्का पी रहा है। इसके दाहिने हाथ में लम्बी सी वस्तु है जो भाला या छड़ी हो सकती है। इसके अगे महावत है जो अंकुष से हाथी चला रहा है।ऊपर जैसा हम पहलवानों को फलक में देख चुके है। यहाँ भी उन व्यक्तियों की आकृति उसी प्रकार की है अर्थात् धड़ त्रिभुजाकार और मध्य भाग एक गोल लट्टू की तरह से है जिसमें से दो पतले सींक के सामान पैर निकले है। यही षारीरिक विधान हम अगले पैनल में देखे थे। (प्रस्तुत पैनल में हाथी की आकृति में हाथी का आकार परम्परा के अनुसार है अर्थात् उसका मस्तक भी प्रायः बिल्कुल गोल सूँड पतली पर सीधी, लम्बी है। पैर मिटटी के खिलौनों की तरह है पैर दोनों ही एक साथ आगे की ओर बढ़े है। मिट्टी के खिलौने में भी

दोनों पैर एक साथ आगे की ओर बढ़े रहते है। यहाँ यह बात लक्ष्य करने की है कि मिट्टी के खिलौनों के दोनों पैर एक साथ आगे बढ़े हुए हैं ये इसलिये भी दिखलाए जाते हैं कि आकृतियाँ अच्छे ढंग से खड़ी रह सके अर्थात् बैलेंस बना रहे। यह परम्परा बहुत पुरानी है। हमलोंगों को ईषा पूर्व के मिट्टी के खिलौनों में भी यही परम्परा मिलता है। यहाँ ऐसे अंकन की कोई आवष्यकता नही थी क्येांकि यह आकृति तो हल्की उभारदार है और पत्थर की सतह पर ही खोदी गयी है परन्तु संग तरास ने परम्परा के अन्तर्गत उसी षैली की आकृति बना दी। 
इसके बाद एक और पैनल मिलता है इसमें तीन व्यक्ति बने है पर इसकी ठीक-ठीक पहचान नहीं हो सकती। अतः तीनों आकृतियाँ जैसे चलती हुई दिखाई गई है परन्तु इसके लिए प्रत्येक के दोनों पैर फैले हुए हैं जो त्रिभुजाकार है मध्य भाग में गोलाकार और धड़ पुनः त्रिभुजाकार है। इसमें किनारे के दोनों व्यक्ति मानों सिर करके (एलांगेटेड- दिखलाई गई है, यह जानवरों के लम्बे-लम्बे पैरों से प्रकट होता है। इसमें हाथी (हथिनी) की आकृति है, जो कोहबर में बने हाथियों के दीवार पर चित्र के बिल्कुल नजदीक है अर्थात् यहाँ भी खम्भे के समान सीधे लम्बे-लम्बे पैर है और षरीर करीब-करीब चैकोर है। ऊपर बक्सानुमा एक आलमारी है जिसमें हाथी सवार और आगे एक महावत बड़े अकड़ के साथ बैठा है । हाथी के सामने एक अलंकारिक वृक्ष है जो नरकट के स्थान सीधा ऊपर को चला गया है हाथी की गति उसके आगे-पीछे के दो पैरों के जरा मुड़ने से दिखलाई गई है। इसके बगल में घुड़सवार है, जो महावत की भांति बैठा है। इसमें कलाकार छोटे-छोटे विवरणों पर भी ध्यान देता है जिसका उदाहरण यहाँ घोड़े के उठी हुई पूँछ से दिखलाई पड़ता है। इसके बाद वाले फलक में एक हिरन है जिसका षरीर बड़ा गोल-मटोल बना दिया गया है। एक अन्य फलक में एक आदमी खड़ा है, जिसका सिर, गला, धड़, कोहबर में चित्रित आदमी से मिलता-जुलता है। अगले फलक में सवारी में बैठा एक व्यक्ति जा रहा है, इन दोनों के बीच में उसी प्रकार का सीधा आलंकारिक वृक्ष है, जैसा ऊपर कह चुके हैं। 

 ओदार वाराणसी से प्राप्त एक कोल्हू के दृष्यों में विविधता है। इसमें सभी दृष्य कमानीदार पर लहरियादार ताखों में बने है। एक दृष्य में हाथी सवार (पषु वस्तुतः हथिनी है और उसका बच्चा भी) नीचे दिखलाया गया है। हाथी का मालिक मस्ती से पैर फैलाए बैठा है जिसके एक हाथ में हुक्का और दूसरे में सम्भवतः फूल का गुच्छा है। सभी पुरूश आकृतियों का ऊपरी भाग तिकोना, निचला भाग अण्डाकार और आँखे गोल-गोल है ़़़दूसरे दृष्य में दस पहियों की एक बड़ी गाड़ी है जिसमें कई कक्ष है मुख्य कक्ष में दो पुरूश कुर्सीनुमा किसी सीट पर बैठे हुक्का पी रहे है। बीच वाले कक्ष में दो स्त्रियाँ बैठी है अर्थात् यह जनाना कक्ष है। सामने वाले कक्ष में गड़ी का चालक है जिसमें एक आदमी बड़ी मुस्तैदी से कोईहैण्डिलनुमा चीज़ घुमा रहा है उसके अनुसार आगे की पहिया
घुमी हुई है और यह घुमाव पिछले पहिये में भी दिखलाई पड़ता है। महत्वपूर्ण बात यह है कि कोल्हू के गोलाई लिए 

हुएसतह पर इस घूमती हुई गाड़ी को बड़ी सुन्दरता से आरोपित किया गया है। इससे कलाकार की प्रयोगात्मक प्रवृत्ति का पता चलता है। सम्भव है कलाकार के मन में रेलगाड़ी चित्रित करने की भावना रही हो, क्येांकि इस गाड़ी में कोई पषु जुता हुआ नहीं दिखलाई पड़ता है और आगे की ओर इंजन की चिमनी भी प्रतीत होता है। इस प्रकार लोक कलाकार अपने समसामयिक जीवन से भी सम्बद्ध था और उसके मन पर तत्कालीन घटनाओं की छाप पड़ती रहती थी, यह उसके व्यापक दृश्टिकोण का एक प्रमाण है। परन्तु साथ-साथ वह अपने अनुभवों को बडी आसानी से अपनी पारम्परिक कला में ढाल देता था यहां सपाट सतह (फ्लैट सरफेस) और रेखाओं द्वारा दोनों का समन्वय किया गया है। 

               हमने ऊपर देखा है कि हनुमान जी की आकृतियाँ भी कोल्हू में उत्कीर्ण की जाती थी, या एक प्रिय विशय था और इसका जनमानस से बहुत निकट का सम्बन्ध था। हनुमान जी भी आकृतियाँ सामान्य रूप से तेरहवीं-चैदहवीं षती से मिलने लगती है और गाँव-गाँव में इनकी मूर्तियों की प्रतिश्ठा हुई है। श्री रामदरबार के सदस्य होते हुए भी मानों वे एक स्वतन्त्र देवता है। विषेश रूप से जब उत्तर भारत मुसलमानी राजतन्त्र से आक्रान्त था तब हिन्दू समाज को एक ऐसे देवता की आवष्यकता थी जो इनके रक्षक के रूप में प्रस्तुत हो और उनमें प्रेरणा को उद्दीप्त करें। गाँवों के पाष्र्व में हनुमान जी को मूर्तियाँ स्थापित है उन्हें हम ठीक-ठीक लोक षैली की आकृतियाँ नहीं कह सकते, सामान्य रूप से उन्हें मार्गीय कलाकारों ने बनाया है और वे षास्त्रीय कला के उदाहरण हैं कहीं-कहीं ऐसी मूर्तियों में लोक कला का कुछ थोड़ा सा प्रभाव दिखलाई पड़ता है। 

               हनुमान जी की इन मूर्तियों की तुलना प्राचीन काल की महावाराछ की मूर्तियों या कुछ हद तक वामनाकार त्रिविक्रम आकृतियों से की जा सकती है, क्योंकि इन सभी मूर्तियों में उनका एक ओजपूर्ण रूप दिखलाई पड़ता है, परन्तु गाँवों या नगरों में हनुमान जी की जो मूर्तियां मिलती है उनका स्वरूप मूर्तिषास्त्र के अनुसार बहुत कुछ निष्चित हो गया था। सामान्यतः ये खड़ी हुई मुर्तियाँ होती है। हनुमान के हाथ में गदा होता है और कभी-कभी वे स्वयं किसी राक्षस के षव पर खड़े दिखालाए जाते हैं यही रूप इन कोल्हूओं पर भी अंकित है। किन्हीं-किन्हीं मूर्तियों में उनके कन्धे पर राम और लक्ष्मण भी विराजमान है। ऐसा एक उदाहरण जौनपुर जिले के सिरौली ग्राम के एक कोल्हू में है। यहाँ हनुमानजी के सिर पर तीन षिखरों वाला पत्राकार एक मुकुट है और सम्भवतः अपने षरीर पर जिरह बख्तर प्रकार की काई चीज पहने हो इसका आकार भी विलक्षण है और इसके कोने दोनों ओर लटक रहे हैं। सम्भवतः उनके पैरों में पायजामा भी है। इस प्रकार वह एक मध्यकालीन योद्धा के रूप में दिखालाए गए हैं। उनके दाहिने हाथ में एक लम्बे डण्डे वाला गदा है इसका भी आकार विलक्षण है, क्योंकि गदा के गोले को षरीफे की आकृति के समान बनाया गया है और उसका दण्ड ताड़ के तने के समान है। ऐसा प्रतीत होता है कि इस परम्परा में ऐसी भावना रही होगी कि ताड़ का पेड़ उखाड़ कर प्रहार करने वाले हैं परन्तु उसे गदा का रूप दे दिया गया है, 25 इसकी दूसरी पहचान भी हो सकती है हमें ईस्वी सदी के प्रारम्भ में पष्चिमोत्तर भारत से (जो अब पाकिस्तान का है पष्चिम पंजाब और पष्चिमोत्तर सीमा प्रान्त है) षिव या विश्णु की ऐसी मूर्तियाँ मिलती हैं, जो हाथ में इसी प्रकार का गदा लिए हैं। अर्थात उनका गदा का दण्ड गाँठदार है कोई आष्चर्य नहीं कि यह परम्परा लोक कला में इतनी दूर के क्षेत्र तक और इतने बाद तक चली आयी। हम यथास्थान देखेंगे कि लोक कला में अत्यन्त प्राचीन परम्पराएं भी चलती रही। हनुमान जी के दूसरे हाथ में पंखे के समान एक आमुध है। यहाँ उसका रूप थोड़ा लम्बोत्तरा हो गया है। इसके भीतर दाने-दाने बने है। आजमगढ़ के खानजहाँपुर नामक ग्राम से प्राप्त एक अन्य कोल्हू में जिसकी हम आगे चर्चा करेंगे। यह आयुध बड़ें रूप में दिखाया गया है। हमें इस प्रकार के मुगदर राजस्थानी षैली के चित्रों में जो सत्रहवीं षती के हैं, बराबर मिलतें है। विषेश रूप से मालवा षैली के देषाख राग के चित्रों में ऐसे मुगदर दिखलाई पड़ते हैं। यहाँ उनका प्रयोग एक आयुध के रूप में हुआ है। 

                              हम ऊपर कह चुके हैं कि हनुमान जी के कन्धों पर राम और लक्ष्मण विराजमान है। इनकी आकृति सामान्य लोक-कला के रूप में है और उनके पैर का अंष सहसा लुप्त हो जाता है। कमर से उनका षरीर इस प्रकार घूमा हुआ है मानों वे कन्धे पर बैठे है। इन अंकनों में संजीवता है। हनुमान जी अहिरावण राक्षस के षरीर को कुचल से है राक्षस मरते-मरते छटपटाहट के साथ हनुमान जी पर तलवार से प्रहार करना चाहता है एक ओर हनुमान जी की ओजपूर्ण मुद्रा पर तलवार से प्रहार करना चाहता है एक ओर अनुमान जी की ओजपूर्ण मुद्रा और दूसरी ओर राक्षस का निश्फल प्रयत्न दोनों को ही लोक कलाकार ने बड़े मार्मिक ढंग से दिखलाएं है। इन आकृतियों की तुलना हम कुछ सीमा तक प्राचीन और मध्यकालीन भारतीय महिशमर्दिनी दुर्गा की मूर्तियों में महिशासुर के अन्त के दृष्य से कर सकते हैं, परन्तु लोक कलाकार ने इस दृष्य में जान डाल दी है। यहाँ मृत्यु की पीड़ा में राक्षस ने अपना पैर ऊपर उठा दिया है इसका षरीर एंेठा जा रहा है तथापि वह हाथ उठाकर तलवार चलाने का भी निश्फल प्रयास कर रहा है। इस अंकन में सबसे चमत्कारिक रूप से हनुमान जी की पूँछ दिखायी गयी है जिसमें थोड़ा सा घुमाव है और सारे दृष्य में थोड़ा सा हास्य का भी पुट है। यही हम तुलना के लिए ग्राम हसरौली जौनपुर से प्राप्त एक कोल्हू पर प्राप्त हनुमान जी की आकृति ले सकते है। यद्यपि पूर्व आकृति की तुलना मे यहाँ विविधता जी की आकृति ले सकते है। यद्यपि पूर्व आकृति की तुलना में यहाँ विविधता कम ओर हनुमान जी की गति भी थोड़ी नियन्त्रित है। परन्तु पूरे दृष्य को देखते हुए उसमें ओज की मात्रा बहुत दिखलाई पड़ती है। उनकी मुखाकृति में वानरी रूप अधिक स्पश्ट है। उनका षरीर, धड, पैर मनुश्य आकृति के समान है । उनके हाथ में मूसल के समान परन्तु तीर जैसे नुकीले छोर वाला एक मुगदर है। बायें चर्चा की जा चुकी है। इसमें दानेदार अलंकरण का खूब प्रयोग हुआ है जैसे हनुमान जी के करण्ड मुकुट (टोकरी की तरह ) उनके गले में हार, उनका जांघिया घण्टाकृत गदा एवं अहिरावण के वस्त्रादि में प्रयोग मिलता है। 

                          यहाँ उपर्युक्त कई उदाहरणों में हनुमान जी के अंकन में एक ओर तो साम्य है तो दूसरी ओर स्थानीय परिवर्तन भी हुआ है। इनसे यह प्रकट होता है कि लोक कला में तक्षण (कार्विग) की अनेक परम्पराएं थी जो एक साथ ही आस पास के क्षेत्रों में पाये जाने वाले उदाहरणें मेे मिलती हैं। इनमे कुछ साम्यता और कुछ विभिन्नता भी है। अब यह सारी परम्पराओं में क्या-क्या विभिन्नताएं थी, यह खेाज का विशय है। दूसरी ओर यह आष्यर्च का विशय है कि इनमें मध्यकालीन कला की अनेक परम्पराएं चली आ रही थी। उनके उदाहरण स्थान-स्थान पर मिलते हैं हम ऊपर देख चुके है कि दोनों के द्वारा अलंकरण आदि सूचित किये गए हैं यह परम्परा नवीं, दषवी षती की मूर्तियों तक में मिलती हैं और उनका भरपूर प्रयोग अपभ्रंष (जैनषैली) के चित्रों मे भी मिला है। बनारस नगर के निकट पंचक्रोषी सड़क पर प्रायः 100 वर्श पुराना एक कोल्हू पड़ा है। हाल ही के वर्शो में इसका एक अंष दीवार में दब गया है फिर भी जो अंष सामने दिखलाई पड़ता है वह कला की दृश्टि से बहुत ही  महत्वपूर्ण है,  इसमें ऊपर ओर नीचे एकेन्थस की पत्तियों के समान व कमल के समान झालर है, बीच में प्रत्येक आकृति एक आर्य या कमानी  के अन्तर्गत दिखायी गयी है। कहीं-कहीं पर एक चैड़ी पट्टी में कमल की पंखुड़ियों को बनाकर दो आकृतियों को भी अलग किया हैं प्रत्येक मानी के नीचे एक पषु या पक्षी की आकृति बनी है एक अन्य के नीचे सूर्य चन्द्र भी बने हैं पर उसका आधा अंष दीवार से ढक गया है। पषु-पक्षियों में बाघ, सिंह, हाथी, मोर आदि बनाए गए है। जिनमें एक महावत है जो अंकुष से हाथी चला रहा है तथा मालिक हुक्का पी रहा है जिसको उसका नौकर पकड़ें हुए तथा सामने वल्लम लिए हुए एक पहरेदार भी खड़ा है। ये मानवाकृतियों बहुत महत्वपूर्ण है। इनके सिर या चेहरें वर्फीनुमा बनाए गए हैं जिनमें बड़ी-बडी़ आँखे, तथा षरीर पर के वस्त्र घुमी हुई-रेखाओं के द्वारा दिखलाए गए हैं इसी प्रकार की गोल और लहरियादार रेखाएं हाथी के षरीर और सिर पर मिलती है जो हाथी के सिर पर रखा हुआ कोई सजावटी कपड़ा है ये सभी रेखाएं कथरी की तरह का आभास देती है। सभी पषु-पक्षियों में बहुत जीवन्त अभिव्यक्ति      

 षेर, बाघ आदि गुर्राते हुए जैसे मालूम पड़ते हैं।  षेर के षरीर पर भी नाख्ूानी रेखाएं हैं जिससे उसका स्वरूप लकड़बघे की तरह प्रतीत हेाता है। बाघ के अयाल पत्तियों की तरह बनाए गए हैं तथा पूँछ जैसे मोटी डोरियोकं का समूह हो। यह पूंछ बड़ें जोरदार ढंग से ऊपर उठ कर घूमी हुई है। अन्त में हम मोर को लेते है,ं इसकी चाल बड़े सहज ढंग से दिखलाई गयी है और इसकी पूंछ और पंख पत्तियों की तरह के अलंकरण है। सारांष यह है कि इस कोल्हू की आकृतियों में एक विलक्षण प्रकार की आलंकारिता है, जो बढ़ा चढ़ा कर दिखलाई गई है। इससे एक नये प्रकार की सृजनात्मकता प्रतीत होती है यद्यपि यह सभी आकृतियाँ परम्परा से प्राप्त थीं परन्तु सन्तराम ने इन्हें इतने स्वाभाविक ढंग से काटा है कि उनमें परम्परा का बोध न होकर बल्कि ताजगी बनी हुई है। प्रत्येक आकृति में भिन्न प्रकार की अभिव्यक्तियाँ है। जिससे समरसता (मोनाटनी) नहीं दिखलाई पड़ती बल्कि सृजनात्मकता प्रकट होती है। यह आकृतियाँ निष्चय ही लोक कला भी है परन्तु इनमें किसी प्रकार से कारीगरी की कमीं नहीं दिखलाई पड़ती। पत्थर की कटाई प्रविधि (टेकनीक) उन्नत और सम्पूर्ण कार्य इतनी सफाई से किया गया है उक्त दृश्टि से यह आकृतियाँ उन्कृश्ट मूर्तियों को टक्कर ले सकती है। इससे निश्कर्श निलकता है कि कलाकार इन आकृतियों को पूरे मनोयोग से बनाता था, उसके मन में किसी प्रकार का संषय (हेजीटेषन) नहीं था बल्कि परम्परा में पूरी तरह से डूबा हुआ था और उसका एक तरह से अंग बन गया था। यह एक ऐसे कलाकार की कृति नहीं है, जो आकृति को बिना सोचे समझे बना रहा हो या किसी प्रकार की षीघ्रता में हो बल्कि कलाकार ने पूरे मनोयोग के साथ और अपनी हेकनीक का पूरी तरह सही-सही इस्तेमाल करने के बाद इन आकृतियाँ को बनाया। कलाकार को यह आत्मविष्वास था कि उसकी ये आकृतियाँ षाष्वत रहेंगी जैसा कि उसने सूर्य चन्द्र के प्रतीकों के द्वारा संकेत दिया है। यहाँ हमने कन्दवा के कोल्हू को लेकर जो उपयुक्त निश्कर्श निकाले हैं वस्तुतः वह इस क्षेत्र के सभी लोक-कला पर लागू होते है, एवं अन्तर्हित दृश्टिकोणो के प्रमाणार्थ यह एक अच्छा उदाहरण है। 

हसरौली जौनपुर के कोल्हू की चर्चा ऊपर हो चुकी है, परन्तु यह स्वयं में बहुत ही विलक्षण उदाहरण है अतएव उसका यहाँ पर विस्तार से उल्लेख करना आवष्यक है। इसमें भी ऊपर नीचे जोंकिया पट्टियाँ है और ऊपर एक सुन्दर झालर है जिसमें कमल के अधखिले फूली और पान की तहर पत्तियाँ हैं, बीच के भाग में छोटे-बड़ें चैकोर स्थान दिखलाए गए हैं, जिनमें बीच-बीच में सादे खड़े डण्डे है। प्रमुख दृष्य में घोड़े की वहली पर दो आदमी सीटों पर बैठे है और बीच में एक आदमी खड़ा है। सम्भवतः यह खड़ा हुआ आदमी नर्तक है और नृत्य दिखलाता हुआ चल रहा है। गले में कुछ आभूशण है और यह नर्तकों की काछनी जैसा वस्त्र भी पहने है। आगे लगाम पकड़ें कोचवान है और साथ में एक साईस भी है। इसके सतह काफी सपाट है, परन्तु बीच-बीच में गैरवक अलंकरण भी दिखलाए गए है, दृष्य में प्रवाह है और आकृतियाँ क्रमषः ऊपर नीचे एक हल्की लहर के समान दिखलाई गई है दाहिनी ओर ऊपर कोने में खाली स्थान पर एक छोटी सी पषु आकृति दिखलाकर कुछ गहरी पृश्ठभूमि का आभास करा दिया गया है। इसके बाद वाले फलक में भी एक गतिषील दृष्य हैं। यहाँ दो षिकारी, जिनके चेहरे बिल्कुल गोल है और एक चष्मी और गोल आँखें बिल्कुल बीचो बीच दिखाई गयी है। सम्भवतः ये अंग्रेज है और इनके सिर पर टोप जैसी कोई चीज है। उनके हाथ में संगीनदार बन्दूक है जिन्हें वह इस प्रकार उठाए है मानों सितार बजा रहे हो, इससे एक हल्का हास्य उत्पन्न होता है। सम्भवतः लम्बे तडंगे अंगेजो को, व्यक्त करने के लिए कलाकार ने इनकी आकृतियाँ बहुत लम्बी बनायी है। यहाँ भी कोने में एक छोटी सी मानव आकृति है यह अंष घिस गया है जिससे कम स्पश्ट है। 

                           ऊपर पुनः सूअर के समान दो जानवर दिखलाए गए हैं इनकी छोटी आकृति से संकेत होता है कि ये दूर की पृश्ठभूमि में है। इनकी पूँछ बढ़ाकर षेर की तरह कर दी गयी है और इनके बदन के रोओं को इस प्रकार दिखलाया गया है मानो कि चार खाने की झूल पड़ी हुई है, इसी प्रकार के चारखाने की एक पट्टी पिछले फलक में घोड़े की पीठ और अयाल पर भी दिखलाई गई थी। एक अन्य फलक में एक अत्यन्त आलंकारिक वृक्ष बना है, जो एक लहरियादार कमानी (मार्च) के अन्तर्गत है, इसमें सीधे उथरता हुआ एक वृक्ष है जिसकी समानान्तर रूप से लटकती हुई पत्तियाँ है। स्थान-स्थान पर सुग्गे बने हैं मानों वे उसका फल खा रहे हैं, इन सुग्गों के पंख भी चारखानों से अलंकृत है, इसके अतिरिक्त हाथी का भी एक फलक है। 

                           श्री रामकुमार सिकन्दरा, जौनपुर के यहाँ भी एक सुन्दर कोल्हू देखने को मिला। इसकी झालर में टयूलिब के समान पत्ती वाले फूल उल्टे क्रम से बने हैं इसके अतिरिक्त पाष्र्व में कमल की पत्तियाँ या नीचे एंेठी हुई रस्सी का अलंकरण भी दर्षनीय है। इसके पैनल बड़े आकर्शक है। एक में दो सूर्य चन्द्र बड़े आलंकारिक रूप में चित्रित है। इसके बाद के फलक में चिरपरिचत हनुमान जी का दृष्य है। उनके फैले हाथ कन्थे पर बैठे राम-लक्ष्मण एवं उनकी गति कुल मिलकार ओजपूर्ण मुद्रा में चित्रित है। स्वयं हनुमान के सिर पर सितारेनुमा एक मुकुट वक्षस्थल पर लम्बे-लम्बे हार जैसा अलंकरण भी है। एक ओर उनकी पूँछ  सषक्त रूप से ऊपर उठी है तो दूसरी ओर उनकी धोती का छोर पीछे की ओर तेजी से उड़ता चला जा रहा है, इस प्रकार इस फलक में हनुमान जी के षौर्य और गति को बहुत अच्छे ढंग से दिखलाया गया है। स्वयं हनुमान जी एक राक्षस को पैर से कुचल रहे हैं। जमीन पर गिरा राक्षस अपना सिर उठाए है और एक हाथ से छोटी सी तलवार भी उठाने का प्रयत्न कर रहा है। हनुमान ही का विषेश रूप से आगे उठा हुआ पैर राक्षस  को कुचलने को उघत है। यह सभी आकृतिया थोड़ी-थोड़ी लम्बोत्तरी है। उनमें एक विषेश प्रकार का लचीलापन आ जाता है। एक अन्य फलक में त्रिभंगी श्रीकृश्ण जी वंषी बजा रहें है, इनके आभूशण और मुकुट हनुमान जी के ही सरीखे है। कृश्ण जी के दोनों ओर गोपियाँ है, उनके सिर पर     या तो मुकुट या गगरी है। ये गोपियाँ सम्भवतः श्री कृश्ण जी पर चंवर डुला रही है। जो पंखे के आकार का है, यहाँ श्रृंगार रस प्रधान है। अतः इसमें हनुमान जी की आकृति (वीर रस) के समान वह तीव्र गति नहीं है, पर आकृतियाँ उसी प्रकार लम्बी है। इसी श्रृंगारी भाव को दर्षित करने के लिए कलाकार ने कृश्ण के बाएं हाथ को बायें ओर वाली गोपी के वक्षस्थल पर रखा है। इसके बाद वाले फलक में हम एक मंच पर बैठे हुए एक दम्पत्ति को पाते हैं जिसमें पत्नी-पुरूश की गोर में बैठी है। इस कोल्हू में संतरासी का काम भी बहुत बारीकी से हुआ है।

                         जैसा कि हम ऊपर श्री रामकुमार यादव के कोल्हू की चर्चा कर चुके हैं उसी के एक फलक का उल्लेख हम यहाँ पर भी कर रहे है। इसमें एक फलक में एक नवयुवक एक बहंगी में स्त्री-पुरूश को लिए चला जा रहा है। इसमें इस युवक की आकृति परम्परागत ढंग से बनी होने पर उसकी कमर बहुत पतली दिखाई गयी है अतएव षरीर डमरू की तरह हो गया है। यह पन्द्रहवीं-सोलहवीं षती की भारतीय चित्रकला की समकक्ष है। बहंगी में एक ओर एक स्त्री और एक ओर एक पुरूश बैठा है। सम्भवतः यह श्रवण कुमार की कथा से सम्बद्ध है।   इसका अंकन बिल्कुल परम्परागत लोक षैली में है और आकृतियां जैसे लोक चित्रण में अथवा उन कोल्हूओं  के उत्कीर्ण फलकों में मिलती है।

                         सतलपुर में श्री दलईराम यादव के यहाँ का कोल्हू भी आकर्शक है जिसमें ऊपर चारखाने की चैड़ी पट्टी है, इस कोल्हू के दृष्य अधिक जटिल है, और कहीं-कहीं चेहरे के विवरण भी ठीक-ठीक दिखलाने की चेश्टा की गयी है, सारंगी जैसा कोई यंत्र भी बजाया जा रहा है।  इसी के नीचे वाले फलक में एक ओर नागो से लिपटे हुए स्त्री-पुरूश चले जा रहे हैं, बगल में बैठी हुई स्त्री एक पेड़ को सींच रही है सम्भवतः यह केला या ताड़ का पेड़ है। दूसरी स्त्री घड़े में पानी लेकर आ रही है। एक अन्य फलक में तामझाम (खुली हुई डोली) में एक स्त्री पुरूश जा रहे है। ऐसा प्रतीत होता है कि इनमें कोई कहानी या सांकेतिक दृष्य है, पर स्थानीय लोगों से पूछताछ करने पर कोई समाधान सम्भव न हो सका। 

                         जौनपुर के हसरौली ग्राम में कई कोल्हू के नमूने मिले जिसमें से कुछ की चर्चा ऊपर हो चुकी है, यहाँ हम संक्षिप्त एक कोल्हू की चर्चा करेंगे. इसमें सांप को खाता हुआ मोर अत्यन्त दर्षनीय है।  क्यों कि इसमें आकृति के मौलिक स्वरूप को अच्छी तरह पहचाना गया है और इसे एक लोक-कला पूर्ण आलंकारिक रूप भी दिया गया है। इसी प्रकार अन्य दृष्यों में हाथी भी बड़ें सुघड़ रूप में दिखलाया गया है, यद्यपि उसमें अलंकारों का अभाव है। इसी के बगल में दीवट के समान एक त्रिषुल भी बना है।  श्री कैलाष यादव मसीदा, जौनपुर के कोल्हू में नाव का एक रोचक दृष्य है। जहाँ जल का अंकन हुआ ही नहीं, पर नाव की विषेशताएं दिखलाते हुए मस्तुल तक दिखला दिया गया है, फिर भी नाव की डगमगाती हुई गति को अच्छी प्रकार व्यक्त किया गया है इस पर दो व्यक्ति सवार भी हैं। 

                       श्री दुखीराम यादव विषुनपुर जोनपुर के कौल्हू में आर्च ;।त्ब्भ्द्ध की लहर ने बहुत अधिक बढ़ाकर उसे बहुत अधिक अलंकारिक रूप दिया गया है। इसके नीचे एक स्त्री खड़ी है जिसके दोनो ओर एक-एक पुरूश है, स्त्री के ट्यूब की तरह उठे हुए हाथ पुरूशों के कन्धों पर जबकि पुरूशों के हाथ स्त्री की कमर पर है। सम्भवतः यह श्रृंगारिक दृष्य है। 

                        मुझे पोखरियापुर में एक कोल्हू मिला जिसकी पषु आकृतियाँ बहुत सुन्दर है। एक ओर एक हाथी, इसके बगल वाले फलक पर एक घोड़े की अत्यन्त सुन्दर आकृति है जो दुलकी चाल में चला जा रहा है इसकी गति बडें मार्मिक ढंग से दिखलाई पडती है। इस पर भी एक व्यक्ति एक बल्ली लिए खड़ा है यह भी सम्भव है कि सर्कस के समान किसी खेल तमाषे से यह दृष्य प्रभावित हो। यह कलाकार पषुओं की आकृति बनाने में दक्ष है, इसको कह सकते यहाँ मानव आकृतियाँ तो बिल्कुल परम्परागत है। इन दोनो के मेल से भी औत्सुक्यपूर्ण स्थिति पैदा होती है जो लोक संस्कृति और कला की एक विषेश पहचान है। 

                        आजमगढ़ के खान जहांपुर के एक कोल्हू पर घोड़े की बैली हाँकता हुआ एक पुरूश खड़ा है। यह अन्य प्रकार के कोल्हूओं से मिलता जुलता है, जिसमें चट्टे पर फैली हुई सतह दिखलाई पड़ती है। 
बड़ा गाँव आजमगढ़ में घोड़े पर बैठा हुआ एक व्यक्ति बड़े गर्व से दिखलाई पड़ता है।  यह भी कोल्हूओं के सामान्य चित्रण से मिलता-जुलता है। इसके पाष्र्व में कमल की घुमी हुई पंखुडियाँ बनी है। इस क्षेत्र में मध्यकाल में बनी हुई मूर्तियों में इस प्रकार के अलंकरण के बहुत निकट है। यह आष्चर्य का विशय है कि इस प्रकार की परम्पराएं कैसे लोक-कला में बची रह गयी है।

                      जौनपुर जिले के हीरापुर गाँव में केाल्हू का एक और अच्छा उदाहरण है। जिसमें सामान्य प्रकार के सभी दृष्य भाते हैं, परन्तु विषेश रूप से हम यहाँ एक घोड़ा गाड़ी का वर्णन कर रहे है। इसमें रथ की तरह घोड़े की पीठ पर जोर रखी हुई है, गाड़ी पर दो व्यक्ति बैठे है षायद स्त्री पुरूश भी हो सकते है। घोड़े की आकृति बहुत ही सुन्दर है जिसमंे थोड़ी स्वाभाविकता भी है। व्यक्तियों की आकृतियाँ कुछ परम्परा के अनुसार है। 

                         कोल्हूओं की चर्चा करते हुए हम यहाँ कुछ अन्य उदाहरणों की भी लेंगे, जौनपुर जिले के खमपुर ग्राम में एक कोल्हू मिला जिसमें एक व्यक्ति चला जा रहा है। यह सामान्य प्रकार का है। आकृतियाँ  बहुत सपाट हैं अर्थात रेखाओं का प्रयोग कम हुआ है आकृतियांें के धड़ डमरू के मसान है जो मुगल काल के जामे के समान कोई वस्त्र पहने हुए है। सम्भवतः सिर के ऊपर एक पगड़ी, आँखे गोल है, चेहरे का अन्दाज नाक के टुनगे और थोड़े से खुले हुए मुँह के द्वारा मिलता है। यह दृष्य लहरियादार कमानी के भीतर हे, इसके दोनोें ओर खड़ी चैड़ी पट्टियाँ है, जिनके द्वारा प्रत्येक दृष्य एक दूसरे दृष्य से अलग होता है। बायीं ओर इसी प्रकार का घुड़सवार व्यक्ति है, जो ओजपूर्ण है। यहाँ यह देखने योग्य है कि दोनों की गति की भिन्नता का बड़े सूक्ष्य रूप में परिचय दिय गया है। ऊपर स्थानीय प्रकार की कमल की पत्तियों की झालर है इसी कोल्हू में एक ओर नाचती हुई पतुरिया दिखाई गई है, जिसने अपने लहंगे के छोर को अपने हाथो्र में उठा लिया है, यह अट्ठारहवीं-उन्नीसवीं सदी के चित्रों में आमतौर से मिलता है। यह भी सम्भव है कि इसका घाघरा, काछनी प्रकार का है। यद्यपि इस कोल्हू में सर्वत्र सपाट आकार है परन्तु इस घाघरे या काछिया को हल्की घुमावदार रेखाओं से बनाकर इसमें जान डाल दी गयी है। ऊपर यह जैसे बड़े पक्षी के दो पंखों के समान हो गया है। नाचने वाली के एक ओर सारंगी बजाने वाला दूसरी ओर तबला बजाने वाला है। ध्यातव्य है कि इन दोनों व्यक्तियों के सिर उठे हुए है, जैसे ये कुछ झूम रहे है। इसके अतिरिक्त सारंगी और एक तबले को कुछ टेढ़ा करके बनाया गया है।  जिससे  स्वाभाविकता है। इससे निश्कर्श निकलता है कि यद्यपि लोक कला में परम्परा का अधिकाधिक प्रभाव होते हुए भी कलाकार अपने चारों ओर के संसार को भलीभांति देखता था और अच्छा कलाकार उस दृष्य की छटा भी उपस्थित करता था। 

                         जौनपुर के खमपुर ग्राम में एक अन्य कोल्हू और जिसकी आकृतियाँ ऊपर दिये गये कोल्हू से बहुत मिलता-जुलता है। इससे परम्परा का प्रभाव और साफ तौर से जाहिर होता है, जिसके अन्तर्गत अनेक पत्थर काटने वाले एक ही प्रकार का काम करते थे। इस कोल्हू में भी उसी प्रकार की आकृतियां है जैसी हम पहले देख चुके है। घुडसवार, हाथीसवार इत्यादि। इनके चेहरे उपयुक्त प्रकार के मिलते है, परन्तु यहाँ प्रत्येक आकृति एक विषेश प्रकार की  पगड़ी पहने है जो अंगेजी हैट के समान है। प्रत्येक आकृति (मनुश्य और पषु) में जीवंतता है। प्रत्येक की भंगिमा और गति सजीव रूप से दिखलाई गयी है। इसमें एक स्थान पर चोंच में मरे साँप को पकड़े नृत्य करते दो मोर हैं, जो आमने-सामने खड़े है। जिसमें रेखाओं का सुन्दर प्रयोग किया गया है। यह भी दर्षनीय है कि प्रत्ये क मोर अलंकरण में विषेश रूप से पूँछ के अलंकरण में यह भिन्न है। इस कोल्हू में विषेश दर्षनीय है ऊपर की ओर मछलियाँ बनी है जैसे वे स्वच्छन्द जल में तैर रही है।

                       खमपुर ग्राम में ही एक अन्य कोल्हू है जो पूर्वोक्त प्रकार का है। इसमें विषेश रूप से घोड़े के रथ पर सवार लोगों के दृष्य मिले है। जो देखने योग्य है। घोड़े के घूमे हुए रूख को कोल्हू में बहुत ही सुन्दर ढंग से बैठाया गया है। रथ के लकड़ी के भाग में सुन्दर उमेठी हुई रेखाएं है। रथ पर एक व्यक्ति किसी मचिया पर बैठा हुआ हुक्का पीता हुआ दिखलाया गया है। पीछे स्त्री खड़ी है। बैठे हुए व्यक्ति का हाथ उसकी ओर श्रृंगारिक मुद्रा में बढ़ा हुआ है। इस कोल्हू में एक विषेश बात और दिखलाई पड़ी इसकी खड़ी पट्टियों में भी खड़ी मानवाकृतियाँ है। ये मानवाकृतियाँ डमरू प्रकार की हैं जो भिन्न-भिन्न है एक में भाला और माला लिए एक सिपाही खड़ा है, दूसरी ओर अंग्रेजी ढंग का कपड़ा पहने हुए संगीन धारी बन्दुक लिए हुए सिपाही खड़ा है। जौनपुर के खटहरा गाॅंव में एक कोल्हू मिला है, इसका उपयोग गाय की चराने के रूप में किया जा रहा है। यहाँ भी परम्परा के अनुसार आकृतियाँ बनी है। हाथीसवार मरे साँप को चोंच में पकड़ें मोर संगीनधारी सिपाही आदि। परन्तु इसका काम बहुत सूक्ष्म है और रेखाओं में सुन्दरता है। उदाहरण के लिए हम मोर को लें। इसमें मोर के पंखों को तथा कुण्डली मारे मृतक साँप को बहुत स्वाभाविक रूप में दिखलाया गया है। 

                     इसी गाँव में एक दूसरा बहुत अलंकृत कोल्हू है। इससे सम्भावना की जाती है कि यहाँ सौ वर्श पहले बहुत अच्छा सन्तराम था। और यह भी सम्भव है कि ये दोनों उसी की कृति हों परन्तु इसमें डिजाइनें भिन्न जान पड़ती है, अर्थात् परमपरा में विविधता भी थी। उदाहरण के लिए हम एक सजावटी डिजाइन को दे रहे है। इसमें एक फूला हुआ कमल है जिसकी आठ बड़ी और आठ छोटी पंखुड़ियाँ हैं और उसके ऊपर एक बेल है। पष्चात् चन्द्रमा और सम्भवतः तारा भी है, नीचे भी दो खिले हुए फूल हैं जिनको एक चापाकार रेखा से मिलाया गया है। यह डिजाईन बहुत ही सुन्दर रूप में बनाीय गयी है परन्तु यह बहुत महत्वपूर्ण बात है कि यह डिजाइन में सारनाथ से प्र्र्राप्त पहली ईसवी सदी पूर्व से पहली षती तक की आकृतियों में मिलती है जिसे ‘‘चक्षु’’ कहते है। 


(लेखकः प्रख्यात चित्रकार हैं, एम.एम.एच.कालेज गाजियाबाद मे चित्रकला विभाग के अध्यक्ष)  

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साक्षात्कार
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सोमवार, 28 मार्च 2011

सृजनशीलता कभी भोथरी नहीं होती

संवाद

सृजनशीलता कभी भोथरी नहीं होती

सुप्रसिद्ध चित्रकार लाल रत्नाकर से आलोक प्रकाश पुतुल की बातचीत


लाल रत्नाकर












  क्या जीवन का अनुभव संसार और कला का अनुभव संसार दो अलग-अलग संसार हैं? इन दोनों के बीच आप कैसा अंतरसंबंध देखते हैं?
जीवन का अनुभव संसार मेरे लिए, मेरी कला के अनुभव संसार का उत्स है. अंतत: हरेक रचना के मूल में जीवन संसार ही तो है. जीवन के जिस पहलू को मैं अपनी कला में पिरोने का प्रयास करता हूँ, दरअसल वही संसार मेरी कला में उपस्थित रहता है. कला की रचना प्रक्रिया की अपनी सुविधाएं और असुविधाएं हैं, जिससे जीवन और कला का सामंजस्य बैठाने के प्रयास में गतिरोध आवश्यक हिस्सा बनता रहता है. यदि यह कहें कि लोक और उन्नत समाज में कला दृष्टि की भिन्न धारा है तो मुझे लगता है, मेरी कला उनके मध्य सेतु का काम कर सकती है.
  जब आप लोक और उन्नत समाज की कला दृष्टि की भिन्न धारा का जिक्र कर रहे हैं, तो क्या इसे इस तरह समझना ठीक होगा कि प्रकारांतर से आप यह भी कह रहे हैं कि परम्परा में, उन्नत समाज में लोक की उपस्थिति नहीं है या क्षीण है ?
मेरे कहने का आशय यह है कि लोक और नागर समाज की कला दृष्टि में भिन्नता है. लोक की आस्था सरलता और साधारणीकरण में है. इसके उलट नागर समाज में किसी खास किस्म की कृत्रिमता को अधिक स्थान मिला हुआ है.
  आप अपने कला के अनुभव संसार को किस तरह संस्कारित और समृध्द करते हैं?
मेरी कला का अनुभव संसार लोक है और लोक स्वंय में इतना समृध्द है कि उसे संस्कारित करने की जरुरत ही नहीं पड़ती. जहां तक मेरी कला सृजन का सवाल है तो वह ऐसे परिवेश और परिस्थिति से निकली है, जिसकी सहजता में भी असहज की उपस्थिति है.
  आप शायद अपने बचपन की ओर इशारा कर रहे हैं. मैं जानना चाहूंगा कि अपने बचपन और कला के रिश्तों को आप किस तरह देखते-परखते हैं
बचपन में कला दीर्घाओं के नाम पर पत्थर के कोल्हू की दीवारें, असवारी और मटके के चित्र, मिसिराइन के भित्ति चित्र आकर्षित ही नहीं, सृजन के लिए प्रेरित भी करते थे. गांव की लिपी-पुती दीवारों पर गेरू या कोयले के टुकड़े से कुछ आकार देकर जो आनंद मिलता था, वह सुख कैनवास पर काम करने से कहीं ज्यादा था. स्कूल की पढ़ाई के साथ-साथ रेखाएं ज्यादा सकून देती रहीं और यहीं से निकली कलात्मक अनुभूति की अभिव्यक्ति, जो अक्षरों से ज्यादा सहज प्रतीत होने लगी. एक तरफ विज्ञान की विभिन्न शाखाओं की जटिलता वहीं दूसरी ओर चित्रकारी की सरलता. ऐसे में सहज था चित्रकला का वरण. तब तक इस बात से अनभिज्ञता ही थी कि इस का भविष्य क्या होगा. जाहिर है, उत्साह बना रहा.
ग्रेजुएशन के लिए बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और गोरखपुर विश्वविद्यालय में आवेदन दिया और दोनों जगह चयन भी हो गया. अंतत: गोरखपुर विश्वविद्यालय के चित्रकला विभाग में प्रवेश लिया और यहीं मिले कलागुरू श्री जितेन्द्र कुमार. सच कहें तो कला को जानने-समझने की शुरुवात यहीं से हुई. फिर कानपुर से बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के कलाकुल पद्मश्री राय कृष्ण दास का सानिध्य, श्री आनन्द कृष्ण जी के निर्देशन में पूर्वी उत्तर प्रदेश की लोक कला पर शोध, फिर देश के अलग-अलग हिस्सों में कला प्रदर्शनियों का आयोजन...तो कला के विद्यार्थी के रुप में आज भी यह यात्रा जारी है. कला के विविध अछूते विषयों को जानने और उन पर काम करने की जो उर्जा मेरे अंदर बनी और बची हुई है, उनमें वह सब शामिल है, जिन्हें अपने बचपन में देखते हुए मैं इस संसार में दाखिल हुआ.
• फ़ोटोग्राफ़ी के सहज और सुलभ हो जाने से ललित कलाएँ किस तरह प्रभावित हुई हैं? यदि आपकी विधा की बात करें तो इसने चित्रकार की अंतरदृष्टि को धारदार बनाया है या फिर उसे भोथरा किया है?
फोटोग्राफी का इस्तेमाल बढ़ने से कला प्रभावित हुई है, ऐसा नहीं लगता. हां, इसके कारण कलाकार को नये तरीके और प्रयोग करने की चुनौती मिली है, जिसने सहजतया कलाकार की अन्तर्दृष्टि को सूक्ष्म बनाया है. लेकिन मैं विनम्रता के साथ उल्लेख करना चाहूंगा कि मेरे साथ इससे इतर स्थिति है. मेरे कला प्रशंसक मित्रों का मानना है कि मेरे रेखांकन की प्रतिबध्दता को कैमरे ने कमजोर किया है, जबकि मामला इससे अलग है. रेखाओं की समझ कैमरे से नही आती है. कई बार कैमरा कमजोरी बन जाता है, जिसका दूसरे कई लोग लाभ भी उठाते हैं.
विकास की धारा विभिन्न रास्तों से गुजरती है. मानव मन की अभिव्यक्ति और यथार्थ की उपस्थिति दो स्थितियां हैं, जो समाज और कलाकार के मध्य निरंतर जूझते रहते हैं. ऐसे में समाज को फोटोग्राफी अक्सर उसके करीब नजर आती है. उसमें उसे तत्काल जो कुछ देखना है दिखाई दे जाता है. पल भर की मुस्कान, खुशी, दु:ख, दर्द के अलग अलग स्नैप संतोष देते होंगे, जिनको रंगो का ज्ञान, रेखाओं की समझ है, उन्हें कहां से फोटोग्राफी वह सब दे पायेगी.
इसलिए कलाकार की अर्न्तदृष्टि की उपस्थिति उसके चित्रों के माध्यम से होती है, जिसे उसने कालांतर में अंगीकृत किया होता है, विचार प्रक्रिया के तहत गुजरा हुआ होता है. ऐसे मे चित्रकार सहजतया अपने मौलिक रचना कर्म को तर्को की प्रक्रिया से गुज़ारता है, जिससे उसकी सृजनशीलता की विलक्षणता दृष्टिगोचर होती है. ऐसे में हम यह कह सकते है कि किसी भी प्रकार का आविष्कार या विकास जब भी किसी को अर्थहीन अथवा भोथरा साबित कर देता है तो यह प्रमाणित हो जाता है कि उसमें दम नहीं है. अन्यथा चित्रकार की अपनी धार होती है और अगर वह सृजनशील है तो वह कभी भोथरी हो ही नहीं सकती.
• आपने स्त्रियों पर काफी काम किया है, यदि मैं भूल नहीं रहा हूं तो आपकी पूरी एक श्रृंखला आधी दुनिया स्त्रियों पर केंद्रित है. आपकी स्त्री किससे प्रेरित है?
स्त्रियां जन्म से लेकर अब तक आकर्षित, प्रभावित और उत्प्रेरित करती आयी हैं परंतु इनकी अपनी व्यथा है, जिसे पढ़ना बहुत ही सरल होता है. मुझे यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं है कि मैं पुरुषों को उतनी आसानी से नहीं पढ़ पाता.
मुझे ऐसा लगता है कि स्त्री सृजन की सरलतम उपस्थिति के रूप में परिलक्षित होती रहती है. सौंदर्य और स्त्री एक-दूसरे के साथ उपस्थित होते हैं. ऐसे में सृजन की प्रक्रिया बाधित नहीं होती. मेरी स्त्रियां सीता नहीं हैं, कृष्ण की राधा नहीं हैं और न ही रानी लक्ष्मीबाई हैं. ये खेतों खलिहानों में अपने पुरूषों के साथ काम करने वाली स्त्रियां हैं.
• आपकी स्त्री कर्मठ और गठीली दिखाई देते है, एक तरह की दृढ़ता भी नजर आती है. आपकी स्त्री भद्रलोक की नारी नहीं है वह खेतिहर है, मजदूरी करती है, क्या ऐसा आपकी ग्रामीण पृष्ठभूमि के कारण है?
मेहनतकश लोगों की कुछ खूबियां भी होती हैं जिन्हें समझना आसान नहीं है. यदि उन्हें चित्रित करना है तो उनके मर्म को समझना होगा. उनके लय, उनके रस के मायने जानना होगा. उनकी सहजता, उनका स्वाभिमान जो पूरी देह को गलाकर या सुखाकर बचाए हैं, दो जून रूखा-सूखा खाकर तन ढ़क कर यदि कुछ बचा तो धराऊं जोड़ी का सपना और सारी सम्पदा समेटे वो जैसे नजर आती हैं, वस्तुत: वैसी वो होती नहीं हैं.
उनका भी मन है, मन की गुनगुनाहट है, जो रचते है अद्भूद गीत, संगीत व चित्र जिन्हें लोक कह कर उपेक्षित कर दिया जाता है. उनका रचना संसार और उनकी संरचना मेरे चित्रों में कैसे उपस्थित रहे, यही प्रयास दिन-रात करता रहता हूं. मेरे ग्रामीण पृष्ठभूमि के होने मतलब यह नहीं है कि मैं किसी दूसरे विषय का वरण अपनी सृजन प्रक्रिया के लिये नहीं कर सकता था पर मेरे ग्रामीण परिवेश ने मुझे पकड़े रखा.
• इसमें क्या संदेह है कि देह की एक लय होती है और उसका अपना एक संगीत होता है. लेकिन आपके यहाँ देह की लय लगभग अनुपस्थित है, वहाँ देह एक स्थूलता के साथ सामने आता है, न तो नारी देह में नाज़ुकी की लय है और न पुरुष में बलिष्ठता. अगर है तो वह आलाप नहीं विलाप है. क्या यह अनायास ही है या फिर आपने सायास इसे अपनाए रखा है?

लाल रत्नाकर

बेशक बिना लयात्मक्ता के कला निर्जीव होती है परन्तु मेरे हिस्से वाले जीवन में यदि कुछ अनुपस्थित है तो देह और देह की लय को निहारने की दृष्टि, परन्तु मैंने कोशिश की है उस जीवन के यथार्थ के सौन्दर्य को बिना प्रतिमानों के उकेरने की. यहां मेरे चित्रों के पात्र अपनी देह का अर्थ ही नही समझते. उनके पास देह तो है परन्तु उस देह का बाजार से क्या सम्बन्ध है वह नहीं जानते. जबकि बाजारीकरण उसी देह में लोच और अलंकारिकता की वह कुशलता भर देता है जिससे उसकी अपनी उपस्थिति गायब हो जाती है और प्रस्तुत होता है उसका वह सुहावना, सलोना और आकर्षक रूप जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि इनकी जिन्दगी में कहीं कुछ कमी ही नही है. जीवन के सारे द्वंद्व् खत्म हो गए हों.
अनेक चित्रकारों के आदिवासी स्वरूप मैंने देखे हैं, जिनमें वे चमचमाते हुए किसी स्वर्गलोक के लोग नजर आते हैं. ऐसे लोग जिन्हें न कोई काम काज करना है और न ही आनन्द मनाने के अतिरिक्त उनके पास कोई काम काज है. इसलिए मुझे किंचित अफसोस नहीं होता कि मैं उस सुकोमल नारी और बलिष्ठ पुरुष का प्रतिनिधित्व करूं. बल्कि उस यथार्थ के सृजन में सुकुन और शांति मिलती है जो चिन्तित है अथवा बोझिल है. जिनके पुरूष सारी बलिश्ठता श्रम के हवाले कर चुके हैं-रोग, व्याधि, कर्ज और समय की मार से.
• स्त्री आपकी कला के केंद्र में है और रंग बहुत गहरे हैं. इनमें आपस के रिश्ते को आप किस तरह रेखांकित करेंगे?
जिस स्त्री का मेरी कला से सरोकार है मूलत: वह रंगों के प्रति सजग होती है. उसे प्रारम्भिक रंगो से गजब का लगाव है, जिन्हें वह सदा वरण करती हैं. मूलत: ये मूल रंग इनके मूल में बसे होते हैं यथा लाल पीला नीला. बहुत आगे बढ़ीं तो हरा, बैगनी और नारंगी इनके जीवन में उपस्थित होता है. इसके सिवा उसके जीवन में जो रंग दिखाई देते हैं, वह सीधे सीधे कुछ अलग ही संदेश संप्रेषित करते हैं. इन रंगो में प्रमुख हैं काला और सफेद जिनके अपने अलग ही पारम्परिक सन्दर्भ हैं. इन रंगो के साथ उसका सहज जुडाव उसे प्रकृति और सत्य के समीप रखता है. उत्सवी एवं पारम्परिक मान्यताएं भी इन चटख रंगो को अंगीकृत करते हैं.
• समकालीन दुनिया में हो रहे बदलाव के बरक्स यदि आपकी स्त्री की ही बात करें तो इस बदलाव को किस तरह देख रहे हैं ?
आज के बदलते दौर में हमारी स्त्री उतनी प्रभावित नहीं हो रही है, लेकिन अगली पीढ़ी सम्भव है तमाम बदलते हुए सरोकारों को स्वीकार कर ले. हमारे सामने जो खतरा आसन्न है, उससे एकबारगी लगता है कि इस आपाधापी में उसकी अपनी पहचान न खो जाए.समकालीन दुनिया के बदलते परिवेश के चलते आज बाजार वह सामग्री परोस रहा है, जो उस क्षेत्र तो क्या उस पूरे परिवेश तक की वस्तु नही है. इसका मतलब यह नही हुआ कि मैं विकास का विरोधी हूं लेकिन जिन प्रतीकों से मेरा रचना संसार समृध्द होता है, उसमें यह बाज़ार आमूल चूल परिवर्तन करके एक अलग दुनिया रचेगा, जिसमें उस परिवेश विशेष की निजता के लोप होने का खतरा नजर आता है.
• चित्रकला एक तरह से साहित्य की पड़ोसी होती है, तो आप किन कवियों, कथाकारों को पढ़ते और गुनते हैं? क्या इससे आपकी कला प्रभावित होती है और यदि होती है तो किस तरह?
कबि और चितेरे की डाड़ामेडी' कहानी आपने ज़रुर पढ़ी होगी. मैंने भी पढ़ी है. और ठीक से जिसको पढ़ा है उसमें सबसे उपर मुंशी प्रेमचंद और रेणु का नाम आता है. उसी क्रम में शरतचन्द्र, रविन्द्र नाथ टैगोर, धर्मवीर भारती, राही मासूम रजा को पढ़ने तथा समकालीन कथाकारों में कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, शिवमूर्ति, से. रा. यात्री, संजीव और कुंअर बेचैन के करीब होने का सुअवसर मिला है.
इन सभी के कथा-संसार ने मेरी कला को समृध्द किया है. इनके पात्र मुझे आमंत्रित करते हैं. नि:संदेह कला और रचनात्मकता के नाना स्वरुप एक-दूसरे के लिए एक अवकाश की उपस्थिति तो देते ही हैं.
• एक ऐसे समय में जब बाज़ार में करोड़ों रु. में कोई पेंटिंग खरीदी-बेची जा रही हो, कला के सामाजिक सरोकार को आप किस तरह देखते हैं ?
सदियों पुरानी कला का जो मूल्यांकन आज हो रहा है, वह कम से कम उस अनजाने कलाकार के लिए तो किसी भी तरह से लाभदायक नहीं है. दूसरी बात ये कि आज भी जिस प्रकार से बाजार में कला की करोड़ो रूपये कीमत लग रही है, उससे भले कलाकारों को प्रोत्साहन मिल रहा होगा, लेकिन यह शोध का विषय हो सकता है कि अंतत: बाज़ार में किसकी कीमत है? लेकिन इन सबके बाद भी हरेक कलाकार अपने समय के पृष्ठ तनाव से ही तो मुठभेड़ करता है. और इस पृष्ठ तनाव में उसका समाज और उसका सरोकार ही तो शामिल होता है.

• समाज का एक बड़ा वर्ग है, जिसके हिस्से में ज़िंदगी के दूसरे संघर्ष इतने बड़े हैं कि वहां कला के लिए कोई अवकाश नहीं है. आपके उत्तर को ही समझने की कोशिश करूं तो कला का बाज़ार और बाजार की कला की उपादेयता और कहीं-कहीं आतंक, अंतत: इस समाज को समृध्द नहीं कर रहे हैं. ज़ाहिर है, इसमें कला की जरुरत पर भी सवाल खड़े होते हैं ?

लाल रत्नाकर


जीवन के सारे उपक्रम अंतत: इस दुनिया को सुंदर बनाने के ही उपक्रम हैं. कला के विविध माध्यम कहीं न कहीं हमारे कार्य-व्यापार को और सरल ही बनाते हैं. इसकी जरुरत इतनी आसानी से खत्म होने वाली नहीं है, हां आपूर्ति जब-जब कटघरे में खड़ी होगी, तब-तब इस तरह के सवाल जरुर उपजेंगे.
• कला के व्यावसायिकरण पर काफी बहस हो चुकी है. फिल्मों और विज्ञापनों की बात करें तो इसमें नई तरह की रचनात्मकता दिखाई दे रही है जो कि आम आदमी के काफी करीब भी नजर आती है. दूसरे शब्दों में आप कह सकते हैं कि उनमें एक तरह का सामाजिक सरोकार नहीं तो सामाजिक हलचल तो दिखाई दे ही रही है. पेंटिंग के बारे में आप क्या सोचते हैं?
यह कहना संभवत: सही नहीं है कि वर्तमान समय में फिल्मों एवं विज्ञापनों में सामाजिक सरोकार बढ़ा है या वे जीवन के अधिक निकट आई हैं बल्कि वास्तविकता तो यह है कि वह आम आदमी के जीवन से दूर होती जा रही हैं. इनमें जिस आम आदमी की बात होती है वह शहरी मध्यवर्गीय समाज है. निम्न वर्ग, गांव और उसके आदमी, उसमें कहीं नहीं हैं. इस पर भी वह शहरी मध्यवर्गीय जीवन को नहीं वल्कि उसके सपनों को ही दिखाते हैं या यूं कहें कि सपनों का कारोबार करते है.
कमोबेश पेंटिंग का भी यही हाल है. आए दिन समाचार पत्रों की सुर्खियां कला और कलाजगत के घाल-मेल को उजागर करती रहती हैं. कला में आज सामाजिक हलचल की जगह तिकड़मबाजी ने ले ली है. आज कला के बाजार में विविध प्रकार के द्वार खुल रहे हैं. जबकि कायदे से अभी तक चित्रकला की संभावनाओं पर बहस शुरु भी नहीं हुई है.
• राजनीतिक समाज और नागरिक समाज एक तरह से कला के प्रति उपेक्षा का भाव रखते हैं. यहाँ तक कि अच्छी फ़िल्मों को भारत में कला-फ़िल्में कह कर एक तरह से हाशिए पर रख दिया जाता है और कहा जाता है कि वह कुछ ख़ास किस्म के लोगों के लिए बनाई गई फ़िल्म है, आम लोगों के लिए नहीं. कमोबेश यही स्थिति चित्रकला के साथ नज़र आती है जिसमें कला को समझने, सराहने और ख़रीदने का जिम्मा कुछ ही लोगों तक सीमित नज़र आता है. इस विद्रूपता को आप किस तरह देखते हैं?
आज की राजनीति में मुझे ऐसा नेतृत्व नहीं नजर आता, जो अपनी कला के कारण अपनी उपस्थिति दर्ज कराता हो. हिंदी पट्टी में यह स्थिति और ख़राब है. नागर समाज में कला का यह स्वरुप और भी भोंडेपन के साथ उभर कर सामने आया है. चाहे वो वस्त्र का मामला हो या फिल्मों का. कला की दुनिया में एक खास किस्म का वर्ग उभर कर सामने आया है, जिसके लिए कला जीवन का विषय नहीं है. ऐसे वर्ग के लिए हरेक कला केवल निवेश का मुद्दा है.
• क्या आप ऐसा कोई समय आता हुआ देखते हैं जिसमें कला, बाज़ारनिष्ठ होते जा रहे समाज में आमजन तक पहुँचे, सभी उसे समझ सकें और उसकी सराहना कर सकें?
सिध्दांत के तौर पर कहें तो वह कला ही क्या जो आमजन के लिए न हो. लेकिन यह किंचित पीड़ा के साथ स्वीकार करना पड़ता है कि कला और आमजन के बीच एक दूरी हमेशा से रही है और इसीलिए हमेशा से हमारे देश में कला को राजाश्रय में जाना पड़ा है. आमजनों के भरोसे कला का जीवित रहना न पहले संभव था और न अब है. इसलिए यदि समाज बाज़ारनिष्ठ होता जा रहा है तो यह एक शुभ संकेत इन मायनों में तो है ही कि शायद इसी तरह कला को राजाश्रय का मोहताज न होना पड़े. लेकिन जहाँ तक समझ का सवाल है तो इसके लिए जो संस्कार चाहिए, वो दुर्भाग्य से समाज में नहीं दे पा रहे हैं और इसलिए कला आमजन की समझ या पहुँच से दूर दिखाई देती है.
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लेख 
(राष्ट्रीय सेमिनार-राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय कांधला,मुज़फ्फरनगर ) 
महिलाओं की व्यापक सहभागिता और सांस्कृतिक संवर्धन
- डॉ.लाल रत्नाकर  
भारत में सदियों से सामाजिक स्तर पर विविध प्रकार का युद्ध चल रहा है जहाँ महिला, दलित और पिछड़े समान रूप से उससे प्रभावित हो रहे हैं, यहीं इनकी कुछ प्रतिभाओं की स्तुति करके बहुसंख्य को बड़े करीने से अपमानजनक अवस्थाओं में खड़ा करके यशस्वी होने का जो भ्रम उत्पन्न किये हुए है, उससे एहसास होता है की भारत आज भी 'मनुस्मृति' की जकड की जटिल मान्यताओं के आधार पर चल रहा है.
आज दुर्गा,लक्ष्मी और सरस्वती, शक्ति, धन और ज्ञान की देवी के रूप में पूज्य हैं, इनकी प्रतीतात्मकता का पूरा शोषण पूंजी और धार्मिक धर्माधिकारियो के द्वारा किया जाता है. जबकि पूरी स्त्री जाती उन्ही के द्वारा नित्य अपमानित होती है. और यहीं से शुरू होती है वह जंग. यही कारण है कि भारत कि महिलाओं को भी भारतीय समाज की तरह बाँटकर रखा गया है. आज जब समस्त विश्व जागरूक हुआ हैं विविध सवालों पर तब भी भारत उसी तरह पिछड़ा है महिलाओं के सवाल पर. इन्ही बंटी हुयी महिलाओं की संवेदना के मध्य का है मेरा रचना संसार. इन्ही महिलाओं ने भारत के आधे कम अपने कन्धों पर उठाया हुआ है पर उनकी हिस्सेदारी के सवाल पर उन्हें तिरस्कार, उत्पीडन, दुराचार एवं बलात्कार के जटिलतम सन्दर्भों से गुजरना ही जीवन और मरण के मध्य का हिस्सा बन जाता है, इस तरह की सलीबों पर लटकी हुयी जिंदगी कैसे अपने धर्म का निर्वहन करती है यहीं से निकलती हैं वह संवेदनाएं जिन्हें हम देख पते हैं - माँ, बहन, पत्नी और बेटी के रूप में ही नहीं अनन्य रिश्तों में उतरती नारी क्या वास्तव में उक्त 'प्रपंचों' की अधिकारिणी है.
इन्हीं में से निकलती नारी आज क्या सदियों से अपने कौशल और सयंम से समाज को अपने को सहेजते जिस शक्ति का परिचय दिया है यही कारण है की पुरुषों को पछाड़ विविध क्षेत्रों में अग्रणी रहने की अपनी जगह बनाई है, इसमे उन नारियों का भी मान बढ़ाया  है जिसमे सदियों से सत्ता के सर्वोच्च शिखर तक पहुँचने की उनकी इक्षा की पूर्ति हुयी है.
आज का समाज नारी को प्रयोग और प्रदर्शन की सामग्री ठीक उसी तरह से बना रखा है जैसे दलितों और पिछड़ों को, जहाँ जहाँ स्त्री अपने पराक्रम के बल पर आगे आने की बात करती हैं, उसको वहाँ बांटने के सारे हथकंडे अपनाये जाते हैं वह संसद, समाज  या घर का  सवाल हो. 
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कला और समाज में शैक्षिक भविष्य की समस्या
डा.लाल रत्नाकर 

                     समकालीन कला पर विचार करने से पहले हमें भारतीय कलाओं के क्रमिक विकास के परिदृश्य को समझना होगा, जैसा कि सर्वज्ञात है कि सदियों से कला जगत का अपना गौरवशाली इतिहास रहा है। अतः जब भी किसी तरह के विकास की बात होगी और उनमें कला के विकास अवधारणओं की चर्चा हो या नहो फिर भी कलाओं की उपस्थिति तो अनिवार्य होगी ऐसे में भारत के सम्पूर्ण कला विकास को नजरअंदाज करना बेमानी ही होगा। यहां यह नहीं कहा जा सकता कि कलाओं के वर्गीकरण के पूर्व जो कलात्मकता आज इतिहास का महत्वपूर्ण हिस्सा है वह सहज आ जाती रही होगी अपितु उसके ज्ञान को देने की प्रविधियों को नजर अन्दाज नहीं किया जा सकता। कलाओं के समय समय की प्रगति एवं अवरोध इस प्रभावी भावना के निष्पादन में कालचक्र का अपना महत्व होता है अतएव इसमें उनकी दुरूहता जितनी भी आड़े आयी हो उससे उसकी रचना प्रक्रिया के कौशल को कमतर करके देखना हो सकता है आज प्रासांगिक न हो पर इसके रचना के कौशल ने कभी अपने को समाप्त नहीं होने दिया है, ज्ञान के इस अद्भुत स्वरूप पर मनीषियों की दृष्टि सम्भव है बहस को स्थान दिया हो पर रचना प्रक्रिया की जटिलता को जिन रचनाकारों ने गौरवशाली बनाया वास्तव में वास्तविक योगदान उनका है। 
                    उत्तरोत्तर नकारात्मक रवैये को यदि त्यागते हुए वैश्विक कला इतिहास पर दृष्टि डालें तो यह तथ्य करीने से प्रमाणित होते हैं कि धर्म समाज और राज्य कला विकास की प्रक्रिया को जितना प्रभावित करते हैं उससे कहीं ज्यादा रचनाकार का कौशल। विज्ञान, साहित्य एवं परम्पराएं जब जब धर्म और समाज के पक्ष और प्रतिपक्ष में आती हैं तो उदारता अनुदारता अनिवार्य रूप से कलाओं की रचनात्मकता को प्रभावित करती हैं। यहां शिक्षा का महत्वपूर्ण स्वरूप भी सहज ही सम्मुख आता है जब हम भारतीय शिक्षा व्यवस्था के इतिहास पर दृष्टि डालते हैं। इस अप्राकृतिक प्रक्रिया के चलते मौलिक प्रक्रिया के विस्तार की वजाय प्रतिरूपण और अलंकारिकता के वैभव का ही विस्तारित कला का स्वरूप ही अधिक प्रचलित हो पाया, यही कारण है कि कलाएं सामाजिक स्वरूप में स्वीकार्य तो रहीं पर उतनी विकसित न हो पाने का कारण कहीं न कहीं असमानता और मानसिक दिवालियेपन की कहानी कहती नजर आती हैं। यदि यह सब व्यवस्थित और उनमुक्त मौलिकता की स्थिति में होता तो भारतीय कला का गौरवशाली स्वरूप इतिहास के ही नहीं वर्तमान में भी दुनिया को दिशा देता। 
                     इतिहास के गर्भ में पल रहे भारत का कला वैभव विखरा पड़ा है, ठीक उसी तरह जैसे यहां का सामाजिक स्वरूप। जब भी हम इसका विस्तार और निरपेक्ष अध्ययन करेंगे तो अनोखा सच सम्मुख आएगा। इन्हीं विविधताओं को समेटे यहां का गौरवशाली समाज सदियों की मानसिक गुलामी एवं बदहाली में डूबा यह महान रचनाकार अपनी सीमाओं में सिमटा, देश की अनन्य बाधाओं, हमलों, लूट-खसोट और अराजकताओं के मध्य जो कुछ कर पाया वह यहां के साम्राज्यों मठाधीशों की जागिर के रूप में महफूज है। वह अपनी कहानी इतिहास के पन्नों की जुबानी भले ही वयां न कर पाया हो पर किसी न किसी रूप में उसकी दशा पर जिक्र आ ही जाता है यथा ताजमहल जैसी विश्वविख्यात रचनाकार के हाथों के कलम कर दिये जाने के उद्धरण भी मौजूद हैं। यहां भी कलाकार की वास्तविक दशा के रूप में निश्चित तौर पर जो यातना जाहिर हो रही है कमोवेश यही दशा आज तक बनी हुई है। अतः भारत अपनी कलाओं के विविध स्वरूपों की वजह से अपनी पहचान बनाने में सम्पूर्ण संसार में कामयाब जरूर हो रहा है, पर उसके निहितार्थ अलग हैं। यही कारण है कि दुनिया के विविध देशों में भारतीय कलाएं आज चर्चा में ही नहीं उनकी मांग भी बनी हुई हैं पर यदि इनके समग्र विकास की प्रतिबद्धता भी पारदर्शी होती तो कुछ और बात होती। हो सकता है कि यह उल्लेख कष्टकारी और अव्यवहारिक लगे जो अपने आप में उक्त तथ्यों को ही बल प्रदान करेगा आज नहीं तो कल।      
                   फिर भी इतिहास बताता है कि भारतीय संस्कृति और सभ्यता के विकास की जो प्रक्रिया प्रारम्भ हुई और उनमें में जितनी विधाएं यशस्वी हुई हैं, उनमें ललित कलाओं का महत्वपूर्ण स्थान एवं योगदान रहा है। भारत का हर युग अपने समय में किसी न किसी रूप में कलाओं को समेटे हुए है, यहां पर समुचित रूप से देखा जाय तो निश्चित रूप से कलाओं से पटा पड़ा है। पर दुखद है कि जितना   ध्यान जाना था वह सम्भवतः नहीं जा पाया है। वैसे तो भारत के गौरवशाली इतिहास में यह उल्लेख है कि समय समय पर इन विधाओं पर ध्यान रहा है, जिसके कारण कलाओं की स्थिति विविध संकटों के समय में भी कुछ न कुछ नूतन ही प्राप्त किया है। यही कारण है कि भारतीय समाज के सांस्कृतिक परिवेश में व्यक्ति को साहित्य, संगीत  और कलाओं के बिना पशुवत रूप में देखा जाता रहा हो वहां कला की महत्ता स्वतः समृद्ध हो जाती है, यथा उसे प्रमाणित करते हुए ये पंक्तियां उक्त अवधारणा को पुख्ता ही करती हैं- 
                    साहित्य संगीत कला विहिनः। साक्षात् पशु पुक्छ विषाण हीनः।। 
                    यही कारण है कि भारतीय मानस कला रूपों को अपने जीवन के हर हिस्से में आभूषण के समान सजोकर रखा है शिलाखण्डों से लेकर देह तक का उपयोग इसके लिए किया गया है, भारतीय मानस का यही कला प्रेम विविध रूपों में प्रस्फुटित हुआ है, गीत संगीत नृत्य चित्र मूर्ति एवं स्थापत्य आदि में तथा दैनिक उपयोग की विविध सामग्रियां जिनमें आभूषणादि के अतिरिक्त नाना प्रकार के उपयोगिता की सामाग्रियों के अलंकारिक संसाधनों में ये विविध कला रूप प्रचुरता से प्राप्त होते हैं। यही कारण है कि लोक और विशिष्ट में कला अभिप्रायों की तमाम समता दृष्टिगोचर होती है। जिसको कालान्तर में पुनः नवीनतम तरीके से सामंजस्य के साथ प्रयुक्त किया गया है। यहां प्रयुक्त कलात्मकता की विवेचना भी महत्व की है, जिसमें कालान्तर में बहुत परिवर्तन देखने को मिला है, यहां पर यह महत्वपूर्ण है कि जिन कलारूपों की रचना समाज को प्रतिविम्बित करती थी वह धीरे धीरे विलुप्त हो रही है। यहां यह महत्वपूर्ण है कि सामाजिक पहचान में भी कलाएं बहुत सहयोगी थीं जो चुपचाप अपना काम करती रहती थीं। 
                    इन कला रूपों के निर्माण की प्रक्रिया में कला शिक्षा की प्रक्रिया पर गौर करें तो अधिकांश में परम्परागत गुरू-शिष्य या पारिवारिक परम्परा में यह कलाएं आगे बढ़ीं जिससे सांस्कृतिक सम्पन्नता आयीं जिसे हम अपने भारतीय समाज के विविध जातीय कार्यों के पेशेवर विविधता के रूप में भी देख पाते हैं। यही इनके सीखने के केन्द्र रहे हैं जो इन्हें परम्परा से पीढ़ी दर पीढ़ी इसके सम्पन्न स्वरूप प्रदान करते आए हैं। जितने भी उदाहरण मिलते हैं सबमें इन्हीं परम्परागत रूप से दी जाने वाली शिक्षा आज भी महत्वपूर्ण है। इसीलिए गुरू शिष्य परम्परा या घरानों के रूप में जिन्हें इसका सम्मान मिला वे इस विधा और ज्ञान के प्रसार में निश्चित रूप से समर्पित लोग थे। जिन्हें उनके कौशल की वजह से ही जाना गया। यही कारण है कि वो आज भी उन्हीं महत्वपूर्ण रूपों मे मौजूद है। 
                   इस परम्परा को आगे बढ़ाने और परवान चढ़ाने में जो कलाकार आगे आए उन्होने पीछे मुड़कर नहीं देखा, यथा कला के नये आयाम, नए प्रतिमान, नये मायने और नवीन तकनिकियों की खोजकर उनका भरपूर प्रयोग किए। यही कारण है कि समकालीन कला अपने विविध स्वरूपों में नजर आनी प्रारम्भ हुई। अब कला के मायने केवल और केवल पुरातन अर्थ समेटे रूपाकार न रहकर विविध अवस्थाओं व्यवस्थाओं को चिन्हित कर उनपर कलाकृतियों का सृजन हुआ। बृहत्तता और सूक्षमता का सामंजस्य एक साथ सामने आया, वसुदेव कुटुम्बकम की अवधारणा बलवती हुयी। चिन्तन की दिशा बदली, विषय बदले, माध्यम बदले। यही कारण है कि गुरू-शिष्य कहीं न कहीं मन्द पड़ी स्वतन्त्र विचारों का प्रसफुटन होना प्रारम्भ हुआ जिससे पारिवारिक परम्परा भी कमजोर हुई। यही कला कालान्तर में समकालीन कला के रूप में प्रतिस्थापित हुई और उसके कलाकारों ने समकालीन विचारों को लेकर विविध तकनीकियों का उपयोग कर एक नयी धारा की शुरूआत हुई है।
                    कालान्तर में इनके चलते अनेक तरह बदलाव के साथ नवीन परिवर्तनों ने विभिन्न प्रकार के माध्यमों को भी आजमाया और इनके विभिन्न शिक्षण केन्द्रों में भी इस नए बदलाव की शुरूआत हुई। जो विभिन्न स्कूलों के रूप में सामने आए विशेषकर ब्रिटिश शासन काल में जिन पश्चिमोन्मुखी कला शिक्षण की शिक्षा को प्रारम्भ किया गया उनमें पारंगतता के उपरान्त भी केवल कला की पराधीनता की जिस विधा को भारतीय कला के स्थानापन्न करने के लिए जिन अनेक स्कूलों की स्थापना हुई थी वहीं धीरे धीरे नवीन अवधारणा ने जगह बनाई। उनकी उपस्थिति आज हमारे सम्मुख जिस रूप में है वह कितनी सुखद है उसका मूल्यांकन अलग तरह से किया जाना चाहिए। पर इनकी प्रासांगिकता तत्कालीन दौर में जो भी रही हो पर आज उनका स्वरूप काफी बदल गया है। जबकि संगीत और नृत्य के अनेक घराने आज भी अपनी महत्ता कायम किए हुए हैं। 
                    क्योंकि कला शास्त्रों से बहुुत पहले की चीज है अतः कलाओं की मूल्य दृष्टि एवं मानवीय उपयोगिता का सवाल हमेशा सृजन की संभावनाओं को स्थान प्रदान करता है, यही कारण है कि रचनाओं की विविधता का शास्त्रीय स्वरूप तय किए जाने के बाद भी वह उन नियमों को तोड़ती रही हैं। ‘‘रचनात्मकता का संबन्ध साक्षर या शिक्षित होने से जरा भी नहीं। सांस्कृतिक दृष्टि से नितांन्त असंस्कृत महाकवि र्भृहरि के पात्र,’’ बहुत से शिक्षितों के हाल सब जानते हैं।’’ 
                    कलाओं की मूल्य दृष्टि-हेमन्त शेष की पुस्तक उद्धृत यह अंश कला शिक्षा के स्वरूप को परिलक्षित करता है अब सवाल यह है कि कला आन्दोलनों की स्थिति को कला शिक्षा से कैसे जोड़ा जाय, यही भारतीय कला आन्दोलन की प्रासांगिकता को चिन्हित कराने में सहायक होगा जबकि समकालीन कलाकारों की सूची में जिन नामों को शरीक किया गया है उनपर सवाल उठेगे कि उनके मानदण्ड क्या हैं ? उनको समझने के लिए कला के विकास की अवधारणाओं को समझना होगा जिनकी वजह से कला में बदलाव उत्पन्न हुए। 
                   अब तक कि कला प्रक्रिया में 1947 के प्रोग्रेसिव ग्रुप में-के0 एच0 आरा, एस0 के0 भाकरे, एम0 एफ0 हुसेन, एच0 ए0 गैडे, एस0 एच0 रजा, एस0 एन0 सूजा जिन छह कलाकारों को प्रोग्रेसिव ग्रुप में सुमार किया जाता है वह जिन विशेषताओं की वजह से जाने जाते हैं। परन्तु प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप का 1956 में विभाजन और स्वाभाविक रूप से दूर हुए फीका, समूह के कलाकारों को अपनी व्यक्तिगत शैली बनाने में व्यस्त थे. पीएजी के साथ जुड़े कलाकारों की सूची में लगभग सभी महत्वपूर्ण कलाकार लगभग 1950 में बंबई में काम कर रहे कलाकारों को भी शामिल किया जा सकता है। छह संस्थापक सदस्यों के अलावा, जुड़े कलाकारों मंे निम्न कलाकारों के नाम भी समिमलित हैं-वी.एस. गायतोंडे, कृष्ण खन्ना, अकबर पदमसी, तैयब मेहता, राम कुमार, बाल छाबड़ा के बीच भरोसा कर सकते हैं। यह प्रगतिशील समूह है, जो नए प्रतिभा को कोकून के बाहर उभरने में मदद किया था। कुछ तत्कालीन दौर के भारतीय कलाकारों की पीढ़ी जो पहले के कलाकारों ने जो उनके लिए मार्ग प्रशस्त करने के लिए उनकी अभिव्यक्ति के विविध प्रतिभाओं के मालिक है और भारतीय समकालीन कला के उन्नायक भी।        
                 आज कई ज्ञात अज्ञात भारतीय कलाकारों की व्यक्तिगत शैली है जिसे वे सक्षम करने में एवं आगे ले जाने में लगे हैं, और यह समाज में स्वीकृति प्राप्त करने के लिए निरन्तर यत्न कर रहे हैं। समकालीन कला आन्दोलन को आगे ले जाने में जिन कलाकारों ने अपना योगदान बेनामी या गुमनामी में किया है वह भी इस आन्दोलन के लिए उतने ही महत्वपूर्ण हैं। 
                वर्तमान दौर का कलाकार उनसे दूर तो हुआ है परन्तु कलामूल्यों को लेकर नहीं, जबकि नयी पीढ़ी के दौर में रचना प्रक्रिया के तौर तरीकांे ने कई नये आयाम कला को दिए हैं जिनमें स्थान विशेष का जिक्र किया जाना उतना महत्व का नहीं है जितना उनकी प्रक्रियाओं का यह कार्य कमोवेश देश के हर हिस्से में हुआ है। जिनकी वजह से भारतीय कला ने अपनी उपस्थिति कायम की है। 
              वहीं दूसरी ओर जहां बड़े संस्थानों के कलाकार अपनी पहचान बनाने में कामयाब रहे और जिनसे ऐसा नहीं हुआ दोनो के अलग ग्रुपों ने कला जगत में अपनी छाप छोड़ी है उसका मूल्यांकन कब होगा इसकी घोषणा करना संभव नहीं है जब समकालीन व्यवस्था इन कलाओं के भविष्य से आंख मूंद लेती है तब कलाओं के पतन का दौर आरम्भ हो जाता है। 
              आगे समकालीन कला और कला शिक्षा पर नजर डालने पर कई तत्व सामने आते हैं जिनका उल्लेख यहां करना वाजिब होगा। आजादी के पूर्व और उसके उपरान्त जिस तरह से विविध क्षेत्रों में बदलाव शुरू हुए उनमें कला का स्थान भी महत्व का रहा है राष्ट्र्ीय कला अकादमी की स्थापना, विभिन्न विश्वविद्यालयों में कला शिक्षण की सुविधा तथा अनेक कला महाविद्यालयों की स्थापना। 
              इस बीच की कला उपलब्धियां और उनका मूल्यांकन किया जाय तो अनेक महत्वपूर्ण तथ्य प्रकाश में आते हैं। उन मनिषियों ने जिन्होंने भारतीय कला तत्वों एवं तकनीकी ज्ञान की स्थाई स्थापना के अध्ययन की नींव डाली होगी। परन्तु आज ये संस्थान उस समय की आकल्पित उक्त अवधारणा के उन स्वरूपों में जिस उत्थान की परि कल्पना की गयी थी उसका स्वरूप क्या हो गया है वह विचारणीय है।  उनकी अवधारणओं का जो प्रस्फुटन हुआ वह उन विकासशील स्वरूपों में न होकर जिन स्वरूपों में हुआ है वह किसी भी तरह भारतीय कला का प्रतिनिधित्व नहीं करता। यहां विशेषकर बंगाल, बड़ौदा और मुंम्बई को लिया जा सकता है। परन्तु थोक में जिन कला प्रक्रिया को अनेक महाविद्यालयों में अपनाया जा रहा है, जिनकी दशा दिशा को समझने के लिए अनेक कला शिक्षण संस्थानों का नाम लिया जा सकता है। 
              इनके अतिरिक्त आधुनिक कला के बहाने समकालीन दौर की कला प्रक्रियाओं से विमुख अनेक शिक्षण संस्थानों की स्थिति तो और भी सोचनीय है। जिस तरह इनके शिक्षण साम्राज्य स्थापित हुए उनके कर्णधारों ने कला को नहीं किसी और विन्दु को महत्वपूर्ण करके जिस अ-कला को ही बढ़ाया गया  है। यह भयावह दौर कला की इस वर्तमान स्थिति को इस स्थिति तक लाने में निश्चित तौर पर एक जटिल प्रक्रिया के अधीन आकर या होकर जहां तक पहुंचा है उसके अनेक उदाहरण हमें मिलते हैं। जिसके प्रभावी या अ-प्रभावी प्रभाव का मूल्यांकन कब होगा, कहना कठिन है। इसके और भी कारण हैं जिनमें विभिन्न प्राथमिक विद्यालयों की जटिल कला शिक्षा व्यवस्था या यूं कहें कि व्यवसायिक अवस्था के कारण मौलिक पद्धतियों की वजाय निहायत व्यवसायिक आधार ने जो कमजोर आधार खड़ा किए हैं वह शैक्षिक प्रक्रिया को प्रभावित करने में बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान दिया है। यदि हम इसका अध्ययन निम्न विन्दुओं के आधर पर करें तो जो परिणाम सामने आएंगे उन्ही से सच्चाई का आकलन किया जा सकता है। यथा-  विद्यार्थी,शिक्षक,पाठ्यक्रम,क्लास,स्ंासाधन,परीक्षा प्रणाली एवं व्यवस्थागत मानसिकता का मूल्यांकन किया जाना आज की समकालीन कला के स्वरूप को स्पष्ट करता है। 
             जिनका मतलब सीधे सीधे कलाओं को दयनीय बनाकर अपनी चेरी बनाना मात्र रह गया है। यही कारण है कि इस तरह के संस्थान कलाओं की वजाय कलाओं की अनुकृति कराने के केन्द्र मात्र बनकर रह गए हैं। यही नहीं अब तो इनकी यही व्यवस्था गुरूशिष्य की परम्परा बन गयी है। इनके उदाहरण हमें अनेक कला शिक्षकों के रोने धोने में दिखाई ही दे जाता है यथा आजकल के बच्चों के पास वक्त ही नहीं है क्लास में ही नहीं आते हैं, गांव के बच्चे न जिनके पास सामग्री होती है और न ही उन्हें समझ, उनके गार्जियन भी ऐसे हैं, इसलिए पाठ्यक्रम ऐसा रखिए जिससे काम आसानी से निकल जाए। और आश्चर्य जनक यथार्थ से रूबरू होना पड़ा है इस कला शिक्षा के जिम्मेदार शिक्षक होने का अरमान रखने के कारण। यहां उस यथार्थ की वानगी - स्नातक और स्नातकोत्तर स्तर के कल शिक्षण की आवश्यक सुविधाओं पर नजर डालें तो उनका कोई मानदण्ड लिखित रूप में कहीं उपलब्ध नहीं है, पर प्रयोगात्मक कक्षाओं की सामान्य व्यवस्था अनेक उन्नत कला महाविद्यालयों तक में उपलब्ध नहीं है जो अपने आप में एक बड़ी विडम्बना है।           
              यदि इनके विस्तार की बात की जाए तो उत्तरोत्तर उन प्रवृत्तियों को ही बढ़ावा मिल रहा है जिसमें कला मूल्यों एवं उनकी मौलिकताओं का अभाव है। इनके स्पष्ट कारण जो दिखाई दे रहे हैं उनमें कला की शिक्षण संस्थाएं, उपयुक्त संसाधन और निपुड़ ज्ञानदाताओं की अनुपलब्धता भी महत्वपूर्ण हिस्सा है। इनसे भी महत्वपूर्ण यह है कि कलाकार बनने के लिए शिक्षा ग्रहण कर रहे शिक्षार्थी जो हैं वह या तो डिग्री के लिए अच्छे अंक पाने के लिए किसी न किसी प्रकार अपने कोर्स पूरे करते हैं। जबकि वे सब कलाकार के पाकर नौकरी के लिए। इसके विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि जितने कलाकार इन क्षेत्रों में दिखाई देने चाहिए थे वास्तविकता उनसे परे हैं। जो इस प्रकार के कलाकार हैं वह सतह पर कितने नजर आते हैं उन परिक्षेत्रों में जहां पर कला के ऐसे संस्थान हैं। अनेक कला महाविद्यालयों में इन स्थितियों से भिन्नता दिखाई तो देती है। 
              यही कारण है कि जिस स्थान पर कला को होना चाहिए था आज वहां नहीं है। इन्ही कारणों से आज की कला शिक्षा में जिन मूल्यों की प्रतिस्थापना होनी चाहिए थी कहीं न कहीं उनका संकट उपस्थित है। पर नित नए संस्थान जन्म ले रहे हैं जहां केवल और केवल यह हो रहा है कि शिक्षण प्रशिक्षण की कला का विकास तो हो रहा होगा पर कला के शिक्षण प्रशिक्षण की कला मूल्यों एवं उनकी मौलिकताओं का अभाव है यही कारण है कि सारी प्रक्रियाएं ठहरी हुयी सी प्रतीत हो रही हैं। हो सकता है कल कोई कला जिज्ञासु आए और इनको झकझोरने की कोशिस करे। फिर इनकी नींद टूटे और कला सृजन की संभावनाओं की भी इन्हे भी चिन्ता हो जो केवल और केवल नौकरियों वाली कला शिक्षा, उपाधियां उपलब्धियों की जगह ले ली हैं ।
लेखक का परिचय 
अध्यक्ष 
असोसिएट प्रोफ़ेसर 
चित्रकला विभाग , एम्.एम्.एच.कालेज  गाजियाबाद
(चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय मेरठ से सम्बद्ध)
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नारीजाति की तरंगे-



               मेरे चित्रों की एक प्रदर्शनी ‘नारीजाति की तरंगे’ शीर्षक से ललित कला अकादमी, रवीन्द्र भवन की कलादीर्घा 7 व 8 में 19 मार्च 2011 तक लगी। जिसमें महिलाओं की दशा दिशा पर मेरे तैलीय (आयल) एक्रेलिक, जलारंगीय (वाटर कलर) एवं रेखांकनों के चित्र प्रदर्षित हुए.  




               इस चित्र प्रदर्शनी में नारीजाति की तरंगे विषय को केन्द्र में रखकर चित्रों का चयन करके उन्हें प्रदर्शित किया गया है जिनमें भारतीय नारीजाति की विविध आयामी स्वरूपों का दृश्याकंन किया गया है जिनमें-यह दिखाने का प्रयत्न किया गया है जिनमें जिस रूप में स्त्रियां जन्म से लेकर अब तक आकर्शित, प्रभावित और उत्प्रेरित करती आयी हैं परंतु इनकी अपनी व्यथा है जो पढ़ना बहुत ही सरल होता है. आप मान सकते हैं कि मैं पुरुषों को उतनी आसानी से नहीं पढ़ पाता हूं । मैने बेशक स्त्रियों को ही अपने चित्रों में प्रमुख रुप से चित्रित किया है, क्योकि मुझे नारी सृजन की सरलतम उपस्थिति के रूप में परिलक्षित होती रहती है कहीं कहंी के फुहड़पन को छोड़ दंे तो वे आनन्दित करती आयी हैं जिसे हम बचपन से पढ़ते सुनते और देखते आए हैं यदि हम यह कहें कि नारी या श्रृंगार दोनों में से किसी एक को देखा जाए तो दूसरा स्वतः उपस्थित होता है ऐसे में सृजन की प्रक्रिया वाधित नहीं होती वैसे तो प्रकृति, पशु, पक्षी, पहाड,़ पठार और पुरूश कभी कभार बन ही जाते हैं. परन्तु शीतलता या सुकोमल लता के बदले किसी को चित्रित किया जा सकता है तो वह सम्भवतः नारी ही है.

                 मेरी स्त्रियां सीता नहीं हैं कृश्ण की राधा नहीं है और न ही रानी लक्ष्मीबाई हैं ये स्त्रियां खेतों खलिहानों में अपने पुरूषों के साथ काम करने वाली जिन्हें वह अपना राम और कृष्ण समझती हैं लक्ष्मीबाई जैसे नहीं लेकिन अपनी आत्म रक्षा कर लेती हैं वही मुझे प्रेरणा प्रदान करती हैं।




                 मेहनतकश लोगों की कुछ खूबियां भी होती हैं जिन्हें समझना आसान नहीं है यदि उन्हें चित्रित करना है तो उनके मर्म को समझना होगा उनके लय उनके रस के मायने जानना होगा, उनकी सहजता उनका स्वाभिमान जो पूरी देह को गलाकर या सुखाकर बचाए हैं दो जून रूखा सूखा खाकर तन ढक कर यदि कुछ बचा तो धराउूं जोड़ी का सपना और सारी सम्पदा समेटे वो जैसे नजर आते हैं वैसे होते नहीं उनका भी मन है मन की गुनगुनाहट है जो रचते है अद्भूद गीत संगीत व चित्र जिन्हें लोक कह कर उपेक्षित कर दिया जाता है उनका रचना संसार और उनकी संरचना मेरे चित्रों में कैसे उपस्थित रहे यही प्रयास दिन रात करता रहता हूं. उनके पहनावे उनके आभूषण जिन्हें वह अपने हृदय से लगाये रात दिन ढ़ोती है वह सम्भव है भद्रलोक पसन्द न करता हो और उन्हें गंवार समझता हो लेकिन इस तरह के आभूषण से लदी फदी स्त्रियां उस समाज की भद्र मानी जाती है ये भद्र महिलाएं भी मेरे चित्रों में सुसंगत रूपों में उपस्थित रहती हैं मेरे ग्रामीण पृष्ठभूमि के होने मतलब यह नहीं है कि मैं और भी विषय का वरण अपनी सृजन प्रक्रिया के लिये नहीं कर सकता था पर मेरे ग्रामीण परिवेश ने मुझे पकड़े रखा ऐसा भी नहीं मैंने छोटी सी कोशिश भर की है उनको समझने की।

                  जिस स्त्री का मेरी कला से सरोकार है मूलतः वह रंगों के प्रति सजग होती है उसे प्रारम्भिक रंगो से गजब का लगाव है जिन्हे वह सदा वरण करती हैं,मूलतः ये मूल रंग इनके मूल में बसे होतेे हैं यथा लाल पीला नीला बहुत आगे बढ़ी तो हरा बैगनी और नारंगी इसके सिवा उसके जीवन में जो रंग दिखाई देते हैं वह सीधे सीधे कुछ अलग ही संदेष सम्प्रेषित करते हैं इन रंगो मे प्रमुख हैं काला और सफेद जिनके अपने अलग ही पारम्परिक सन्दर्भ हैं .

                  इन रंगो के साथ उसका सहज जुडाव उसे प्रकृति और सत्य के समीप रखता है, उत्सव एवं पारम्परिक मान्यताएं भी इन चटख रंगो को अंगीकृत करते हैं।

                  आज के बदलते दौर में हमारी स्त्री उतनी प्रभावित नहीं हो रही है, लेकिन अगली पीढ़ी सम्भव है तमाम बदलते सरोकारों को स्वीकारे लेकिन निकट भविष्य में मूलतः जो खतरा दिखाई दे रहा है वह यह है कि इस आपाधापी में उसकी अपनी पहचान ही न खो जाए.समकालीन दुनिया के बदलते परिवेष के चलते आज बाजार वह सामग्री परोस रहा है जो उस क्षेत्र तो क्या उस पूरे परिवेश तक की वस्तु नही है इसका मतलब यह नही हुआ कि मैं विकास का विरोधी हूं लेकिन जिन प्रतीकों से मेरा रचना संसार समृद्ध होता है उसमें आमूल चूल परिवर्तन एक अलग दुनिया रचेगा जिससे सम्भवतः उस परिवेश विशेष की निजता न विलुप्त हो जाए।
                  सहज है वेशकीमती कलाकृतियां समाज या आमजन के लिए सपना ही होंगी मेरा मानना इससे भिन्न है जिस कला को बाजार का संरक्षण मिल रहा है उससे कला उन्नत हो रही है या कलाकार सदियों से हमारी कलायें जगह जगह विखरी पड़ी हैं अब उनका मूल्यांकन हीे भी तो उससे तब के कलाकारों को क्या लाभ. आज भी जिस प्रकार से बाजार कला की करोड़ो रूपये कीमत लगा रहा है बेशक उससे कलाकारों को प्रोत्साहन मिलता है वह उत्साहित होता है लेकिन यह खोज का विषय है कि यह करोड़ो रूपये किन कलाकारों को मिल रहे हैं. कम से कम समाज ने तो इसे सुन सुन कर कलाकार को सम्मान देना आरम्भ कर दिया है कल तक जहां कला को कुछ विशेष प्रकार के लोगों का काम माना जा रहा था आज हर तबके के लोग कलाकार बनने की चाहत रखते हैं इससे कलाकार की समाज में प्रतिष्ठा बढ़ी है। 

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डॉ. लाल रत्नाकर के चित्र।

        ग्रामीण परिवेश और सबाल्टर्न समूहों के जीवन और कर्म को अपनी कला-चित्रकारी और मूर्तिकारी में अहमियत देने वाले लाल रत्नाकर हमारे समय के विशिष्ट चित्रकार हैं। उनके चित्र देखते ही पहचाने जा सकते हैं कि इन रेखाओं और रंगों के पीछे किस चित्रकार की पेंसिल और तूलिका है!   ग्रामीण परिवेश और हाशिये के समाज के जीवन और कर्म को चित्रित करते उनके चित्र अपनी रंगीन सुघड़ता से बरबस ही लोगों का ध्यान आकृष्ट करते हैं। इनमें कामकाजी स्त्रियां हैं, मेहनती पुरूष हैं, माल-मवेशी, पेड़-पौधे, खेत-खलिहान और घर-आंगन-दालान, सबके मोहक और बोलते चित्र हैं। 

रत्नाकर की औरतें सिर्फ घर तक सीमित नहीं हैं। वे खेत-खलिहान, अंगना-ओसारी-दालान और गांव-देहात के किसी भी हलके में काम करती या बतियाती हुई दिख सकती हैं। उनके पुरूष भी मेहनतकश और अपने-अपने जीवन-कर्म में निरंतर सक्रिय दिखते हैं। उनके स्त्री और पुरुष समाज के सक्रिय पात्र हैं। वे स्वस्थ और बलिष्ठ भी नजर आते हैं। नाक-नक्श और डील-डौल से वे सुघड़ हैं। गांव-देहात के अपेक्षाकृत खुशहाल खेतिहर समुदाय के वे दिखते हैं। लेकिन उनमें ग्रामीण समाज की सामंती-कुलीनता और वर्चस्व की क्रूरता नहीं है। वे सीधे-सादे मेहनतकश लोग हैं-खेती-किसानी से जुड़े परिवारों के। उनमें सामंती-कुलीनता नहीं है पर वे अभद्र और असभ्य भी नहीं हैं। उनमें ग्रामीण समाज की खेतिहर-भद्रता और सज्जनता नजर आती है। लाल रत्नाकर के अनेक चित्रों में दिखने वाले पुरूष और स्त्रियों में इस तरह के हाव-भाव और बोध के दर्शन होते हैं। 
कोविड-19 जैसी विश्वव्यापी महामारी ने न सिर्फ अपने समाज को अपितु संपूर्ण मानवता को बुरी तरह प्रभावित किया है। यह रहस्यमय महामारी मौत और विनाश की दहशत लेकर आई है। जहां आम लोग इससे बेहाल हुए हैं, वहीं दुनिया के विभिन्न देशों से संचालित कुछ बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां मालामाल हुई हैं। इनमें दवा-निर्माण और उपभोक्ता सामानों की घर-घर आपूर्ति के व्यापार में लगी कंपनियां खासतौर पर उल्लेखनीय हैं। अनेक मुल्कों के शासकों ने भी महामारी का फायदा उठाया है। तरह-तरह के नियमों और बचाव के उपायों के नाम पर उन्होंने जनता और समाज पर गैर-वाजिब पाबंदियां लगाई हैं और उनका शासन पहले से और ज्यादा निरंकुश हुआ है। ऐसे शासकों ने अपने-अपने मुल्कों में फिजिकल डिस्टेंसिंग की जगह सोशल डिस्टेंसिंग पर ज्यादा जोर दिया है। इसके लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन भी कम दोषी नहीं। उसने बहुत बाद में इस बारे में सफाई देकर सोशल डिस्टेंसिंग के शब्द का उपयोग बंद किया। लाल रत्नाकर ने अपने कुछ उल्लेखनीय चित्रों के जरिये कोविड-19 के दौर की दहशत, बेहाली, अलगाव और उदासी को चित्रित करने की कोशिश की है। 

जहांगीर आर्ट गैलरी, मुंबई में आयोजित हो रही उनके  चित्रों की एकल प्रदर्शनी के लिए हमारी शुभकामनाएं।

उर्मिलेश
वसुन्धरा गाजियाबाद



माटी की महक और मोहकता के चित्रकार

प्रोफेसर लाल रत्नाकर आज के समय के, ग्रामीण लोक परंपरा को सहेजने वाले अग्रणीय चित्रकार हैं। वह जिस लोकसमाज को रचते-बसते हैं, वह खुद चित्रकारी कला से बेदखल है। कहा जा सकता है कि जिनके लिए कला का कैनवस सीमित है, उनके लिए रत्नाकर जी अपना कैनवस बड़ा करते हैं। उन्हें कैनवस पर उतारते और संवारते हैं। उनके कैनवस का रंग चटक और भदेस का सौन्दर्यशास्त्र है। उनकी तुलिका में पुरुषवादी समाज की सताई गंवई स्त्री की बहुलता है। उनके चित्रों की एक प्रदर्शनी, ‘नारी जाति की तरंगे’ शीर्षक से लग चुकी है, जिसमें महिलाओं की दशा-दिशा पर तैलीय एक्रोलिक, जलारंगीय (वाटर कलर) एवं रेखांकन प्रदर्शित हुए हैं। वह स्वयं कहते हैं कि, ‘मुझे नारी सृजन की सरलतम उपस्थिति के रूप में परिलक्षित होती रहती है।’ वह आगे कहते हैं कि मेरी स्त्रियां सीता नहीं, कृष्ण की राधा नहीं हैं और न ही रानी लक्ष्मीबाई हैं।  ये तो खेतों, खलिहानों में अपने पुरुषों के साथ काम करने वाली हैं जिन्हें वे अपना राम और कृष्ण समझती हैं।’ 
 
रत्नाकर की स्त्री के हाथों में चूड़ियां तो हैं मगर वह हाथों का बंधन नहीं हैं। वह हाथों को सृजनशील बनातीं हैं। उनकी चूड़ियों में जो खनकार है, वह संघर्ष और जिजीविषा को प्रतिबिम्बत करती है, वह पुरुष तंत्र के नीचे दबी स्त्री को उसके मुक्ति पथ पर रंग रोगन करती आगे बढ़ रही है। रत्नाकर उस भदेस स्त्री के साथ सहचर की भूमिका में हैं। उनमें तीक्ष्णता नहीं है, स्थूलता है। वह अपनी स्त्रियों के रास्ते में उम्मीद के रंग भरते हैं। उसे अपनी चित्रकारी में शीर्ष स्थान देते हैं।
लाल रत्नाकर की चित्रकारी में उभरते जलरंग, गांव के वर्ग समूहों, संस्कृति, आधी दुनिया और उस दुनिया की निजता, नम्रता, संघर्ष, संस्कृति, पहनावे, पनघट और खेत-बारी सबको अपनी तूलिका से उकेरते हुए शहरी संस्कृति तक पहुंचाते हैं और भदेसपन से कुलीनों को सुघड़ बनाने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। कुल मिलाकर वह आज के ऐसे जरूरी चित्रकार हैं जो चित्रकला में गांव को, गांव की स्त्री को, स्त्री के सौन्दर्य, सहजता, सरलता और सत्ता को समृद्ध करते हैं। वह भदेस और सुघड़ के द्वंद्व को रचने वाले चित्रकार हैं।
रत्नाकर जी चूंकि लोकपरंपरा को सहेजने वाले चित्रकार हैं इसलिए उनके ज्यादातर चित्रों में सामूहिकता का रंगरोगन है। समूह में गांव की चौपाल है, घास काटने निकलती स्त्रियों का समूह है तो सिर पर घड़ा संभाले पनघट से लौटती सखियों का समूह है। घसिहारिनों का दल अब भी रत्नाकर की रचनाओं में स्थान पाता है। टोकरी संभालती हुई घसिहारिनें, घूंघट काढ़े समूह में गांव से बाहर निकने को उद्धत हैं।

 कहीं-कहीं सांस्कृतिक परिवेश को समेटते हुए चित्रकार ने बंशी बजाते कृष्ण, ध्यानस्थ बुद्ध, कबीर आदि पर भी अपनी कूची चलायी है तो चरवाहों और उनके पशुओं से भी संवाद किया है।

 रत्नाकर की चित्रकारी में पेड़-पौधे, जंगल और विचरते मोर हैं जिन पर उम्मीद के सूरज ने सुबह का गोला टांक दिया है। गदराई गाय ने रम्भाना शुरू कर दिया है। उसके गले की घंटी संगीत का तान छेड़े हुए है और नेपथ्य में गंवई स्त्री उसकी सेवा में रत है। कुछ चित्रों में रत्नाकर की गायों का मुख गदहे जैसा बना दिया गया जो सत्ता संचालकों द्वारा राजनैतिक विसात पर गाय को बदनाम करते हुए  बदसूरत किया जा रहा है। कहीं-कहीं स्त्री के साथ उसके पालतू जानवर हैं तो कहीं  पगुराती गायों के साथ बैठी गांव की महिलाएं, कालचक्र के पहिए को घुमा रही हैं। उनकी चित्रकारी में पूर्वांचल की लोककलाएं हैं और जवां स्त्री के घोड़े पर वीरांगना की तरह तन कर बैठने का चित्र है।  


आवाम को अधिकारहीन किए जाने और उसके यातायात के साधनों, रेल और जहाज को बेच देने की पीड़ा से लेकर अच्छे दिनों की मरीचिका को भी रत्नाकर जी ने अपनी चित्रकारी में स्थान दिया है। वहीं द्वार पर आए पाहुन का स्वागत करती स्त्री है। उनकी कर्मठ और गठीली स्त्री में उच्छृंखलता नहीं है। प्रगतिशीलता का आवरण तो है इसके बावजूद पर्देदारी बनी हुई है। घूंघट कहीं लम्बी और आगे बढ,़ चेहरे को ढंक लेती हैं तो कहीं उनकी बहुत सी युवा स्त्रियां बिना घूंघट के भी हैं।  ब्राह्मणवादी विधानों से मुक्ति की तलाश में चित्रकार लगातार अपनी तूलिका थामे आगे बढ़ रहा है। धर्म के पाखण्ड को वह भौतिक जीवन तथा चित्रकारी में नकारते चलते हैं।  
 रत्नाकर के चित्रों में स्त्रियों या युवतियों की चोटियां मोटी और लम्बी हैं। यह गंवई स्त्री का समुचित चित्रांकन है। यौवन और सिंगार के चित्रांकन में परिस्थितिजन्य उभारों का विशेष ख्याल रखा गया है। ज्यादातर स्त्रियां वस्त्रों से आवृत्त हैं। वह देह को बाजारू नहीं बनाते। वह शारीरिक वक्रों से परहेज करते हैं। इसलिए कहा जाता है कि उनके चित्रों में स्थूलता है। उसकी स्त्रियां और पुरुष भी वर्तमान बदलती दुनिया, दुनिया के फैशन परेड से थोड़ा पीछे चल रहे हैं। वहां बुजुर्ग पुरुषों की पगड़ियां, श्वेत धोती की, आकर-प्रकार में पुरबिया बाना में हैं। कुल मिलाकर वह गांव को अपनी कला पर सवार रखना चाहते हैं। 

 
समसामयिक आपदा या सत्ता द्वारा प्रायोजित आपदाओं में आमजन की पीड़ा के चित्रांकन में चित्रकार ने अपनी तूलिका चलाई है। आपदा में अवसर तलाशते शासकों के चरित्र को बदरंग किया है तो मास्क में चेहरा छिपाये, कोविड काल में, लॉकडाउन के बाद शहरों से गांवों की ओर भागते लाखों मजदूरों के पलायन की वेदना को रत्नाकर जी ने गहरी संवेदना के साथ चित्रित किया है। शहरों से गांव की  यात्रा में हर कोई समूह में भी अकेला है। मजदूरों के सिर पर घर-गृहस्थी की गठरी है तो पैरों में बेवाइयां। कहीं-कहीं जूते या चप्पलें नदारद हैं। चेहरे सपाट और आपदा के मारे, मटमैले रंगों से रंगे गए हैं। इन चित्रों में स्त्री पीड़ा को सघनता से उकेरा गया है तो दंगों या साम्प्रदायिक हिंसा में लहूलुहान होती मानवता का भी चित्रण, चित्रकार ने किया है। आपदा में अवसर तलाश रहे क्रूर सत्ता को बदसूरत चित्रों से रंगते हुए रत्नाकर ने अपनी जनपक्षधरता से कभी कोई समझौता नहीं किया है। आज के समय में हाशिए के समाज के चित्रकार के रूप में प्रो. लाल रत्नाकर का स्थान कैनवस पर सुरक्षित और संरक्षित है। वह बाजारूपन से दूर, अपने अतीत से संवाद करते, भीड़ से अलग, चकाचौंध से बिलग, एकलौते चित्रकार हैं जिनकी कला में हम माटी के रंग, गंध, उर्वरकता पांक को देख सकते हैं। वह मांसलता नहीं, मोहकता के चित्रकार हैं।


सुभाष चन्द्र कुशवाहा
बी 4/140, विशालखण्ड
गोमतीनगर, लखनऊ।
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डा0 लाल रत्नाकर की तूलिका !

डा0 लाल रत्नाकर जी अपनी तूलिका, रंगों और कैनवस के माध्यम से बने मुखर चित्रों के माध्यम से समाज के अत्यधिक गूढ़ एवं जटिल विषयों को सरल व सुस्पष्ट बना कर आकर्षक रूप से व्याख्यायित करते हैं उनकी सरलता में एक विशिष्ट संकेत अंतर्निहित होता है जो ज़रा सा गौर करते ही मुखरित हो उठता है। उनके चित्रों  से सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक विमर्श को एक  नया व उन्नत आयाम मिलता है। 


उनके चित्रों में भारतीय ग्रामीण परिवेश अपनी प्राचीन परम्परा के साथ ही साथ नवीन भाव भंगिमा में नज़र आता है। जो समाज के बहुसंख्यक वर्ग के अथक प्रयास के परिणामस्वरूप समस्त समाज के उत्तरोत्तर प्रगति का प्रतीक है। डॉ. लाल रत्नाकर भारतीय जीवन के पोर पोर में जड़ीभूत वर्ण-व्यवस्था वाली घृणित मान्यताओं के सम्बन्ध में उठे शाश्वत मानवीय प्रश्नों को अपने चित्रों के ज़रिए जीवंत  करते रहते हैं।


तथाकथित कुलीन मानसिकता वाले शोषणकारी जातीय व्यवस्था से परिपूर्ण  वर्तमान आर्थिक, सामाजिक एवं राजनैतिक व्यवस्था में विभिन्न प्रमुख संस्थाओं में अधिकांश उच्च पदों पर जमे बैठे दम्भी स्वयंघोषित मनीषियों एवं कलाकारों के द्वारा वहिष्कृत किए जाने के वास्तविक जोख़मि को उठाकर, उल्लेखनीय  हिम्मत से सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक विसंगतियों के विरुद्ध दृढ़ता से खड़े होने और लगातार खड़े रहने का जो काम उन्होंने किया है वह अनुकरणीय है। उनकी कला तथा उस में समाहित शोषित  बहुजनों के  जीवन से जुड़े तमाम पक्षों से मैं पूर्णतया अभिभूत हूं। उनकी नैतिक समझ और कुरीतियों से लोहा लेने की उनकी अदम्य क्षमता का मैं कायल हूँ। डॉ. लाल रत्नाकर के चित्रों में नारी विषयक चित्र अपेक्षाकृत अधिक संख्या में हैं। इन चित्रों के द्वारा भारतीय ग्रामीण समाज की अर्थव्यवस्था विशेष रुप से शोषित बहुजन समाज की स्त्री पर ही आश्रित है-
वह चाहे खेत-खलिहान का दृश्य हो, जुताई-बुवाई का दृश्य हो, पशुओं के साथ एवं उनके तादात्म्य का चित्र हो या फिर ग्रामीण घरों में ओखल-मूसल, आटा-चक्की पर गीतात्मक श्रमशीलता, सिलबट्टा, घसियारनें, पनिहारिनें और गांव व  खेतों में महिलाओं की आपसी बातचीत और दुख- सुख के चित्र हों, वे अपने परिवेश को जीवन्त करते हुए हमारे सम्मुख उपस्थित होते हैं। चित्रों में पात्रों की भाव-भंगिमाएं तथा उनकी वेशभूषा बहुत सारी कथा-कहानियों को व्याख्यायित करती हैं। उनके द्वारा प्रशंसनीय रूप से इन चित्रों में स्त्री- देह की भोगवादी और मनुवादी यौनिकिता से ऊपर उठकर उनके श्रम तथा कार्य-व्यापार को प्रमुखता से अंकन किया गया है।  

कला के क्षेत्र में उनका अथक सकारात्मक प्रयास एक महत्वपूर्ण आंदोलन का सूत्रधार है और मेरा विश्वास है कि उनकी कला की हिना रंग लाएगी जिसका रंग अनेकता में एकता वाले देश के अन्य सभी रंगों को उभारने में सफल होगा। 

 
डा0 वीरेन्द्र कुमार शेखर, 
पूर्व आई पी एस अधिकारी





डॉ. लाल रत्नाकर : कला को समर्पित 
 
डॉ. लाल रत्नाकर को विद्यार्थी जीवन से जानता हूं इनके स्वभाव व इनकी कला को बहुत करीब से देखा समझा हूं। यह जिस स्पष्टवादिता और बेबाकी के लिए जाने जाते हैं वही इनका अलंकार है ।आजकल कलाकार अपनी बात, रचना, (घटा’) नफा नुकसान और सामने वाले को देख कर रखते हैं, आवश्यकतानुसार  उसमें पालिश और चापलूसी का तड़का लगाकर रखते हैं पर लाल रत्नाकर से ऐसे लोग सामना करने से बचते हैं। यदि लाल रत्नाकर की कला को देखना जानना है तो उनके विचारों उनके स्वभाव को जानिए वह जो हैं उनके विचार जो हैं वही उनकी कला है।

वह जिस परिवेश से आते हैं इसकी झलक उनकी कला में स्पष्ट दिखती है । चित्रों के विषय उनका वातावरण सब कुछ उनका अपना जिया हुआ है। वह पूर्वांचल से आते हैं वहां की मिट्टी की गंध उनके चित्रों से आती है। किसी तकनीकी बंधन में बंधे बिना उन्मुक्त स्वतंत्र भाव से अभिव्यक्त करना उनकी विशेषता है। इनकी रचनाओं में नारी स्वरूप को रिष्ट पुष्ट व मर्यादित रूप में अंकित किया गया है। यही गुण उनके रंगों और रेखाओं में मिलता है। रेखा रंगों के साथ कागज व कैनवस पर खेलना उनकी रचना प्रक्रिया का एक भाग है। रचना करते-करते रेखाओं को जिस स्वतंत्रता व प्रवाह से कैनवस पर नचा देते हैं वह देखते ही बनता है। ऐसा करने में कोई संकोच नहीं है कोई बंधन नहीं चित्र खराब होने का कोई डर नहीं। चित्र में ऐसे प्रयोग कर पाना कुछ विरले कलाकारों में ही देखने को मिलता है।

वह जिस सक्रियता से कला से जुड़े हैं उसी सक्रियता से राजनीति से भी जुड़े हैं। तत्कालीन सामाजिक कुरीतियों का मुखर रूप से विरोध करते हैं। यदि किसी की कला में यह लक्षण दिखता है तो उसे उसी तरह कंडम करते हैं चाहे वह उनका अपना प्रिय मित्र ही क्यों ना हो। यह साफगोई स्पष्टवादिता मैं लाल रत्नाकर में ही देखा।

लंबे समय तक कला अध्यापन से जुड़े रहे। यह अपने विद्यार्थियों में भी कला के इसी कठोर नियम का पालन कराते। पूरे विश्वविद्यालय में एमएमएच कॉलेज गाजियाबाद का ही एक ऐसा सेंटर था जहां परंपरावादी व तकनीकी परस्त ‘वाश’ पेंटिंग सिखाई जाती थी। एक तरफ तकनीकी विधा के अनुरूप कार्य होता था तो दूसरी तरफ स्वतंत्र क्रिएटिव जो कार्य यहां होता था अन्य किसी केन्द्र पर नहीं होता था। 4/3 के 3-3 कैनवस एक साथ रखकर उस पर रचना कराना आसान नहीं है।

यहां के विद्यार्थी इस प्रयोग से स्पेस में खूब विचरण करते थे उनका चित्र धरातल 4/9 का होता था। ऐसे बड़े स्पेस के सामने खड़ा होने पर बड़े-बड़े कलाकारों के भी हाथ पैर फूल जाते हैं। विभाग की दीवारों पर विद्यार्थियों से 10-10 फीट ऊंचे जो म्यूरल बनवाए वह अनोखा है। इसी के साथ रिलीफ म्यूरल में जब यहां के विद्यार्थी कार्य करते हैं तो किसी मान्य कला महाविद्यालय की याद ताजा हो जाती। विद्यार्थियों की रचना प्रक्रिया में किसी प्रकार की छूट नहीं थी। अनुशासन पालन के साथ रचनात्मक अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान करते थे। यही कारण है कि जो विद्यार्थी यहां के इनके कलात्मक सख्त नियम का पालन करते वह टिक पाते और जो मौज-मस्ती व डिग्री मात्र के लिए आते उन्हें बीच में छोड़कर जाना पड़ जाता था। इनके समय में विभाग से बहुत सारे विद्यार्थी एक कलाकार के रूप में अपनी पहचान बनाने में सफल रहे। ऐसे ही विद्यार्थियों में मनोज बालियान, नेहा शबनम आदि प्रमुख हैं।
जब लाल रत्नाकर विभाग में टेबल पर बैठे होते अथवा किसी से बातें कर रहे होते तो उस समय वह बात करते-करते अपनी रचना करते रहते। सामने पड़े पेपर पर इंक से ड्राइंग करते व उसमें कभी कभी रंग भर देते एक रेखाचित्र को दूसरे से जोड़कर जो नया संयोजन बनाते वह इनकी रचनाओं में विशिष्ट है। इनकी इन रेखाओं में गजब का प्रवाह है। यह मन के भाव के साथ स्वतः बहती रूप लेती चली जाती है। आवश्यकतानुसार इसमें जो कहीं-कहीं पारदर्शी रंग भरा गया है वह रेखा चित्र को एक पेंटिंग का रूप प्रदान कर देता है। रत्नाकर जी के ये रेखा संयोजन बहुत ही सशक्त व कलात्मक मापदंडों के अनुरूप हैं। आत्मअभिव्यक्ति के साथ इनमें गजब का आत्मविश्वास झलकता है।


वैसे तो रत्नाकर जी विभिन्न माध्यमों में काम करते हैं जैसे जलरंग तैलरंग एक्रेलिक, वुड, स्टोन आदि। सर पर गमछा बांधकर जब बड़े-बड़े पत्थरों को ग्राइंडर से काटते हैं तो स्टोन डस्ट का गुबार उठ जाता। ऐसे मैं वहां खड़ा होना भी मुश्किल हो जाता पर वह उसी धुंध में अपनी रचना को रूप देते रहते। ऐसे में वह एक परिपक्व मूर्तिकार लगते हैं। मूर्ति रचना में वेस्ट को स्टोन से काटकर निकाल फेंकना होता है और एक चित्र में आकार में रंग भरकर रूप देना होता है। दो अलग-अलग विधाओं को एक साथ निभा पाना कम लोगों में देखने को मिलता है।

डॉ लाल रत्नाकर के चित्रों की सफल एकल प्रदर्शनियां देश के प्रमुख महानगरों मुम्बई, कोलकाता, हैदराबाद, गुड़गांव,दिल्ली आदि में लग चुकी हैं। इनके चित्र प्रसिद्ध साहित्यकारों की पुस्तकों के आवरण की शोभा बढ़ा रही हैं।


डॉ. लाल रत्नाकर ने गाजियाबाद में प्रशासन के सहयोग से अनेक राष्ट्र स्तरीय चित्र व मूर्तिकला शिविर का आयोजन किया, जिसमें देश के जाने-माने चित्रकार व मूर्ति शिल्पियों ने भाग लिया। खुले में इस आयोजन में एक मेले जैसा वातावरण बन जाता। कविनगर में कलाधाम की स्थापना हुई जहां कला कार्यशाला चित्र मूर्ति प्रदर्शनी रंगमंच का प्रदर्शन एक साथ हो सकता है। यहां बनी बड़ी-बड़ी मूर्तियां आज गाजियाबाद के प्रमुख चौराहों और पार्कों की शोभा बढ़ा रही हैं। एक व्यक्ति ने गाजियाबाद जैसे नगर में जो कलात्मक हलचल पैदा की वह वर्षों वर्षों तक लाल रत्नाकर के कलात्मक योगदान को याद दिलाता रहेगा।

डॉ. राम शब्द सिंह
पूर्व अध्यक्ष चित्रकला विभाग
जेवी जैन कॉलेज सहारनपुर
(चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय मेरठ से संबंद्ध)


डॉ0 लाल रत्नाकर : ग्राम्य जीवन की झाँकी को प्रस्तुत करता एक चितेरा चित्रकार

‘‘जीवन का अनुभव संसार मेरे लिए, मेरी कला के लिए संजीवनी जीवन के जिस पहलू को मैं अपनी कला में पिरोने का प्रयास करता हूँ, दरअसल वही संसार मेरी कला में उपस्थित रहता है. कला की रचना प्रक्रिया की अपनी सुविधाएं और असुविधाएं हैं, जिससे जीवन और कला का सामंजस्य बैठाने के प्रयास में गतिरोध आवश्यक हिस्सा बनता रहता है. यदि यह कहें कि लोक और उन्नत समाज में कला दृष्टि की भिन्न धारा है तो मुझे लगता है, मेरी कला उनके मध्य सेतु का काम कर सकती है।‘‘
                                                      -डॉ0 लाल रत्नाकर


भारत में चित्रकला की विधा अत्यंत प्राचीन है। उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी में राजा रवि वर्मा, रविन्द्र नाथ ठाकुर, अवनीन्द्र नाथ ठाकुर, नंद लाल बोस, जैमिनी राय, अमृता शेरगिल, एस.एच. रजा, एफ. एफ. हुसैन, तैयव मेहता, सतीश गुजरान, मनजीत बाबा, जतिन दास जैसे विख्यात चित्रकारों ने परम्परा को आगे बढ़ाया।
वर्तमान समय के चित्रकारों में कई चित्रकारों ने इस परम्परा को और भी समृद्ध किया है। इस क्रम में डा० लाल रत्नाकर एक महŸवपूर्ण नाम है। वे वर्तमान समय के महत्वपूर्ण चित्रकारों में से एक हैं। वे अपने समय के एक ऐसे चितेरे चित्रकार हैं जिनके चित्रों से ग्राम्य जीवन की सोंधी  गंध आती है। उनके चित्रों से लोक जीवन के वास्तविक रंग उभरते हैं। सर्वाधिक महŸवपूर्ण तथ्य यह है कि उनके चित्रों में भव्यता, अलंकरण व काल्पनिकता की जगह आम जनजीवन व जीवन के विरोधाभास का अत्यन्त प्रभावी रूप से प्रकट होते हैं। 
डॉ0 रत्नाकर के चित्रों में काल्पनिक तथा लुभावने प्रकृति की छटा, सुंदर स्त्री तथा मनमोहक प्रसंगों के दर्शन नहीं होते। उनके चित्र उस जीवन अनुभव के प्रतीक प्रतीत होते हैं जिसे चित्रकार ने स्वयं भोगा है। वे अपने भोगे हुए व देखे हुए सच को प्रभावी ढंग से व्यक्त करते हैं। उनके चित्र प्रथम दृष्टया स्वानुभूति का रेखांकन ही लगते हैं। उनके चित्रों के रंग व प्रतीकों में भी सामाजिक जीवन व लोक भावनाओं का प्रकटीकरण होता है। 


डॉ लाल रत्नाकर के चित्र निश्चित रूप से जीवन अनुभव की उपज मालूम पड़ते हैं। डॉ0 रत्नाकर वास्तविक जिन्दगी के रेखांकन को लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं। रेखाओं, रंगों और प्रतीकों का सटीक चयन करते हुए डॉ0 रत्नाकर अपने चित्रों में वास्तविक ग्राम्य पृष्ठभूमि व ग्राम्य जीवन को चित्रित करते हैं। यदि उनके चित्रों को बहुत गौर से देखा जाए तो डॉ0 रत्नाकर के चित्रों से दो अंतरंग भाव सामने आते हैं एक ग्रामीण परिवेश की पृष्ठभूमि और दो सामाजिक विषमता से उपजे उत्पीड़न की अभिव्यक्ति।
जैसा मैंने उल्लिखित किया है कि डॉ0 रत्नाकर के चित्रों की पृष्ठभूमि ग्रामीण परिवेश की है। इन चित्रों में भव्य अट्टालिकाएं, आधुनिक जीवन शैली और नगरीय जीवन-दर्षन की अभिव्यक्ति नहीं है। उनके चित्रों में खेत है, फसल है, गाय-बैल है, बैलगाड़ी है, सूप है, गायों से घिरी सामान्य महिलाएं हैं, प्रपंच में बतियाती महिलाएं हैं, जीवन यात्रा में रत स्त्री-पुरुष युग्म है, और इसके साथ ही न जाने कितनी सच्ची अभिव्यक्तियाँ हैं। उनके सारे चित्र ग्रामीण इलाके के हैं, इन चित्रों की व्याख्या से ऐसा लगता है कि कलाकार भारतीय जीवन को ग्रामीण परिवेश की उपज मानता है। वह यह मानता है कि इस देश की आत्मा गांव में निवास करती है और उसका विकास गांव से ही होकर गुजरता है। डॉ0 रत्नाकर के चित्रों में उस जीवन का वर्णन है जहां छोटी-छोटी बस्तियां हैं, घरेलू जानवर तथा सादे जीवन व्यतीत करने वाले लोग हैं, ये चित्र ग्राम्य जीवन के विषय में सोचने पर विवश करते हैं। 
डाक्टर रत्नाकर के चित्रों का सौंदर्य संकीर्ण नहीं है। ऐसा भी हो सकता था कि डॉ0 रत्नाकर प्राकृतिक छटा सुंदर महिला का चित्रण करते किन्तु वे इसके विपरीत उनका कलाकार मन सामाजिक व्यवस्था में सौंदर्य की खोज कर रहा है। वर्तमान सामाजिक व्यवस्था को चित्रित करते हुए वे किसी बड़े सामाजिक बदलाव की तमन्ना लेकर बैठे हैं, यही उनका सौंदर्य बोध है। उनके चित्र यह कहते हुए नजर आते हैं कि भारतीय समाज में सौंदर्य की स्थापना तभी हो सकेगी जब समाज की वर्तमान संरचना आमूलचूल परिवर्तन किया जाए। 
डॉ. लाल रत्नाकर ने अपने चित्रों के माध्यम से राष्ट्रीय जीवन के वास्तविक पहलू को उजागर किया है। यह एक सच्चाई है कि भारत का सामाजिक धरातल नाना प्रकार की विषमताओं से भरा पड़ा है। इन विषमताओं के दर्षन उनके चित्रों में स्पष्ट रूप से प्रदर्षित होते हैं। उनके चित्र यह कहते हैं कि जब तक सामाजिक विषमता समाप्त नहीं होती भारत आगे नहीं बढ़ सकता है। डॉ0 रत्नाकर ने भारत के विद्वानों और कलाकारों द्वारा नजर अंदाज किए गए पहलू को अपने चित्रों की विषय वस्तु बना कर एक सामाजिक दायित्व का निर्वाह किया है। डॉ0 रत्नाकर के चित्र हिंदुस्तान के विषमांगतायुक्त समाज में नव परिवर्तन का संदेश देते हैं।

उनके चित्रों के पात्र अक्सर ग्रामीण परिवेश में पुरातन परिपाटी के साथ-साथ नवोन्मेषी भाव भंगिमा में नज़र आते हैं। उनके चित्र पुराने इतिहास की पृष्ठभूमि में वर्तमान परिस्थितियों को रूपायित करने के लिए एक सेतु का काम करते हैं। डॉ. लाल रत्नाकर ऐसे कलाकार हैं जिन्होंने भारतीय ग्रामीण जीवन विषमतापूर्ण  जीवन शैली को अपने चित्रों के ज़रिए जीवंत किए हैं।
लगातार सक्रिय रहने वाले डॉ0 रत्नाकर लॉकडाउन के दौरान भी अपनी कला के माध्यम से सक्रिय रहे हैं। इस संक्रांतिकाल में भी उनकी सृजनशीलता मोथरी नहीं पड़ी।
डॉ0 लाल रत्नाकर न केवल एक चित्रकार हैं बल्कि एक कुशल वक्ता, लोक कला मर्मज्ञ व उत्कृष्ट विचारक भी हैं। उन्होंने पत्थर के कोल्हू में उत्कीर्णित लोक कला पर शोध किया है। बनारस व उनके आसपास के इलाकों में प्राप्त होने वाले पत्थर के खुदाई, रस्सी कोल्हू, पुरानी दीवारें, असवारी और मटके के चित्र, मिसिराइन के भिन्ति चित्र, और दीवारों आदि विषयों पर व्यापक अध्ययन किया है। 


महत्वपूर्ण बात यह है कि डॉ0 रत्नाकार के चित्रों के केन्द्र बिन्दु स्त्रियाँ हैं। उनके चित्रों में रंग अत्याधिक गहरे हैं। डॉ0 रत्नाकार की स्त्रियाँ मूल रंगों का वरण करती हैं। पीला, नीला, लाल उनके प्राथमिक रंग हैं। इसके अतिरिक्त उनके चित्रों में हरा, बैगनी और नारंगी इनके जीवन में उपस्थित होता है। इसके सिवा उसके जीवन में जो रंग दिखाई देते हैं, वह सीधे सीधे कुछ अलग ही संदेश संप्रेषित करते हैं। इन रंगो में प्रमुख हैं काला और सफेद जिनके अपने अलग ही पारम्परिक सन्दर्भ हैं। इन रंगो के साथ उसका सहज जुड़ाव उसे प्रकृति और सत्य के समीप रखता है। उत्सवी एवं पारम्परिक मान्यताएं भी इन चटख रंगो को अंगीकृत करते हैं। वे स्वयं भी ऐसा ही मानते हैं उनकी स्त्रियाँ सीता नहीं हैं कृष्ण की राधा नहीं है और न ही रानी लक्ष्मीबाई हैं, ये स्त्रियाँ खेतों खलिहानों में अपने पुरूषों के साथ काम करने वाली जिन्हे वे अपना राम और कृष्ण समझती हैं। लक्ष्मीबाई जैसी नहीं हैं लेकिन अपनी आत्मरक्षा कर लेती हैं। डॉ0 रत्नाकर की कई कृतियां पुस्तक प्रकाशकों की पहली पसन्द में रही हैं। न जाने कितनी साहित्यिक कृतियों के आवरण पृष्ठों पर उनकी कृतियां शोभा बढ़ा रही हैं। चित्रकार ही नहीं बल्कि एक समर्थ कलाकार, शिल्पी के रूप में भी उनकी क्षमता को गाजियाबाद जैसे शहर में जाकर महसूस किया जा सकता है जहाँ सड़कों के किनारे उनकी कृतियां और स्कल्पचर किसी को भी दिखाई पड़ जाते हैं। 
अपने ठेठ देशी अंदाज में जीने वाले और उसी तरह सोचने वाले इस कलाकार को इसलिए भी ज्यादा जाना चाहिए कि वास्तविक जिन्दगी को कैनवास पर उसी ठसक के साथ उकेरना आज की आवश्यकता भी है और कलात्मक अपरिहार्यता भी। डॉ0 लाल रत्नाकर को साधुवाद की वे अपना कलात्मक, रचनात्मक और सृजनात्मक सफर यूँ ही बरकरार रखें। 

(लेखक भारतीय प्रषासनिक सेवा के वरिश्ठ अधिकारी हैं तथा वर्तमान में विशेष सचिव, भाषा विभाग, उ0प्र0 शासन के पद पर कार्यरत हैं।)
सम्पर्क - 9412290079




डॉ.रत्नाकर की कला-यात्रा        
 

डॉ. रत्नाकर की कला-यात्रा महानगरीय सभ्यता में ग्रामीण संस्कृति की स्थापना की यात्रा है। विशेष रूप से ग्रामीण स्त्रियों की मनःस्थिति एवं मनोभावों को कैनवस पर उतारते हुए रत्नाकर जी ने चित्रकला की दुनिया में अपनी एक विशेष पहचान बनाई है। यह स्त्री-जीवन उनकी चित्रकला में निरंतर न केवल उपस्थित रहा है बल्कि गतिशील भी बना रहा है। वर्ष 1740 में बसे और 1976 में ज़िला बन जाने के बाद से ग़ाज़ियाबाद ने औद्योगिक विकास के साथ-साथ स्वयं को कंक्रीट के महानगर में तब्दील कर लिया है। लेकिन इस महानगर को  सांस्कृतिक संस्पर्श देने  का महत्वपूर्ण कार्य डॉ. लाल रत्नाकर की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है। चाहे वह ’कला भवन’ की स्थापना हो और चाहे उसमें मूर्तिकारों के राष्ट्रीय स्तर की कार्यशालाओं के आयोजन हों, उन्होंने ग़ाज़ियाबाद को कला की दुनिया में हमेशा ऊॅंचा स्थान दिलाने का प्रयास किया है।  ऐसी कार्यशालाओं से निकले हुए दर्जनों मूर्ति-शिल्प आज ग़ाज़ियाबाद के चौराहों एवं   महत्वपूर्ण सार्वजनिक स्थलों पर स्थापित हैं और शहर की कलात्मक अभिरुचि का प्रतीक बने हुए हैं। 

      डॉ. लाल रत्नाकर एक बहुआयामी कलाकार हैं। उन्होंने चित्रों के साथ-साथ रेखांकनों, मूर्ति-शिल्पों तथा दूसरे माध्यमों पर भी काम किया है। अपने रेखांकनों के माध्यम से उन्होंने ग़ाज़ियाबाद ही नहीं, देश के  कितने ही रचनाकारों की साहित्यिक कृतियों के पृष्ठ सजाए हैं। इसी प्रकार हिंदी और दूसरी भाषाओं की साहित्यिक पुस्तकों के मुख पृष्ठों को अपनी तरह का कलात्मक स्वरूप और संस्पर्श प्रदान करने में उन्होंने बहुत उदारता से अपना योगदान दिया है।             

एम.एम.एच कॉलेज, ग़ाज़ियाबाद में फाइन आर्ट के रीडर के रूप में डॉ.रत्नाकर ने नई पीढ़ी को कला की दुनिया में आगे बढ़ाने का भी दायित्वपूर्ण योगदान दिया है। वे ग़ाज़ियाबाद में कला के अकेले ऐसे प्रतिनिधि हैं जिन्हें अलग-अलग माध्यमों से पूरे देश में और देश की सीमाओं से बाहर भी जाना जाता है। उनकी कला का विस्तार धीरे-धीरे उनके सुपुत्र कुमार संतोश में भी हुआ है।            कहना न होगा कि आने वाले समय में उनकी कला निरंतर नए क्षितिजों को स्पर्श करने की संभावनाओं से ओत-प्रोत दिखाई देती है!      
शुभकामनाओं सहित!


- कमलेश भट्ट कमल ’गोविंदम्’                               
1512, कारनेशन-2 गौड़ सौंदर्यम अपार्टमेंट 
ग्रेटर नोएडा वेस्ट गौतम बुद्ध नगर 
(उत्तर प्रदेश) पिन कोड-201 318, 
मोबाइल-9968296694 kamlesh59@gmail-com

डा. लाल सहज जीवन के कुशल चितेरे हैं।


रंग साधना में पूरी तरह रचे- बसे हैं डा. लाल रत्नाकर। जब उनके चित्र सामने हों तो उन्हें कुछ भी कहने की जरूरत नहीं होती। उनकी रचनाएँ स्वयं दर्शकों से, चित्रकला प्रेमियों से संवाद करती हैं। उनके पास आधी आबादी के रंग हैं, गांव- देहात के रंग हैं, उपेक्षित गरीब, मजदूर के रंग हैं। ज्यादातर चटख। नीले, हरे, लाल और काले रंगों की बौछार है उनकी कला में। वे जिस जीवन को अपनी कला का आधार बनाते हैं, वहां भले ही असुविधाएं हों, वंचनाएं हों, अभाव हो लेकिन वह प्रकृति के ज्यादा पास है। उसमें उदासी और अवसाद को दूर ढकेलता खिला हुआ जीवन है, उसमें अपने जीवन और अपने अधिकार के लिए लड़ने की जिजीविषा है। प्रकृति में लाल और हरा रंग ज्यादा है। अभाव और वंचना में काला और नीला रंग है। संघर्ष में लाल रंग है। जाहिर है ये सारे रंग लाल रत्नाकर की रचनाओं में खुलकर आते हैं। उनकी रेखाओं की स्पष्टता, उनके रंगों का चटखपन और उनके चित्रों में अनुस्यूत अपेक्षाकृत खुले भाव जगत से उनका हस्ताक्षर बनता है। यहीं वे दूसरे चित्रकारों से अलग हो जाते हैं। वे अपने चित्रों में न अबूझ हैं, न अमूर्त, न अव्याख्येय। उनके पास छिपाने को कुछ नहीं है, इसलिए वे अमूर्तता की ओर जाना नहीं चाहते। उन्हें जो कहना है, उसे कहने में कोई संकोच नहीं है, कोई डर भी नहीं, इसलिए वे अपने रंगों की भाषा बहुत साफ रखते हैं। यह इसलिए भी कि उनके चित्र कम से कम उन लोगों से तो बात कर पायें, जो उनमें पैबस्त हैं। डा. लाल सहज जीवन के कुशल चितेरे हैं। यह सहजता ही उनके लिए संप्रेषण का आधार बनती है। उन्होंने जिस ग्राम्य सौंदर्य और स्त्री जीवन को रचने की कोशिश की है, वह एक असमाप्त संसार है, इसलिए उनकी कला में  अनन्त संभावनाएं हैं। उन्हें शुभकामनाएँ कि वे अपनी चुनी हुई इस दुनिया में निरंतर रंग भरते रहें।


सुभाष राय
प्रधान संपादक, 
जनसंदेश टाइम्स, लखनऊ




डा.लाल रत्नाकर की कला :

रत्नाकर की पेंटिंग बताती है कि कलाकार जिस परिवेश में पला बढ़ा है उसकी रचना भी उसी परिवेश को बांधे रखती है। 
कला की खाशियत भी यही होती है और कलाकार को सम्मान भी इसीलिए मिलता रहा है। 
इनकी रचनाओं को देख कर अंदाजा हो जाता है कि वो जीते कैसे हैं। पूर्वांचल के जौनपुर जिले के एक गांव में जन्में व पले बढ़े इस कलाकार ने अपने शोध का विषय चुना “पूर्वी उत्तर प्रदेश की लोक कला“ और उसमें सफलता भी प्राप्त हुई। 

रत्नाकर की पेंटिंग गांव घरों को थामें दिखती हैं। जीवन संचालित करने के लिए खेती बाड़ी, पशुपालन, बात विचार, सुख दुख, उत्सव, नातेदारी, तीज त्यौहार को अपने कैनवास पर उतार कर जब भी कला दिर्घाओं में रखते हैं तो देखने वाले चर्चा करते हैं। 
बात है सन 2001 की, कोलकाता के बिरला अकादमी आफ फाइन आर्ट में इनके शो के दौरान मुझे भी शामिल रहने का अवसर मिला था, तब मैंने पाया कि शहर में कलाकारों की संख्या सबसे अधिक है, और उनके आर्ट का स्तर भी बहुत शानदार है। तब भी रत्नाकर के काम ने दर्शकों को तो आकर्षित किया ही बायर्स ने यह स्थिति बना दी कि सभी पेंटिंग बिक गयीं। 

रत्नाकर पेंटिंग में गरिमामय तरीके से खूबसूरती को पेश करते हैं। महानगरों में बढ़े पढ़े कलाकार निश्चित रूप से अपने परिवेश को ही अपनी कला में समाहित रखते हैं इसीलिए आधुनिकता की हदें भी पार हो जाती हैं। रत्नाकर की कला  महानगर में लंबे समय से रहने के वावजूद अपने मूल समाज के ताने बाने से जुड़ी दिखती हैं। विभिन्न अवसरों पर आधी आबादी की उपस्थिति दर्शाते उनके चित्र देखने वालों को बांधे रखते हैं। 

एक बार मैं कौतुहल वश इनसे पूछा था कि आपकी रचनाओं में दिखने वाली महिलायें चुप क्यों दिखती हैं, रत्नाकर का जवाब था ‘मैंने जानबूझकर नही किया है’। मुझे समझ में आ गया कि सोच कलाकार की मूल धरोहर है और वह दिखती रहेगी। 
अगली प्रदर्शनी के लिए शुभ कामनायें। 


- जगदीश यादव
(लेखक अंतरराष्ट्रीय स्तर के फोटोग्राफर हैं जिनकी पहचान दुनिया में अपनी फोटोग्राफी की वजह से तो है ही, आजकल वह फोटोग्राफी और सामान्य संदर्भों को लेकर यूट्यूब पर निरंतर सक्रिय हैं)


कलाकार विद्रोही होता है। उसे होना ही चाहिये।

जैसे-जैसे डा. लाल रत्नाकर की पुरानी-नई कलाकियां मेरी नज़रों से गुज़रती जाती हैं कला को समझने में बिल्कुल ही नादान मेरी अक़्ल अनुभूती, आवेग, अचरज और संभावनाओं की दुनिया में डूबती चली जाती है। ये दुनिया सिखा रही है मुझसे -

कलाकार चाहे जिस भी विधा का हो, कलाकार विद्रोही होता है। उसे होना ही चाहिये। वो हर पल कुछ नया रचता है। वो इतिहास और वर्तमान की छन्नियों से भविष्य छानता है। ज़रूरत होने पर वक़्त के तेवरों को भांपते हुए उससे आगे निकलकर लोग, समाज,  देश-दुनिया के हश्र की तसवीर पेश करता है। ये कलाकार का दायित्व है। उसका धर्म है कि वो- ‘‘मूरख, शूद्र, पशु और नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी।’’ विधान स्थापित करने वाले तथाकथित धर्म की शूद्र महत्वकांक्षा को तार-तार कर दे। ‘‘वसुधैव कुटुंम्बकम’’ की चित्तकार करने वालों को सबक दे कि असल में इसके मायने क्या हैं।

पित्रसत्ता-सामंतवाद, और पूंजीवादी-साम्राज्यवाद के भेड़ियों को खुबसूरत-बेशक़ीमती, देसी-बिदेसी लिबास में सजाकर लोकतंत्र की कुर्सी पर बिठा दिया जाए अगर तो क्या उसकी फितरत बदल जाती है? ये सवाल और इसका जवाब डा. रत्नाकर की रचनाओं की ताकत बयान करता है।

ऐसे समय में जबकि नागरिकों के हक़-अधिकारों की रक्षा करने का दावा करने वाले दुनिया के महान लोकतंत्रों के संविधान सत्ता की बेड़ियों से बंधे किसी कोने में पड़े हुए हों। उनकी रक्षा-व्याख्या करने वाली अदालतें कानून की देवी की आंखों पर बंधी पट्टी नोचकर अपने मुंह और आंखों पर लपेट लेती हों तब रत्नाकार जी की निडर, बेबाक कला का तन कर खड़े होना मुबारक़ है।


वो गाय जिसका मास और खाल ‘‘श्रेष्ठ आर्य’’ खाने-पहनने, तंबू तानने के काम में लाते थे। खेती का हुनर आने के बाद उन्होंने उसे शिव की कामधेनु और कृष्ण की माता बना दिया। एक सींग पर पूरा ब्रहमांड संभालने वाली इस गाय माता की हाजरी आजकल सत्ता की कुर्सी संभालने पर लगा दी गई है। नतीजा दूध देने वाली श्वेत माता रक्त रंजित है। अपनी और अपने पालन हार किसान की लाश ढोने का सिलसिला अब और नहीं। वक़्त आ गया है पूंजी के सत्ता सिंहासन को सींगों से झटकर खुरों से तहस-नहस करने का। यही तो एक उपाय है प्रकृति के चक्र को उसकी खुद की गति से घूमने देने का। मानव जाति को, इस धरती को सुरक्षित रखने का। वर्तमान समय की ये चुनौतियां जो प्रतीकों से भारतीय लगती हैं पर जिनकी डोर विश्व पूंजीवाद के हाथ है। डा. रत्नाकर की कृति सत्ता के इस मायाजाल को एक नज़र में समझना संभव बना जाती है।  

डा. लाल रत्नाकर कहते हैं - ‘‘दुनिया जिसे आधी आबादी कहती है वही आधी आबादी मेरे चित्रों की पूरी दुनिया है।’’

पित्रसत्ता से झूझती उनकी आधा आबादी की पूरी दुनिया जितनी सादी-खूबसूरत है उतनी ही ताकतवर और तीखी भी लगी मुझे। इनकी आंखों में जहां रूढ़िवाद की चुगलखोरी है वहां उससे लड़ने के लिए सवाल भी हैं। और सबसे महत्वपूर्ण है घूंघट ओढ़े-ओढ़े उनका हर मुकाम पर लगातार परिश्रम करते जाना। नतीजतन गऊ और देवी समान औरत अब धर्म की अफीम को भी चुनौति दे रही है। सत्ता के गलियारों में अपने वोट का हिसाब मांग रही है।  

डा. रत्नाकर की कला एक ज़रूरी प्रस्ताव दुनिया के सामने पेश करती है। जहां कायनात के कल्याण के लिए किसी ख़ास नस्ल का अवतार न पूजा जाना हैं, न उसे कभी अवतरित होना है। प्रकृति पर्यावरण का रक्षक हरेक बिना किसी लिंग, जात-धर्म, देश की सीमाओं के भेदभाव के एक-दूसरे के असित्तव, इच्छा, अस्मिता को सलाम करता, धन-संसाधनों पर एकाधिकार की हवस से खाली हरेक का मुक्तिदाता हैं।  


- वीना

पत्रकार, व्यंग्यकार, डाक्यूमेंट्री फ़िल्ममेकर
11/01/2022



लोककला के अनोखे रत्न रत्नाकर जी
 
पूर्व का शीराज कही जाने वाली जौनपुर की धरती ने अनेकानेक प्रतिभाओं को जन्म दिया है। ऐसा प्रचलित है कि शर्की सुल्तानों के जमाने मे शिक्षा संस्कृति और कला की नगरी रहे जौनपुर के मदरसों और अन्य शिक्षा संस्थानों से इतने विद्वान निकलते थे कि पालकियों मे भरकर देश भर मे शिक्षण कार्य के लिए उन्हे ससम्मान ले जाया जाता था। जब जौनपुर शहर के मध्य से होकर बहने वाली गोमती नदी पर मुग़ल काल मे चुनार के बलुआ पत्थरों से शाही पुल का निर्माण किया गया तो उस पुल  के दोनों किनारों पर डोलियाँ या पालकियों जैसी संरचनाएं बनाईं गईं जो विद्वानों की पालकियों के प्रतीक के तौर पर आज भी विद्यमान हैं। फिरोज शाह तुगलक द्वारा निर्मित जौनपुर के शाही किले मे अद्भुत स्थापत्य शैली का नमूना तुर्की हमाम भी मौजूद है। अटाला और बड़ी मस्जिद बलुआ पत्थर की बनी अन्य बड़ी इमारते हैं। जौनपुर की झँझरी मस्जिद अपने तरह का अनोखा निर्माण है। जनपद के विभिन्न स्थलों, गाँव और घरों मे पत्थर के अन्य उपयोगी संयंत्र भी यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं जिनके ऊपर चित्र उकेरे हुए हैं। 

 कला, संस्कृति और शिक्षा की नगरी जौनपुर के विशुनपुर गाँव मे डॉ लाल रत्नाकर जी का जन्म हुआ। बचपन से ही चित्रकारी और पेंटिंग के प्रति रुझान रखने वाले लाल रत्नाकर जी ने फाइन आर्ट मे विधिवत अध्ययन और शोध कार्य करने के उपरांत जनवादी दृष्टिकोण से पूर्वांचल की लोक संस्कृति को कैनवस पर उकेरने का काम किया है। जौनपुर और पूर्वाञ्चल की लोककला को दुनिया के सामने लाने का महत्वपूर्ण कार्य डॉ लाल रत्नाकर जी ने किया है। 
डॉ रत्नाकर और उनकी कलाभूमि  
सन 2015 से 2017 तक मेरी पोस्टिंग जौनपुर मे रही। उनका गाँव गोमती की सहायक नदी सई के किनारे बसा है। जब डॉ रत्नाकर जी के गांव विशुनपुर जाना हुआ तो सई नदी के किनारे प्राकृतिक सुषमा से भरपूर हरे भरे खेतों के बीच बने उनके घर और आसपास स्थापित उनकी बनाई मूर्तियों को देखकर लगा कि हम किसी कलाधाम में पहुंच गए हों जहां प्रकृति और डॉ रत्नाकर जैसे दो-दो कलाकारों ने मिलकर उस लैंड स्केप को सजाया संवारा हो। जौनपुर में पोस्टिंग के दौरान बहुत सारे गांवों में जाना हुआ। एक प्राइमरी स्कूल में पत्थर का बना हुआ स्ट्रक्चर दिखा तो उसकी फोटो लेकर मैंने डॉ रत्नाकर जी को भेजा और पूछा कि ये क्या चीज है। उस संरचना की बाहरी दीवार  पर कई खूबसूरत डिजाइन्स बनी हुई थीं। डॉ साहब ने बताया कि यह पुराने समय का कोल्हू है जिसमे गन्ना पेराई का काम होता था। घरों की दीवारों से लेकर जाँता-ढेका तक पर विभिन्न कलाकृतियां उकेरने की जो लोकप्रचलित विधाएं रही हैं उनको समझने, सहेजने और समेटने का काम डॉ रत्नाकर जैसे कलाकारों ने किया है। यहाँ यह कहना प्रासंगिक होगा कि सई और गोमती नदियों के बीच बसे प्राकृतिक प्रदेश और 500 साल पहले ही इन दोनों नदियों पर पत्थर के पुल  बना लेने वाले जौनपुर जनपद की भूमि बहुत उर्वर है। जौनपुर शहर के मध्य बहने वाली गोमती नदी पर चुनार के बलुआ पत्थरों से बने शाही पुल के ऊपर ऐसी संरचनाएं बनीं हैं जीने दूर से देखने से हाथी जैसी प्रतीत होती हैं। कहा जाता है कि शरकी सुल्तानों के जमाने मे जौनपुर मे शिक्षित होकर इतने विद्वान पालकियों मे भर-भर के देश भर मे जाते थे कि उसके प्रतीक के तौर पर इन पालकियों को बनाया गया है। जौनपुर के कोने-कोने मे अद्भुत कलाकृतियां बिखरी हैं और माहौल ने डॉक्टर रत्नाकर जैसी  प्रतिभाओं के उद्भव और विकास को संभव बनाया है।

डॉ साहब से परिचय 
सन 2009 में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय 
के कावेरी होस्टल में एक कार्यक्रम के दौरान हमारी मुलाकात हुई। सामाजिक न्याय के मुद्दे पर हुए इस कार्यक्रम में एक वक्ता के रुप मे शालिम होने आए डॉ साहब के  विचारों को सुनने का अवसर मिला तो यह जानकर अच्छा लगा कि केवल कूँची और रंगों से ही नही विचारों से भी समाज के हाशिये पर रहकर जीवन के लिए संघर्षरत रहने वाले लोगों की भी वे चिंता करते हैं। मान्यवर रामस्वरूप वर्मा जी के विचारों को जीवन मे आत्मसात करने वाले डॉ रत्नाकर अर्जक संघ की विचारधारा में अडिग विश्वास रखते हैं। उन्होंने फेसबुक यूट्यूब और अन्य सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सक्रिय रखकर सांकृतिक साम्राज्यवाद पाखंड, और अंधविश्वास के विरुद्ध अभियान चला रखा है। 
विश्वविद्यालय से निकलकर सन 2010 में मेरठ में हमने नौकरी जॉइन की थी डॉ रत्नाकर वहां किसी कार्यक्रम में शामिल होने आए थे तो मेरे आवास पर आए थे। मेरी पत्नी शिवानी भी फाइन आर्ट्स में स्नातक हैं और उन्हें भी पेंटिग्स बनाना पसन्द है। फिर दो आर्टिस्ट जुटे और ड्रॉइंग रूम में देखते देखते एक पेपर पर कुछ तस्वीरें बन गईं। कूँची ब्लेड रंगों में डूबी हाथ की अंगुलियों से वे एक अध्यापक की भूमिका में भी थे। कठिन सी लगने वाली चीजों को भी वे कितनी आसानी से कैनवस पेपर पर उतार रहे थे यह देखना मेरे लिए एक नया अनुभव था। सन 2015 में मेरी पोस्टिंग उनके गृह जनपद जौनपुर में हो गयी और लगातार दो साल उनके पैतृक ग्राम क्षेत्र का ही उपजिलाधिकारी रहा। इस दौरान कई बार मिलना जुलना हुआ। एक दो बार तो वे हमारे आवास पर ही ठहरे और वहां भी एक प्राकृतिक दृश्यों से भरपूर एक पेंटिंग उन्होंने बनाई जो मेरी ड्राइंग रूम सदैव मौजूद रहती है क्योंकि वह मुझे बहुत पसंद है.
  
डॉ रत्नाकर का व्यक्तित्व एवं कृतित्व  
अपने विरोधियों और पाखण्डवादियों के धुर आलोचक पुरुष हैं डॉ रत्नाकर और जब बोलना शुरू कर दें तो किसी को भी ध्वस्त कर दें। डॉ रत्नाकर के चित्रों को ध्यान से देखिए समूह में बैठी महिलाएं वार्तालाप करती दिखेंगी। उन ग्रामीण महिलाओं के रोजमर्रा के जीवन से जुड़ी संरचनाएं भी इनके चित्रों मे विद्यमान हैं । ग्रामीण अर्थव्यवस्था के आधार गाय भैंस और ग्रामीण जीवन का समस्त जिंदादिल परिवेश उनके चित्रों में घनीभूत होकर अभिव्यक्त हुआ है। मेरी दो कविता संग्रहों ’नदियां बहती रहेंगी’ और ’कुँवरवर्ती कैसे बहे’ के आवरण चित्र बनाने वाले डॉ साहब मेरे आत्मीय स्वजन हैं। डॉ लाल रत्नाकर ने महाश्वेता देवी, शिवमूर्ती, मैत्रेयी पुष्पा, वी आर विप्लवी, कौशल पँवार एवं अन्य बड़े लेखकों के पुस्तकों के आवरण चित्र बनाए हैं। इनके साहित्यकार मित्रों की एक लंबी फेहरिस्त है। वाणी और राजकमल जैसे हिन्दी भाषा साहित्य के बड़े प्रकाशकों ने अपने पुस्तकों के आवरण चित्र के लिए डॉ रत्नाकर के चित्रों का चीन किया है। हंस प्रकाशन और अन्य कई पत्रिकाओं ने अपने आवरण चित्र का रेखांकन रत्नाकर जी से करवाया है। देश की सभी मशहूर कला वीथिकाओं मे उनके चित्रों की प्रदर्शनियाँ लगाई जा चुकी हैं। अपने अल्हड़ काम के  जरिए अपनी अलग पहचान बनाने वाले डॉ लाल रत्नाकर को कई पुरस्कार भी मिल चुके हैं। सख्त और आलोचक प्रकृति के होने के बावजूद डॉ रत्नाकर जी संबंधों को निभाना जानते हैं।   
डॉ रत्नाकर की बनाई पेंटिंग्स को विभिन्न प्रतिष्ठित संस्थानों जैसे सीसीएमबी हैदराबाद, होटल इन्टरकॉन्टिनेन्टल, नई दिल्ली, नेस्ले इंडिया, नगर निगम गाजियाबाद और अन्य संस्थाओं मे लगाया है। उनके द्वारा कई पत्रिकाओं जैसे बीबीसी अनलाइन हिन्दी पत्रिका, नया ज्ञानोदय, हंस, कथादेश, पाखी, इत्यादि मे इलसट्रेशन का काम किया गया है। देश के नामचीन अग्रणी प्रकाशनों ने महान साहित्यकारों की कृतियों के कवर पेज पर डॉ रत्नाकर के चित्रों को लगाकर उनकी रचनात्मकता का सम्मान किया है। गोदान, गबन, रतिनाथ की चाची (राजकमल प्रकाशन), सालगिरह की पुकार-महाश्वेता देवी, लेबर रूम (राधाकृष्ण प्रकाशन) जैसे बड़े लेखकों और प्रकाशनों की किताबों के आवरण चित्र उनमें प्रमुख रूप से उल्लेखनीय हैं। 
हंस, अक्षर पर्व, वर्तमान साहित्य, साहित्य अमृत जैसी पत्रिकाओं मे आवरण चित्र और इलसट्रेशन का काम डॉ साहब द्वारा किया गया। डॉ रत्नाकर के चित्रों की प्रदर्शनी देश के प्रमुख ललित कला संस्थानों मे लगाई जा चुकी हैं जिनमे प्रमुख हैं ललित कला अकादमी नई दिल्ली 2011, जहांगीर आर्ट गैलरी मुंबई 2008, बिरला अकेडेमी आफ आर्ट एण्ड कल्चर 2008, प्रेस क्लब ऑफ इंडिया 2007 मे कला प्रदर्शनी। 
डॉ रत्नाकर जी ने अपने गाजियाबाद स्थित अपने घर मे ही एक वर्कशाप बना रखा है जहां वह रेटायरमेंट के बाद अपने कला साधना का कार्य पूर्ण मनोयोग से करते हैं। उन्होंने पेंटिंग और अन्य कलाओं का संस्कार अपने बच्चों को भी दिया है। उनकी बेटी डॉ श्रद्धा एक अच्छी कवयित्री हैं। उन्हें आगामी प्रोजेक्ट्स और कला प्रदर्शनियों के लिए मेरी हार्दिक शुभकामनाएं। 

- डॉ.राकेश कबीर

संदर्भ 
कश्यप, ओमप्रकाश (2016) आम जीवन से जुड़ी कला, इन डब्लूडब्लूडब्लू.फॉरवर्डप्रेस.इन ऑन 7 जून 2016. 
मासूम, एस एम (2011) डॉ लाल रत्नाकर पीएचडी वर्क ऑन फोक आर्ट ऑफ ईस्टर्न उत्तर प्रदेश, इन डब्लूडब्लूडब्लू.जौनपुरसिटी.इन, ऑन 14 मई 2011.

डॉ लाल रत्नाकर ज़मीन से जुड़े कलाकार 

जहां ग्राम्य-जीवन तथा आधी आबादी मौजूद है।

किसी भी कला की खूबी यह होती है कि देखने वाला उससे अपना जुडाव महसूस करे और वह यथार्थ के करीब हो द्य डॉ. लाल रत्नाकर जी ने जितनी खूबसूरती से ग्राम्य जीवन और आधी आबादी को चित्रित किया है, वह अद्वितीय और अद्भुत है। उनके चित्र इतने जीवंत और अर्थवान हैं कि गाँव देहात से जुड़े लोग उन चित्रों में खुद को या अपने पुरखों को देखते हैं।

डॉ रत्नाकर जी ज़मीन से जुड़े होने के कारण ग्राम्य-जीवन तथा आधी आबादी की दिनचर्या से पूरी तरह वाकिफ हैं । इसलिए उनके चित्र यथार्थ को प्रदर्शित करते हैं । उनकी पूरी कला साधना ग्रामीण नारी की ही परिक्रमा करती प्रतीत होती है । उनके चित्रों में कहीं गृह कार्य में व्यस्त गृहणियाँ नजर आती हैं तो कहीं पानी लाती पनिहारन । किसी चित्र में ढोल बजाकर उत्सव मनाती महिलाएं नज़र आती हैं तो कहीं गंभीर विमर्श करती मातृशक्ति । चटख रंगों से सजे चित्र बरबस ही ध्यान अपनी और आकर्षित करते हैं।  
आपके चित्रों की एक विशेषता यह भी है कि उनकी पृष्ठभूमि में ग्राम्य जीवन की दैनिक उपयोग की वस्तुएं और खेती किसानी के उपकरण तथा पशु नज़र आते हैं। मुंशी प्रेमचंद की तरह आपने शहरों की चकाचौंध से किनारा करते हुए ग्रामीण परिवेश से ही अपने चित्रों की विषय वस्तु चुनी है।
व्यक्तिगत रूप से मैं डॉ रत्नाकर जी के चित्रों से इतना प्रभावित हूँ कि अपनी 07 मौलिक पुस्तकों के आवरण पृष्ठ इन्हीं के चित्रों से बनवाए, जो बहुत सराहे गए हैं । इतना ही नहीं उनके चित्रों से प्रेरणा ग्रहण करते हुए मैंने आधी आबादी को लेकर दो दोहा संकलनों का सम्पादन किया । पहला ‘आधी आबादी के दोहे’ जिसमें देशभर से 22 महिला दोहकारों के दोहे संकलित किये गये और दूसरा ‘दोहों में नारी’ जिसमें देश के श्रेष्ठ दोहकारों के नारी के विभिन्न रूपों पर लिखे गये दोहे संकलित किये गये । इन दोनों कृतियों के आवरण भी डॉ लाल रत्नाकर जी ने उपलब्ध करवाए जो प्रासंगिक और विषयानुकूल होने के कारण बहुत पसंद किये गए।

डॉ रत्नाकर जी, अपने दौर के श्रेष्ठ चित्रकारों में से एक हैं। आधुनिकता की दौड़ में ग्रामीण जीवन से भी जो चीजें गायब होती जा रही हैं, वे आपके चित्रों में भावी पीढ़ी देख सकेगी। इस लिहाज से आप बहुत-सी वस्तुओं के संरक्षण का कार्य भी कर रहे हैं।
बहुत बहुत शुभकामनाएं !

 
रघुविन्द्र यादव 
प्रकृति-भवन, नीरपुर, 
नारनौल (हरियाणा)-123001 
9416320999




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THE UNCOMMON PAINTER 

We all know about Mr. R. K. Laxman's Common Man, but very few of us know about the uncommon man of Ghaziabad. He is Dr. Lal Ratnakar, the painter born on 12th August 1957 in a remote village of Jaunpur district         ( UP ) near Varanasi.

Like folk artists he too had started painting the fascinating motifs of birds, animals, trees and creepers on walls and doors of mud houses. But no folk artist has dared to do Ph. D. in folk art. This uncommon man has. 

Naturally his source of inspiration is rural India, especially women. He believes village women are more transparent, more expressive than man. I believe Dr. Lal Ratnakar's work too is expressive and poignant.


 In his canvasses, you will find women with large doleful eyes and vacant gaze, in a situation where there is not a glimmer of hope. He has painted them with feelings and flair, deleting sentimentality. This is insider's view of rural India that also reveals the passion and fire behind every canvass. I mean more than a thousand art works the artist has made.

 If one looks at them seriously, he will find that every painting wants to tell you something personal. May be about love, about a tragedy, or may be about the monsoon that has betrayed us all.

 Dr. Lal Ratnakar's canvasses capture all these and much more with vibrant colors and unique division of space. For example, the lady in blue. This stylized work has 'frame within a frame' composition. It creates mystifying effect in the mind of onlooker, while bold combination of colors ( green and blue, purple and green ) makes other works too  surprisingly beautiful to look at.

 It is said that the most essential ingredients that make an artist great are : 

A- Never ending urge to explore. 

B- Tenacity of purpose. 

C- One point agenda in life. 

No wonder why Dr. Lal Ratnakar looks taller than his contemporaries.

 


AABID SURTI

11 OCT. 08      

 

 



Cool,serene, blue,green, - Passionate, assertive, orange, red - It is She - rural woman in many moods, colours shapes and faces - Ratnakar with his bold and powerful drawings along with the vibrant colours have encapsuled the glorious panoply that is Women, inhis own words "the true ambassodar of our culture and traditions"

Simplicity personified, jovial Ratnakar is an utmost organized person - Robust, swift, deft and definite when the painter in him is at the canvas and calm, level headed, cool and organized when he administrates.

A painter close to my heart - I wish him success, wish to see him works for years to come with the same energy and force.

 


Tarak Garai (sculptor)

15th Oct.2008.

 





लाल रत्नाकर जाने-माने कलाकार हैं। वे न सिर्फ उच्च कोटि के चित्रकार हैं बल्कि श्रेष्ठ मूर्तिकार भी हैं। उनसे मिलकर ही उनके बहुआयामी व्यक्तित्व को समझा जा सकता है। उनके बनाए चित्रों में चटक रंगों और सीधी रेखाओं के प्रयोग से ग्रामीण जीवन और ग्रामीण स्त्रियों के विविध पहलुओं को बेहद खूबसूरती से व्यक्त किया गया है। गाय भी उनके चित्रों में अपने विविध अर्थों में दिखाई देती है। वे सामाजिक - राजनीतिक विषयों को भी इन्हीं प्रतीकों के माध्यम से व्यक्त करते हैं ।  वे सच्चे अर्थ में लोक जीवन के अद्भुत चितेरे हैं ।इससे भी अधिक वह सच्चे और अच्छे इंसान हैं।


आलोक यादव
क्षेत्रीय भविष्य निधि आयुक्त, दिल्ली




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डॉ. लाल रत्नाकर : रंगों के जरिये सांस्कृतिक अधिपत्यवाद के

विरुद्ध मोर्चाबंदी

- ओमप्रकाश कश्यप

मेरा लक्ष्य हमेशा यथार्थ के जादू को पकड़कर उसके सत्य को पेंटिग में ढालना होता है. यथार्थ को केंद्र में रखकर, ताकि वह चीज दिखाई दे जो दिखाई नहीं दे रही है. यह सुनने में विरोधाभासी नजर आता है, मगर यथार्थ से असल में हमारे अस्तित्व का रहस्य प्रकट होता है. 
- कृमक्स बेकमन्न

विश्व की जितनी भी कलाएं हैं वे लोक की उपज हैं. उनका सृजन लोक.भावनाओं और स्मृतियों को सहजने के लिए लोक.कलाकारों ने लोक संवेदनाओं को सीधे महसूस करते हुए, एकदम सहज भाव से किया था. उसके पीछे न तो कोई लाभ कमाना थी, न किसी प्रकार की यश.लिप्सा न ही उनके सर्जकों को लगता था कि वे कुछ विशिष्ट कर रहे हैं. कलाएं उनके रोजमर्रा के जीवन का हिस्सा थीं. आगे चलकर सामंतवाद का उदय हुआ, विलासिता और वैभव प्रदर्शन के नाम पर कलाएं राजदरबारों, सामंतों और नबावों की हवेलियों तक सिमटने लगीं, तो स्वाभाविक रूप से लोक से उनका नाता भी कटने लगा. उन्हें वापस लोक के करीब ले जाने का श्रेय यूरोपीय नवजागरण को जाता है. लियानार्दो दा विंसी, माइकल एंजियलो, राफेल आदि ने चित्रकला को लोक से दुबारा जोड़ने की कोशिश की. लेकिन उसे सही मायने में जनता के दुख.दर्द का हिस्सेदार बनाने का काम वान गॉग जैसे अभिव्यंजनावादी चित्रकारों ने किया। कच्चेमाल के रूप में उन्होंने समाज से जितना ग्रहण कियाए उसे नई दृष्टि देते हुए, कहीं अधिक प्रभावशाली बनाकर वापस लौटा दिया।
  
वान गॉग उन्नीसवीं शताब्दी के यूरोपीय पुनर्जागरण के दौर का चित्रकार था. अनियोजित मशीनीकरण की त्रासदी और खुद को मालिक.सर्वेसर्वा मानने वाले पूंजीपतियों की लूट को उसने अपनी आंखों से देखा था. उनीसवीं शताब्दी के उस महानतम चित्रकार ने  'आत्म' की खोज हेतु पहले पादरी का चोला पहना। चर्च का माहौल उस विद्रोही चित्रकार को जमा नहीं तो पैंटिंग पर उतर आया. कला उसके लिए धर्म का विकल्प थी. या यूं कहो कि सहज.सकर्मक मानवीय जीवन के लिए वह धर्म को अनावश्यक और अनहेतुक मानता था. जीवन में साढ़े आठ सौ चित्र बनाने वाला वह चित्रकार भीषण गरीबी में अपने दिन बिताता रहा. लेकिन कभी किसी ईश्वर के आगे गिड़गिड़ाया नहीं, न ही अपने पूर्ववर्ती और समकालीन अधिकांश ख्यातिनाम चित्रकारों की तरह कोई धार्मिक चित्र बनाया। जबकि वैसा करके प्रसिद्धि बटोरना उसके लिए बहुत आसान था. गॉग के चित्रों में खान मजदूर, जूते, प्याज जैसे अतिसाधारण पात्र और वस्तुएं हैं. जिनके बारे में हम मान लेते हैं कि उनमें कला हो ही नहीं सकती। लेकिन यहां कलाकार की दृष्टि है जो बेजान.बेकार कही जाने वाली वस्तुओं को भी कला का रूप दे देती है. उसका मानना था कि महान कृतियां छोटी.छोटी वस्तुओं को साथ ले आने से बनती हैं. कदाचित इसलिए वह उन चीजों का चितेरा बना रहा जिन्हें छोटा और हेय समझकर उपेक्षित कर दिया जाता है.गरीब मजदूरों का जीवन कांटों से भरा होता है अभिजात्य जीवन में उनकी उपयोगिता को दर्शाने के लिए उसने गमलों में गुलाब के बजाए नागफनी को खड़ा कर दिया। गॉग की आलू खाते हुए मजदूर परिवार की पेंटिग आज भी दुनिया के सबसे यथार्थोन्मुखी चित्रों में से है 

सवाल है कि भारतीय आजादी प्लेटिनम जुबली वर्ष में गॉग की एकाएक याद क्यों वह इसलिए कि भारत में आजादी के समय जो सपने देखे गए थे, उन्हें समझने और पूरा करने के लिए गॉग जैसा ही दृष्टिकोण चाहिए, ताकि हाशिये पर पर पड़े लोग समाज और सरकार के विमर्श के केंद्र में आ सकें। इस मामले में भारतीय चित्रकार कहां टिके हैं, भारत में कला को आम जन के करीब ले जाने की सही शुरुआत आजादी के बाद दिखाई पड़ती है. उसमें भी बीते तीन.चार दशक भारतीय चित्रकला के विकास की दृष्टि से ज्यादा महत्वपूर्ण हैंण् यही वह दौर है जब सही मायने में भारतीय कला के केंद्र में आम.चरित्रों की आमद होती है. हालांकि सर्वहारा जीवन के कटु यथार्थ को गॉग जैसे ख्यातिनाम कलाकारों ने जिस खूबी के साथ साधाए भारतीय चित्रकार वैसा नहीं कर पाए, फिर भी कुछ ऐसे चित्रकार हैं जिन्होंने अपनी सीमाओं में रहते हुए इस लक्ष्य को साधने की भरसक कोशिश की है. डॉ. लाल रत्नाकर उन्हीं में से एक हैं. 

आज भी भारत की दो.तिहाई जनता गांवों में बसती है वहीं विभिन्न कलाओं का जन्म हुआ था डॉ.रत्नाकर खुद उसी पृष्ठभूमि से आते हैं इस तरह उनके चित्र, गांव की धरोहर को, वहां तक वापस लौटा देने के उद्यम का परिणाम हैं. उनके चित्रों में खेत, खलिहान, पशु.पक्षी, हल.बैल, पेड़, सरिता, तालाब अपनी संपूर्ण सौंदर्य चेतना के साथ उपस्थित हैं. चित्रकला के माध्यम से वे उस स्वत्व को खोजने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं जो नागरी जीवन की भागमभाग में कहीं बहुत पीछे छूट चुका है. 

अपने चित्रों में उन्होंने हाशिये के चरित्रों को पूरा स्थान दिया है. उन लोगों के संघर्ष और अस्मिता बोध को उभारा है जो बहुसंख्यक होकर भी सत्ता और अवसरों की भागीदारी की दृष्टि से विपन्न है. उनके पात्र किसान, मजदूर, घास छीलती, गाय.भैंस दुहती, खाना पकाती वे स्त्रियां हैं, जिनके सपने ही धर्म, परंपरा और संस्कृति की बलि चढ़ जाते हैं. अभिजात तबके के सुखामोद की खातिर जनसाधारण के सपनों को दाव पर लगा देने की भारत में पुरानी संस्कृति रही है. बीते कुछ वर्षों में देश की हवा पहले से कहीं ज्यादा विषैली और उदंड हुई है. धर्म और राजनीति तो पहले से ही एक.दूसरे के पिछलग्गू थे, अर्थतंत्र था जो धर्म से सुरक्षित दूरी बनाकर, राजनीति का अपने स्वार्थ के लिए अवसरानुकूल इस्तेमाल करता था. बीते सात.आठ वर्षों में वह धार्मिक.राजनीतिक शक्तियों के साथ गठजोड़ कर देश की हवा को और ज्यादा विषैली बनाने में लगा है. 


वर्तमान में उसे ऐसे सियासतदानों का लाभ मिला है जो समाज को छोटे.छोटे खानों में बांटकरए बिना कुछ करे ही, परजीवी की तरह समाज के संसाधनों का लाभ उठाते हुए आए हैं. यही कारण है भारतीय समाज में पिछले कुछ वर्षों में आर्थिक और सामाजिक विषमता की खाई पहले से कई गुना चौड़ी हुई है. ऐसे जनविरोधी माहौल में एक कलाकार को जो करना चाहिए, अपनी कला के साथ डॉ. रत्नाकर उसके लिए पूरी तरह समर्पित हैं. इसके लिए बीते कुछ वर्षों के दौरान बने उनके चित्रों को देखा जा सकता है. 
देश में जातिए धर्म और संप्रदाय आधारित विघटन की स्थिति वर्तमान सियासतदानों के लिए उपयुक्त है. इसके लिए उन्होंने गाय जैसे प्रतीकों का सहारा लिया है. डॉ.रत्नाकर ने बीते कुछ वर्षों में ऐसे अनेक चित्र बनाए हैंए जो इस षड्यंत्र के प्रति कलाकार के रचनात्मक विरोध को दर्शाते हैं. गाय जो भारतीय जनसमाज की सहज.स्वाभाविक जीवनधारा का हिस्सा;चित्र एक थी, वह इन सियासतदानों के स्वार्थ की बलि चढ़कर;चित्र दो समाजीकरण की अपनी भूमिका में किस प्रकार मृतपाय;चित्र तीन चुकी है, इसे उनकी हालिया चित्रमाला द्वारा समझा जा सकता है. 

धर्म और संप्रदाय के नाम पर हो रही घिनौनी राजनीति को जैसे डॉ.रत्नाकर ने जिस शिद्दत के साथ अपने चित्रों के जरिये उजागर किया है, वैसा शायद ही कोई चित्रकार अपने चित्रों के माध्यम से कर पाया है. अपने मोर्चे पर जूझते हुए वे कदाचित अकेले चित्रकार हैं. यह हाशिये के समाज के प्रति प्रतिबद्धता के बिना असंभव है. यदि कोई इसे राजनीति कहता है तो कहता रहे. आखिर राजनीति का उद्देश्य भी जो वंचित वर्ग को समाज की मुख्य धारा में लाना है.

धर्म को भारतीय समाज की प्राणवायु कहा गया है. धर्म के नाम पर गढ़े गए प्रतीक और धर्मग्रंथ भारतीय जनमानस के मनोमस्तिष्क में इतने गहरे रम चुके हैं, अब बिना उनकी मदद के भारतीय समाज के अस्तित्व की कल्पना भी नहीं की जा सकती। चूंकि धर्म में अलौकिक प्रतीकों को केंद्र में रखा जाता है, उन्हें इतना ऊपर उठा दिया जाता है, कि वे आम आदमी की समझ से परे और उसके लिए अनुपयोगी बनकर रह जाते हैं. यहां तक कि उनके बारे में न जानते हुए भी उनपर विश्वास करनाए अथवा विश्वास होने का दिखावा करना, उसकी मजबूरी हो जाती है. चूंकि धर्म में संदेह और सवालों के लिए कोई गुंजाइश नहीं होती, इस कारण धर्म, उसके अनुपालन और प्रचार.प्रसार में लगी शक्तियों के निरंकुश होते देर नहीं लगती। 
डॉ. रत्नाकर ने भी धार्मिक प्रतीक के रूप में स्थापित कृष्ण के विविध रूपों का चित्रण कियाए लेकिन उनके कृष्ण देवता न होकर श्रम.संस्कृति से उभरे लोकनायक हैं उनकी तुलना ऋग्वेद के कृष्ण से की जा सकती है जो अपने दस हजार सैनिकों के साथ इंद्र को टक्कर देते हैं डॉ.रत्नाकर के कृष्ण गाय चरा सकते हैं दूध दुह सकते हैं और अपनों को संकट से बचाने के लिए ष्गोवर्धन जैसी विकट जिम्मेदारी भी उठा सकते हैं 
डॉ. रत्नाकर के चित्रों की सबसे बड़ी खूबी है उनके चित्रों में आधी आबादी की सशक्त मौजूदगी भारत के अभिजात्य परिवारों में स्त्री भले ही चाहरदीवारी की कैद में रही हो, किसान और मेहनतकश परिवारों में उसे हमेशा ही परिवारों के पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करना पड़ा है डॉ.रत्नाकर के स्त्री.पात्र औसत भारतीय स्त्री का प्रतिनिधित्व करते हैं. वह जो गांव में रहती है. शहरी चमक.दमक को विचलित हुए बिनाए आश्चर्यभरी दृष्टि देखती है और पितृसत्तात्मकता के माहौल में पलने के बावजूद जैसे.तैसे अपने अहंबोध को बचाए रखती हैं. 
 
चित्र ; एक

डॉ. रत्नाकर के चित्रों में यह "आधी आबादी" आधे से अधिक स्पेस घेरती है. यह किसी कृपाभाव के साथ नहीं है. बल्कि ग्रामीण स्त्री के सपनों और स्वेद.बिंदुओं के प्रति एक कलाकार की विनम्र श्रद्धांजलि जैसा कुछ है. आप उनके चित्रों में काम करतींए मंत्रणा करतीं, घर.परिवार के लिए सपने बुनती स्त्रियों से साक्षात कर सकते हैं. ग्रामीण स्त्री के जितने विविध रूप और जीवन.संघर्ष हैं, सब उनके चित्रों में समाए हुए हैं. वे खेतिहर है, अवश्यकता पड़ने पर मजदूरी भी कर लेती है. उसका जीवन रागानुराग से भरपूर है. उसमें उत्साह है और स्वाभिमान भी, जिसे उसने अपने परिश्रम से अर्जित किया है. कमेरी होने के साथ.साथ उसकी अपनी संवेदनाएं हैं. मन में गुनगुनाहट है. गीत.संगीत, नृत्य और लय है. वे ग्रामीण स्त्री के सहज.सुलभ व्यवहार को निरा देहाती मानकर उपेक्षित नहीं करते। बल्कि ठेठ देहातीपन के भीतर जो सुंदर.सलोना मानस् है, अपनों के प्रति समर्पण की उत्कंठा है. उसे चित्रों के जरिये सामने ले आते हैं. यह हुनर विरलों के पास होता है. इस क्षेत्र में डॉ. रत्नाकर की प्रवीणता असंद्धिग्ध है.

बाजार ने स्त्री देह को विज्ञापन की वस्तु बना दिया है. डॉ. रत्नाकर के चित्रों में स्त्री.देह तो है, लेकिन वे देहवाद से परे सर्वथा हैं. राजा रविवर्मा ने भी गठीले और भरे देह वाली स्त्रियों के चरित्र बनाए हैं. लेकिन उनके अधिकांश चित्र या तो अभिजन स्त्रियों के हैं या फिर उन देवियां के, जिनका श्रम से कोई वास्ता नहीं रहता। वे उस वर्ग का प्रतिनिधित्व करती हैं, जो परजीवी है. दूसरों के श्रम.कौशल पर जीवन जीता है. कह सकते कि रविवर्मा के चित्रों में वे स्त्रियां हैं, जिन्हें बाजार ने बनाया है. चाहे वह बाजार उपभोक्ता वस्तुओं का हो अथवा धर्म का. डॉ. रत्नाकर की स्त्रियां बाजारवाद की छाया से बहुत दूर हैं. उनके लिए देह जीवन.समर में जूझने का माध्यम है. इस बारे में उनका कहना हैए मेरे चित्रों के पात्र अपनी देह का अर्थ ही नही समझते उनके पास देह तो है, परंतु देह और देहवाद का अंतर वे समझ नहीं पाते गौरतलब है देह और देहवाद के बीच वही अंतर है जो असली और नकली के बीच होता है. बकौल डॉ. रत्नाकर, बाजारीकरण देह में लोच, लावण्य और आलंकारिकता तो पैदा करता है, मगर उससे स्त्री की अपनी आत्मा गायब हो जाती है. वह निरी देह बनकर रह जाती है. मैंने अन्य चित्रकारों द्वारा चित्रित आदिवासी भी देखे हैं. उनके चित्रों के आदिवासी मुझे किसी स्वर्गलोक के बाशिंदे नजर आते हैं. ऐसे लोग जो हर घड़ी बिना किसी फिक्र के आनंदोत्सव में मग्न रहते हैं. उसके अलावा मानो कोई काम उन्हें आता नहीं है.


वे आगे बताते हैं, मुझे यह कहने में जरा भी अफसोस नहीं है कि मेरे बनाए गए चित्रों के पात्र सुकोमल स्त्री तथा बलिष्ठ पुरुष का प्रतिनिधित्व करते हैं, उन स्त्री.पुरुषों का भी प्रतिनिधित्व करते हैं, जिन्होंने अपना रूप.सौंदर्य खेत.खलिहानों के धूप.ताप में निखारा है. मुझे उस यथार्थ के सृजन में सुकून प्राप्त होता है, जो चिंतित अथवा बोझिल है. उन स्त्रियों की वेदना उकेरने में भी मुझे शांति की अनुभूति होती है, जिनके पुरुष अपना सारा बल और तेजए रोग, व्याधि, कर्ज, जमींदारों के अत्याचार और समय के हवाले कर चुके हैं.  
पिछले कुछ वर्षों में डॉ. रत्नाकर की कला के सरोकार और भी व्यापक हुए हैं, वे संभवतः अकेले ऐसे चित्रकार हैं जो सामाजिक न्याय की अवधारणा को चित्रों के जरिए साकार कर रहे हैं. यह समझते हुए कि सांस्कृतिक दासता, राजनीतिक दासता से अधिक लंबी और त्रासद होती है. उसका सामना केवल और केवल जनसंस्कृति के सबलीकरण द्वारा संभव है. उन्होंने परंपरा से हटकर ऐसे लोक.उन्नायकों के चित्र बनाए हैं, जो भारतीय बहुजन के वास्तविक नायक रहे हैं. जिन प्रमुख बहुजन दार्शनिकों के चित्र उन्होंने बनाए हैं, उनमें नास्तिक विचारक कौत्स, आजीवक मक्खलि गोसाल, अजित केशकंबलि, पौराणिक सम्राट महिषासुर आदि प्रमुख हैं.
 
कहा जाता है कि कला हमें खुद को जानने का अवसर देती है. एक बार जब हम कला को जान लेते हैं, तो वह हमारे हृदय में समा जाती है. वह अपने समय की हलचलों का जीवंत दस्तावेज होती है. डॉ. रत्नाकर के चित्र भी अपने समय.समाज की हलचलों को सहेजे हुए हैं. बीते कुछ वर्ष से देश में फासीवादी ताकतों का असर बढ़ा है. सत्ता के शिखर पर आसीन होकर वे करीब.करीब बेलाम आचरण कर रही हैं. समय.समय पर बनाए गए चित्रों और रेखांकनों ने डॉ. रत्नाकर ने देश के सांस्कृतिक.राजनीतिक पटल पर हो रहे विरुपण को बहुत अच्छे से अभिव्यक्त किया है.


बीते वर्षों में कोरोना महामारी की मार ने जन.जीवन को तबाह करके रख दिया है. यह वह दौर है जब सबसे ज्यादा उद्योग धंधे बंद हुए. शहरों में छोटे.छोटे  उद्यम चला रहे लोगों को सब.कुछ बंद कर गांव की ओर रुख करना पड़ा, भारी संख्या में मजदूर पलायन हुए. गौरतलब है कि महामारी का प्रकोप उन्हीं देशों में अधिक देखने को मिला है, जहां पूंजीवाद चरम पर है. विसंगति देखिए कि महामारी से जहां नीचे के तबके का जन.जीवन पूरी तरह से हिल चुका है, वहीं शीर्ष पूंजीपति वर्ग की सकल संपदा में बीते सात.आठ वर्षों में 300 प्रतिशत से भी अधिक की वृद्धि हुई है. आर्थिक असमानता में पांच गुने से ज्यादा की वृद्धि हुई है. महामारी और पूंजीवाद और छद्म राष्ट्रवाद के गठजोड़ को भी डॉ. रत्नाकर ने अपने चित्रों में जगह दी है.

कहने की आवश्यकता नहीं कि डॉ. रत्नाकर ने अपने चिंत्रों के माध्यम से समाज में सांस्कृतिक.राजनीतिक अधिपत्यवाद के विरुद्ध उभरती चेतना को जिस तरह से मुखर अभिव्यक्ति दी है, वैसा कोई दूसरा उदाहरण नजर नहीं आता. यही बड़े कलाकार की पहचान है. यही विशेषता उन्हें हमारे समय का महान कलाकार बनाती है.
 

ओमप्रकाश कश्यप
जी.571ए अभिधाए गोविंदपुरम्
गाजियाबाद-201013


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ग्रामीण भारत का आईना हैं डॉ लाल रत्नाकर के चित्र 

अपने इस भारत देश को गांवों का देश कहा जाता है। कतिपय इन्हीं कारणों से बापू ने भी कहा था कि भारत का भविष्य गांवों में ही है। किन्तु क्या आज़ादी के 75 सालों के बाद आज हम इसी बात को उसी शिद्दत से दुहरा सकते हैं ? तो निश्चित तौर पर हमारा जवाब नहीं में ही होगा। आंकड़ों की बात करें तो लगभग छह लाख गांव अभी भी मौजूद हैं किन्तु अगर आबादी प्रतिशत की बात करें तो 2011 में जहाँ यह 70 प्रतिशत था हालिया आंकड़े 65 प्रतिशत दर्शाते हैं। अब बात अगर कला खासकर समकालीन कला की दुनिया की करें तो, हमारी यह दुनिया महानगर केंद्रित ही होकर रह गयी है। वहीँ सत्तर के दशक के फिल्मों की बात करें तो लगभग आधी से ज्यादा फ़िल्में ग्रामीण पृष्ठभूमि के इर्द-गिर्द घूमती दिखती थी। किन्तु वहां तो यह लगभग विलुप्त सा ही है। हाल के दशक में अगर कुछ फिल्म ऐसी दिखती भी है तो वह पंजाब के किसी गांव या पहाड़ी सौंदर्य को दर्शाते गाँव तक ही सीमित होकर रह जाते हैं। गांव के प्रति हमारी इस बेरुखी का ही परिणाम है कि आज "हम नदिया के पार" या "तीसरी कसम" जैसी फिल्मों की अपेक्षा भी नहीं कर सकते हैं। 


ऐसे में यह बात ज्यादा मायने रखती है कि आखिर कोई कलाकार अपनी कला रचना में गांव और ग्रामीण समाज को दर्शाने की ज़िद से क्यों बंधा रहना चाहता है या बंधा रहता है ? वह भी तब जब दूसरी तरफ हमारी यानी भारतीय कला वैश्विक होने की होड़ में शामिल हो चुकी हो। यहाँ तक कि नए और अभिनव प्रयोग के नाम पर कला में कुछ भी किया जा रहा हो, और उसमें मौजूदा कला बाजार भी शामिल हो चूका हो। वह कला बाजार जिसकी आवश्यकता और चाहत लगभग प्रत्येक कलाकार महसूस करता हो। बहरहाल इन सबके बावजूद हमारे बीच कुछ ऐसे भी कलाकार हैं, जिनकी कलाकृतियां ग्रामीण जीवन से लेकर वंचित तबके के इर्द-गिर्द केंद्रित रहती है। ऐसे ही एक वरिष्ठ कलाकार हैं डॉ.लाल रत्नाकर। विगत तीस से भी अधिक वर्षों से कला जगत में सक्रिय रत्नाकर कला अध्यापन से भी जुड़े रहे हैं। इसके साथ ही कला के प्रसार के कार्यक्रमों के आयोजक भी रहे हैं। दिल्ली से सटे ग़ाज़ियाबाद शहर की कला गतिविधियां उनकी कलात्मक सक्रियता की साक्षी हैं।

प्रो. ईश्वरी प्रसाद के शब्दों में -"डॉ लाल रत्नाकर के चित्र संदेश वाहक हैं, यह जीवन अनुभव की उपज मालूम पड़ते हैं। कलाकार अपने जीवन लक्ष्य को लोगों तक पहुंचाना चाहता है। रेखाओं रंगों और प्रतीकों का चयन भी उसने किसी सामाजिक लक्ष्य को ध्यान में रखकर किया है। इन चित्रों से कलाकार के दो अंतरंग भाव सामने आते हैं एक ग्रामीण परिवेश की पृष्ठभूमि और दो सामाजिक विषमता से उपजे उत्पीड़न की अभिव्यक्ति।"

डॉ रत्नाकर की कलाकृतियों के सन्दर्भ में प्रसिद्ध कलाकार पाब्लो पिकासो की यह उक्ति सटीक बैठती है -" आपकी कलाकार के बारे में क्या धारणाएं हैं ? क्या वह एक ऐसा बुद्धिहीन प्राणी है, जो केवल आँखों से देख सकता है यदि वह चित्रकार है, जो केवल कानों से सुनता है यदि वह संगीतकार है, जिसकी सब शक्ति केवल दिल में ही है यदि वह कवि है, या जिसके पास शक्तिशाली स्नायुयों के अतिरिक्त और कोई साधन संपत्ति नहीं है यदि वह मुष्टियोद्धा है? इसके विपरीत उसके राजनैतिक विचार भी होते हैं। जिस समाज के कारन कलाकार को इतना अनुभूतिपूर्ण जीवन प्राप्त होता है उस समाज के प्रति निष्कर्तव्य होकर स्वान्तः सुखाय कला साधना करते रहना कलाकार के लिए कैसे संभव है।" 

अगर देखा जाये तो रत्नाकर की कला और उनका जीवन पिकासो की इसी सलाह या राय का पक्षधर दीखता है। कतिपय इसी कारण उनकी कलाकृतियों ग्रामीण जीवन के माधुर्य के साथ साथ दलितों और वंचितों की आवाज भी दृष्टिगत हैं। नारी आकृतियों के सहज सौंदर्य के निरूपण में वे स्त्रियों के आत्म संघर्ष को भी मद्देनज़र रखते हैं। मुम्बई की जहांगीर कला दीर्घा की उनकी यह प्रदर्शनी कला प्रेमियों के दिल में जगह बना पायेगी, इसका भरोसा उनकी कालकृतियों कलाकृतियों को देखकर अवश्य की जा सकती है। क्योंकि इस मायानगरी का एक सच यह भी है कि इसके चालों और झोपड़पट्टियों से लेकर बहु-मंज़िली इमारतों में ऐसे लोग भी बसते हैं। जो सुदूर के अपने गांवों से अब भी अपने को जुड़ा पाते हैं, उन खास दर्शकों के लिए तो यह प्रदर्शनी एक तरह से ग्रामीण जीवन की स्मृतियों का नवीकरण साबित होगा। 


सुमन कुमार सिंह
कलाकार/ कला लेखक

      




डॉ.लाल रत्नाकर की कलाकृतियों में 

सामाजिक न्याय की अक्काशी;

बी आर विप्लवी

कला के पारखी विद्वानों ने ललित कला को परिभाषित करते हुए कहा है कि सौन्दर्य या लालित्य के आश्रय से व्यक्त होने वाली कला, ललित कला है। इसे प्रकारांतर से समझा जाए तो यह आशय ध्वनित होता है कि, जो कला या कलाएं सौंदर्य या लालित्य के आश्रय से व्यक्त नहीं होतीं वह ललित कला नहीं हैं, अर्थात वे कोई अन्य कलाएं हो सकती हैं। तो फिर वह कौन सी कला है जो सौंदर्य या लालित्य का सहारा नहीं लेती या उसका प्राप्य अभीष्ट सौन्दर्य नहीं है? इस प्रश्न के उत्तर की तलाश में जीवन-जगत से जुड़े हुए तमाम तरह के प्राकृतिक एवं बनावटी उपज/उत्पाद और निर्मितियों को सामने रखने पर एक अलग तरह का भाव बोध एवं अवधारणा बनती है।

लोक में एक बहु कथित एवं बहुप्रचलित उक्ति, कि जीवन जीना भी एक कला है- कला के विविध अवयवों, रूपों, अवस्थितियों एवं आयामों को परत-दर-परत खोलती जाती है। यहीं से एक गहरी समझ अपने उद्बोधन  से मन-मस्तिष्क को कदाचित तेज़ रोशनी से उद्भासित कर देती है जहां साफ़-साफ़ दिखाई देता है कि कला जीवन-जगत के कण-कण में, सांस-उच्छवांस में, हवा-पानी में इस तरह समाहित है कि जैसे कला ही जीवन हो और जीवन ही कला हो।

एक उदाहरण द्वारा यह बात समझी जा सकती है। लोकोपयोगी मिट्टी के बर्तनों की आवश्यक मांग के अनुसार कुम्हार को बर्तन बनाने का काम करना होता है। कुम्हार ने कला के लिए बर्तन नहीं बनाए हैं बल्कि बर्तन के लिए कला की तलाश की है। उपयोगी मिट्टी यानी काली, पीली, चिकनी, दोमट, बलुई इत्यादि की पहचान भी एक हुनर ही है, एक कला ही है। इसके बाद शुरू होती है उस विशेष तरह की मिट्टी को तलाश करके एकत्र करना तथा उसे अपनी कार्यशाला तक ले जाना। फिर मिट्टी में यथोचित अनुपात में पानी मिलाने की अनुभवजन्य कला। मिट्टी को रौंदकर, मथकर, छानकर, गूंथकर ख़ास तरह की लस्सीदार मिट्टी (बर्तन गढ़ने/बनाने लायक)तैयार करने की कला। तत्पश्चात उस मिट्टी से बर्तन गढ़ने/बनाने की कला, बर्तनों को छाया और धूप में बारी-बारी, अनुभव एवं प्रेक्षण के मुताबिक, सही तापमान पर सुखाने की कला। कच्चे बर्तनों को सही तापमान पर पकाने और सुरक्षित बाहर निकालने की कला। अंततोगत्वा बर्तन को सौंदर्य प्रतीकों की रंगों-रेखाओं से सजाने की कला। यहां केवल सौन्दर्य का आश्रय ही नहीं बल्कि एक परिपक्व सम्यक अनुभव की परिपूर्णता का आश्रय लिए बिना अभीष्ट गुणवत्ता का बर्तन नहीं बनाया जा सकता। मिट्टी की गुणवत्ता में कमी के कारण, मिट्टी-पानी मिलाने के अनुपात में असंतुलन के कारण, मिट्टी को छानकर कंकड़ अलग करने की कला में कच्चेपन के कारण, मिट्टी को रौंदकर एक खास तरह का गिलावा(paste) न बना पाने के कारण, चाक पर चढ़ाकर समुचित आकृति न दे पाने के कारण, समुचित ताप मान पर बर्तनों को नहीं सुखाने एवं पकाने के कारण, इन सब में कहीं भी ज़रा सी चूक हो जाने से कुम्हार आवश्यक गुणवत्ता वाले बर्तन नहीं बना सकता है।
चित्र ;  संघर्ष-1 (एक्रेलिक ऑन कैनवास) 
जहां निर्माण है वहां कला है। निश्चित रूप से दुनिया के उत्तरोत्तर विकास-क्रम में श्रम-शील निर्माता-समुदाय की कला के अनगिनत जीते-जागते उदाहरण मिल जाएंगे। यह सच्चाई है कि दुनिया में क़दम-क़दम पर, सांस-सांस में कला का अनिवार्य तत्व मौज़ूद है। ऐसी ही कला के उदाहरण नित्य प्रति के जीवन में बिखरे पड़े हैं, जैसे कि मानव सभ्यता के आदिकाल से चली आ रही चर्म-कला एवं प्रस्तर-कला। कालक्रम के अनुसार मनुष्य की उत्तरोत्तर बढ़ती ज़रूरत एवं खोज के फलस्वरूप काष्ठ-कला, धातु-कला, मूर्ति-कला, पाक कला, नृत्य, वाद्य, संगीत-कला, चित्रकला आदि अस्तित्व में आते गये।

इस बर्तन बनाने की कला में बर्तन के उपयोगिता की कसौटी प्राथमिक है, और उसे देखने में सुंदरता होना द्वितीयक है- सौंदर्य आवश्यकता नहीं बल्कि वांछित विकल्प है। इस बर्तन बनाने की कला में सौंदर्य का आश्रय नहीं लिया गया है किंतु वैज्ञानिक संतुलन, समन्वय एवं परिपक्वता के जरिए अभीष्ट निर्मिति को अंजाम दिया गया है जो कि किसी भी मानक सामग्री के सौंदर्य पूर्ण निर्मिति के महत्वपूर्ण अवयव हैं। यह कला जीवन उपयोगी है इसलिए भौतिक जगत की खुराक के रूप में लोकोपयोगी है। कला बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय है इसलिए लौकिक सुख एवं प्रसन्नता का औजार है। यह ललित कला नहीं है फिर भी इसका लालित्य यह है कि इसे हर तरह परिपूर्ण बना हुआ देखकर, अपने उपयोग के लिए समुचित समझकर, अपने साथ ले जाने वाले के मन में एक आनन्ददायक सौंदर्य की संतुष्टि होती है। यह सौंदर्यानुभूति मात्र देखने भर की नहीं बल्कि इसके पूरे वज़ूद में इसकी उपयोगिता के प्रांतर में प्रच्छन्न सौन्दर्य के रूप में भी है। यह ललित कला नहीं बल्कि फलित कला है। इस तरह की कलाओं के अनगिनत उदाहरण हैं।

जहां निर्माण है वहां कला है। निश्चित रूप से दुनिया के उत्तरोत्तर विकास-क्रम में श्रम-शील निर्माता-समुदाय की कला के अनगिनत जीते-जागते उदाहरण मिल जाएंगे। यह सच्चाई है कि दुनिया में क़दम-क़दम पर, सांस-सांस में कला का अनिवार्य तत्व मौज़ूद है। ऐसी ही कला के उदाहरण नित्य प्रति के जीवन में बिखरे पड़े हैं, जैसे कि मानव सभ्यता के आदिकाल से चली आ रही चर्म-कला एवं प्रस्तर-कला। कालक्रम के अनुसार मनुष्य की उत्तरोत्तर बढ़ती ज़रूरत एवं खोज के फलस्वरूप काष्ठ-कला, धातु-कला, मूर्ति-कला, पाक कला, नृत्य, वाद्य, संगीत-कला, चित्रकला आदि अस्तित्व में आते गये। यह बात बहुत बेबाक़ है कि शुरुआती दौर में चरवाहा और गड़रिया के रूप में लोगों ने पत्थर की शिलाओं के ऊपर मनुष्यों और पशुओं की जो आकृतियां बनाईं वे एक दूसरे को रास्ता बताने तथा भटकाव से बचाने के लिए थीं। कई ऐतिहासिक और पुरातात्विक स्थानों पर ऐसे चित्र संरक्षित हैं जिनके प्राकृतिक रंग इस तरह प्रयुक्त हुए हैं कि वे हज़ारों वर्षों की धूप बारिश और अन्य प्राकृतिक परिवर्तनों के बावज़ूद भी ज्यों के त्यों दिखाई पड़ते हैं। यहां चित्रात्मक कलाकृति के अलावा उन रंगों को बनाने की कला भी विस्मित करने वाली हैं जिनकी मद्द से ये चित्र बनाए गए। निश्चित ही जीवनोपयोगी कलाओं की उम्र लम्बी होती है।
चित्र ;  संघर्ष-2 (एक्रेलिक ऑन कैनवास) 


डा. लाल रत्नाकर ने ही इन चित्रों की गहरी खोजबीन की है। यही नहीं उन्होंने विभिन्न कोल्हुओं पर बने चित्रों का तुलनात्मक अध्ययन भी किया है। ज़्यादातर कलाकृतियों में ग्रामीण-जीवन से जुड़ी हुई परिपाटियों, पक्षियों, वृक्षों आदि चित्रणों को देखा जा सकता है। रुचिकर विषय यह भी है कि हथौड़ी-छेनी के ज़रिए, बिना किसी ट्रेनिंग के, ये शिल्पी और मज़दूर कितनी बारीकी से चित्रों को उकेरे हैं। इन्हें देख कर पुराने अजंता-एलोरा के चित्र याद आने लगते हैं। कुल मिलाकर डॉ लाल रत्नाकर ने चित्र कला और शिल्प कला के इस अनोखे युग्म को खोज निकाला है तथा इसमें छिपी हुई लोक संस्कृति को भी परिभाषित किया है ।

अब हम ललित कलाओं पर बात करते हैं। नाम से ही प्रकट है कि ललित कलाएं सौंदर्य की अनुभूति कराने वाली होती हैं ।अत: यह कहा जा सकता है कि वे भौतिक जगत के लिए आध्यात्मिक ख़ुराक हैं और इसी रूप में उनकी उपादेयता का मूल्यांकन किया जा सकता है। ललित या सौंदर्य क्या है? निश्चित रूप से इसका संबंध मानसिक प्रसन्नता या सुख-शांति से है। इस सौन्दर्य का व्यक्ति की मानसिक प्रसन्नता के रूप में आरोहण किस माध्यम से होता है? बौद्ध दर्शन में छ: संज्ञाओं की बात की गई है। वे हैं- आंख, कान, नाक, जिह्वा, त्वचा एवं मन। इन्हीं के ज़रिए व्यक्ति बाहरी दुनिया की चीज़ों की सुन्दरता या असुंदरता को महसूस करता है। मूर्तिकला, वास्तुकला, नृत्यकला एवं चित्रकला को देखकर, संगीत में काव्य, गायन-वादन को सुनकर तथा नाट्य कला में देख-सुन कर, हर्ष, विषाद, प्रसन्नता या अप्रसन्नता का बोध होता है। अतः पारंपरिक परिभाषा कि ललित कलाएं सौंदर्य का आश्रय ही लेती हैं, पूर्णतया सत्य नहीं है। यहां दुख-सुख, प्रसन्नता-अप्रसन्नता, हर्ष- विषाद, दया-क्रोध, जुगुप्सा आदि भाव भी पैदा होते हैं। किंतु इन सब का अभीष्टित/इच्छित फल जीवन को दुखों से छुड़ाकर सुख की ओर ले जाने के सौंदर्य-सृजन में निहित है। इसके अलावा लेखन कला भी है जो दृश्य माध्यम होते हुए भी केवल दृश्यकला ही नहीं है। इसीलिए काव्य केवल श्रव्य कला भी नहीं है। लेखन कला द्वारा लिखे हुए साहित्य की भाषा के माध्यम से मन पर सीधा असर पड़ता है तथा शब्दों के स्वीकृत अर्थों, परिभाषाओं एवं अवधारणाओं के अनुसार मन-मस्तिष्क पर उसी तरह का असर पैदा होता है। सभी ललित कलाओं के बारे में एक बात समान है कि इन कलाओं के माध्यम चाहे जो भी हों इनका प्रभाव मन-मस्तिष्क तक पहुंच कर उसमें उसी तरह का भाव पैदा करता है। इन सभी तथा कथित ललित कलाओं का अंतिम गंतव्य मन मस्तिष्क ही होता है। क्योंकि मन-मस्तिष्क ही दुनिया में सभी कार्य व व्यापारों का कारण होता है इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि ये ललित कलाएं जो चित्रों, मूर्तियों, उत्कीर्णन, स्थापत्य, नृत्य, काव्य या नाट्य कलाओं के माध्यम से प्रेषित होते हैं, वे लोकोपयोगी नहीं हैं। निश्चित रूप से वे मन-मस्तिष्क पर अपना प्रभाव छोड़ते हैं जिसके अनुसार ही व्यक्ति कार्य संपादन का मन बनाता है।
चित्र ;  संघर्ष -3(Oil ऑन कैनवास) 


 हम चित्रकला के बारे में विशेष रूप से चर्चा कर रहे हैं जो निश्चित रूप से केवल दृश्य कला ही है और इसे व्यक्त करने की माध्यम रेखाएं, प्रतीक एवं रंग हैं। इन्हीं रंगों और रेखाओं के माध्यम से चित्रकार अपने समय की सामाजिक-धार्मिक-सांस्कृतिक, राजनैतिक एवं आर्थिक स्थितियों को व्यक्त करता है। चित्रकला में रंगों, रेखाओं और प्रतीकों के संकेतों को समझे बिना चित्रकला के तथ्य और कथ्य को पूरी तरह अप्रिशिएट्स नहीं किया जा सकता है। इसलिए ज़रूरी है कि उन परिभाषाओं के दायरे में रहकर कलाकार की अभिव्यक्ति के संदर्भों एवं उद्देश्यों को अच्छी तरह समझ कर ही उन्हें ग्रहण किया जाए। रंग- रेखाएं चित्र से उठकर देखने वाले के मन मस्तिष्क में जा बैठती हैं। यदि इन रंगों एवं रेखाओं की तर्ज़ुनमानी को सही परिप्रेक्ष्य में मन-मस्तिष्क तक नहीं पहुंचाया गया तो कला का उद्देश्य विफल हो जाता है। इस कारण देखने और समझने के बीच में जो फ़ासला रह जाता है, वही फ़ासला चित्रकार और दर्शक की अवधारणाओं में अंतर पैदा करता है फलत: चित्रकार की मान्यताओं और ध्येय को पूरी तरह दर्शक तक पहुंचाने में विफल कर देता है। आज के वैज्ञानिक युग में जबकि ग्लोबलाइजेशन के बहाने प्राइवेटाइजेशन ने व्यक्तिगत आज़ादी पर भी डाका डालना शुरू कर दिया है, पारम्परिक चित्रकला के कथ्य और तथ्य में भी समय-काल के साथ समयानुकूल परिवर्तन हुआ है। चित्रों को देखते समय इन बातों को भी दिलो-दिमाग़ में रखना पड़ेगा।


इसी पृष्ठभूमि में हमारे समय के ख्यातिलब्ध चित्रकार, मूर्तिकार, कवि-चिन्तक एवं विमर्शकार डॉ. लाल रत्नाकर के चित्रों पर नज़र डालते हैं तो हमें पहले से चली आ रही रूढ़ियों और परंपराओं को तोड़कर सर्वथा नई वैचारिकी स्थापित करने वाले चित्रों से सामना होता है। डाक्टरलाल रत्नाकर के चित्र पर बात करते हुए यह भी जान लेना ज़रूरी है कि वह चित्रकार के साथ-साथ एक कुशल मूर्तिकार भी हैं।

उनके द्वारा गढ़ी गई मूर्ति जो गाजियाबाद जैसे महानगर के मुख्य चौराहे पर स्थापित है, उनकी मूर्ति- कला का अद्भुत नमूना है। वे साहित्य एवं सामाजिक विमर्श में भी अच्छी दख़ल रखते हैं। इस परिचय के माध्यम से, चित्रों में, उनके बौद्धिक धरातल के रूपांतरण की गहराई को महसूस करने में सुविधा होगी।

रत्नाकरजी ग्रामीण पृष्ठभूमि से आते हैं इसलिए यह लाज़मी है कि उनके चित्रों के किरदार, वातावरण तथा कथ्य भी उसी पृष्ठभूमि से लवरेज़ हों। उनके चित्रों में घसियारनें हैं, हलवाहे हैं, चरवाहे हैं, बकरिहारे हैं, दूधिए हैं, लकड़हारे हैं, मोची हैं, बहंगी-डोली ढोते कहार हैं, धुनकी चलाते धुनियां हैं, रहट-पुरवट से सिंचाई करता कृषक परिवार है, चाक चलाता कुम्हार है, घानी लगाकर तेल पेरता तेली है, पनवाड़ी है, भड़भूजा है, हजामत करता नाई है, धान की रोपनी करती रोपनहारिनें हैं, कथा बांचता-शंख बजाता ब्राह्मण है, झूला झूलती सखियां हैं, आलता-महावर-काजल-टिकुली-मेंहदी की सज-धज है, तेल-उबटन है, काजल पारती मांएं हैं, दही बिलोती ग्वारन है, आल्हा गाता नट समुदाय है, जानवर के सींग से बनी तुरही बजाता डोमराज है, जंगल से पत्ते तोड़कर लाता और उनसे पत्तल बनाता मुसहर समुदाय है, दंगल-कुश्ती है, होली-दीवाली है, पनघट की हंसी-ठिठोली है, घूंघटपट से पाहुन का कुशल-क्षेम पूछती स्त्री है, चूल्हा-चौका है, घर-चौबारे की गप-शप है, गाय, भैंस, भेड़ों, बकरियों के रेवड़ हैं, हुक्का-पानी है, जन्म-मरण, शादी-ब्याह, नाच-नौटंकी, मेला-सर्कस, जलसा-जुलूस आदि अनगिनत विषय हैं जो डॉक्टर लाल रत्नाकर की कला में ग्रामीण समाज को ज़िंदा रखे हुए हैं। विषय की विविधता के होते हुए भी चित्रों के केंद्र में नैसर्गिक मानवीय चेतना के साथ मनुष्य की स्वतंत्रता एवं मानवीय मूल्यों की सर्वोपरि स्वीकृति का दस्तावेज है।उनकी तूलिका रंगों और आकृतियों के माध्यम से गूढ़ एवं जटिल विषय वस्तु को भी सरल बनाकर व्याख्यायित करते हुए पेश करती है, किंतु, उस सरलता में भी एक विशिष्ट तरह का इशारा छुपा होता है जिसे बारीक़ी से समझने और विश्लेषण करने वाली नज़र चाहिए होती है। उनके चित्रों के माध्यम से एक बहुत बड़े सामाजिक-वैचारिक विमर्श को नया आयाम मिलता है।
तृष्णा : आयल ऑन कैनवास
उनके चित्रों में अक्सर ग्रामीण परिवेश अपनी पुरातन परिपाटी के साथ-साथ नवोन्मेषी भाव भंगिमा में नज़र आता है। उनकी यह कला अपने पुराने इतिहास की पृष्ठभूमि में वर्तमान परिस्थितियों को रूपायित करने के लिए एक सेतु का काम करती है। डॉ.लालरत्नाकर ऐसे कलाकार हैं जिन्होंने भारतीय ग्रामीण जीवन की श्वांस-प्रश्वांस में जड़ीभूत वर्ण-व्यवस्था वाली घृणित जीवन शैली को शायद पहली बार चित्रों के ज़रिए जीवंत करते हुए देश और समाज से कुछ गहरे सवाल पूछे हैं–यथा मनुष्य मनुष्य में जन्मना भेद क्यों, तथा एक व्यक्ति जन्म के आधार पर किस प्रकार नीच तथा उच्च माना जाता है? आखिर सारी योग्यताओं की कसौटी तथा मापदंड भारत में जाति ही क्यों है? क्या किसी के श्रम, कला, ज्ञान-विज्ञान तथा उसकी निर्माणकारी सोच एवं निर्मिति  की इस देश के विकास में कोई अहमियत नहीं है? आदि आदि। मेरी जानकारी में शायद यह पहली बार है कि ऐसे ज्वलंत तथा  साश्वत प्रश्न पर किसी ने सवाल उठाया है। तथा कथित कुलीन मानसिकता वाले प्रच्छन्न जातीयदम्भ से परिपूर्ण मनीषियों- कलाकारों में अकेले पड़जाने का जोख़िम उठाकर, हिम्मत से -सामाजिक विसंगतियों के विरुद्ध खड़े होने का जो काम उन्होंने किया है वह बहुत ही विरल है। मैं उनकी अद्भुत कला तथा उसमें समाए हुए दलित-बहुजन जीवन से जुड़े तमाम पक्षों से अभिभूत हूं। उनकी नैतिक समझ और कुरीतियों से लोहा लेने की उनकी अदम्य क्षमता को यूंही उत्तरोत्तर बढ़ते जाना होगा।

रत्नाकर जी के ग्रामीण-जीवन से जुड़े चित्रों का अर्थ यह क़तई नहीं है कि वे आधुनिकता के विरोधी हैं। वे आधुनिकता के नाम पर मनुष्य के मानसिक विपणन एवं मानसिक गुलामी के विरुद्ध हैं। प्रकृति से जुड़े गांव की परम्पराओं से उनकी मुराद स्वच्छंद, निर्विकार एवं निष्कपट जीवन से है जो किसी भी व्यक्ति के सुखमय जीवन के लिए आवश्यक है, और यही सुखमय जीवन उसकी खुशियों का पर्याय है- जो कला का भी अभीष्ट है।
घसिहारिने : आयल ऑन कैनवास

उदाहरण के लिए ‘घसिहिरिनें’ चित्र में घसिहारिन स्त्रियों के घूंघट-पट अध खुले से हैं जिसमें रूप सौष्ठव की जगह सौन्दर्य-सौष्ठव(मॉडेस्टी) नज़र आता है। घास की टोकरियों को कांख में दबाए हुए भी वह बातचीत की तर्क पूर्ण मुद्रा में उंगलियों के इशारे करती नज़र आती हैं। घास खोदे जाने के रोज़ाना के एकान्तिक एवं उबाऊ कार्य में इन स्त्रियों ने अपनी सामूहिक सालिडैरिटी को अपना घोषित स्वातंत्र्य मानकर छोटा-मोटा क्लब सा बना लिया है जहां वे एक दूसरे से दुखम-सुखम, हंसी- ठिठोली, गिले-शिकवेकर लेती हैं। यही नहीं यहां वे पुरुष-सत्ता की धौंस और दादागिरी से मुक्त होकर कुछ पल आज़ादी की सांस लेती हैं। ऐसी आज़ादी को वे काम करते हुए भी इंजॉय करती हैं। चित्र में पीछे संकेतों में ग्रामीण माहौल का अनुकूल वातावरण तैयार किया गया।चित्र में स्त्रियों के चेहरे की भाव-भंगिमा दिखाई नहीं पड़ती है फिर भी रंगों और लकीरों के ज़रिए यह चित्र साफ़ व्यक्त करता हैं कि दो महिलाएं आपस में किसी विषय पर तीखा वाद-विवाद कर रही हैं। चित्रों के रंग रेखाओं से इसके भाव धीरे-धीरे पिघल-पिघल कर आंखों के रास्ते दिलो-दिमाग़ को तर्क करते जाते हैं। यह प्रस्तुति का विलक्षण तरीक़ा है तथा कला का अद्भुत नमूना भी है।

कलाकार जब लिंगभेद और मर्दवादी प्रभुत्व के बारे में अवलम्बन के सहारे अपने चित्रों से संदेश देता है, वह देखते बनता है।एक तरफ़ गाय है जो शांत बैठी है, दूसरी तरफ सांड पूरी ठसक के साथ रौब में गाय की तरफ़ मुखातिब है। ज़ाहिर तौर पर आप चित्र में गाय और सांड का बयोलॉजिकल लैंगिक भेद नहीं कर सकते किंतु दोनों ही जानवरों के भंगिमा और द्वारा यह साफ़ नज़र आ जाता है कि नर कौन है और मादा कौन? ऐसा डॉक्टर लाल रत्नाकर की कला के बूते की ही बात है कि एक ही शक्ल सूरत के दो जानवरों की भाव- भंगिमा से वे दोनों के बीच के लैंगिक भिन्नता को पहचान नायक बना देते हैं। एक जानवर जो सीधे मुंह से शांत, सौम्य,निर्विकार बैठा है- उसके चेहरे पर सदासयता है, करुणा है, माडेस्टी(रूप सौष्ठव) है, उसके बरअक्स जो दूसरा जानवर बैठा है, वह उसी तरह की शक्ल सूरत लिए हुए भी अपनी भाव-भंगिमा के कारण कुछ अलग प्रतीत होता है , यथा-उसकी गर्दन यूं मुड़ी हुई है जैसे वह मादा जानवर को गुस्से में कोई उपालंभ दे रहा हो, नथुने फुलाए है जैसा क्रोध में होता है। यह चित्र पारंपरिक मर्दवादी समाज को आईना दिखाता है ।

डाक्टरलाल रत्नाकर के चित्रों में नारी जगत के चित्र बहुतायत में अपनी पूरी जीवंतता लेकर उभरे हैं।यह कोई अप्रत्याशित नहीं है तथा बहुत ही साफ़ कहा जा सकता है कि ग्रामीण समाज की पूरी अर्थव्यवस्था, विशेषरूप से दलित-बहुजन समाज की,स्त्री के कंधों पर ही टिकी हुई है। वहां स्त्री भोग्या नहीं बल्कि जीवन के हर कार्य-व्यापार में बराबर की सहभागी एवं हिस्सेदार है। घर गृहस्थी के कार्यों में वह पुरुष के साथ हर कार्य-स्थल पर  देखी जा सकती है यथा खेतों की जुताई, बुआई, सिंचाई, कटाई, मड़ाई से लेकर पशु पालन, मिट्टी के बर्तन बनाना, रंगना, हर तरह के घरेलू कार्यों को अंजाम देना, हाट-बाज़ार आदि अनगिनत कार्यों में वह निर्णायक भूमिका में है। ऐसे परिदृश को कला में उपस्थित करना ही कृषिजीवी समाज के साथ न्याय पूर्ण ही नहीं होगा बल्कि अन्नदाता के प्रति सच्ची कृतज्ञता होगी ।

इन्हीं वैचारिक प्रभाव में इन्हीं प्रसंगों को कलाकार बार-बार अपने चित्रों में लाता है। चाहे वह खेत खलिहान का दृश्य हो, जुताई-बुवाई का दृश्य हो,पशुओं के साथ उनके तादात्म्य में तथा पालनकर्ता के रूप में लगाव का चित्र हो, या फिर घरों में ओखल-मूसल, आटा चक्की पर गीतात्मक श्रमशीलता, सिल बट्टा के साथ, घसियारनें, पनिहारिनें, या गांव या खेतों में महिलाओं की आपसी गोष्ठी और दुखम-सुखम के चित्र हों, वे अपने परिवेश के क्लाइमैक्स तथा माहौल को साथ लेकर उपस्थित होते हैं। चित्रों में उनकी भाव-भंगिमा, चितवन, हाथों के इशारे तथा उनके वेशभूषा ने चित्रों में जो कुछ अनकहा सा छुपा होता है-जो अपने आप बहुत सारी कथा-कहानियों को व्याख्यायित करता है।यही नहीं बल्कि इन चित्रों में स्त्री की देह की प्राचीन भोगवादी और मनुवादी यौनिकिता से अलग हटकर उसके श्रम तथा कार्यव्यापार को प्रमुखता से अंकन किया गया है। यहां स्त्री कोई बाज़ारूवस्तुया ‘उपयोग करो और फेंक दो’ वाली वस्तु बनकर नहीं आती बल्कि वह समाज में अपनी पूरी दावेदारी के साथ आती है।
डॉ. लाल रत्नाकर

उनके कई चित्रों में तोस्त्री-चरित्र अपनी पूरी मालिकाना ठसक के साथ चार पाई पर या मचिया पर बैठी हुक्म चलाती मालकिन के रूप में व्याख्यायित नज़र आते हैं जो हमारी पुरानी मातृप्रधान जीवन परंपरा की याद दिलाते हैं।इन चित्रों में स्त्री, आगे आने वाली पीढ़ी की बहू- बेटियों को किस प्रकार नैतिकता एवं आचरण का पाठ भी अपने कार्यव्यापार में शरीक़ करके ही सिखाती हैं जिससे जिंदगी का व्यावहारिक ज्ञान हासिल हो सके।

बुकवा : आयल ऑन कैनवास
एक पेंटिंग है’बुकवा’। इस नाम को नए ज़माने, ख़ास कर नगरीय जीवन में रचे-बसे लोग, शायद ही पहचान पायें-इससे अपनापा तो बहुत दूर की बात है।किंतु संतोष का विषय यही है कि आज भी ग्रामीण जीवन में नवजात शिशु(जनमतुआ) को कम से कम एक साल तक, दिन में तीनों वक़्त, उबटन-तेल से मालिश अवश्य की जाती है।इस चित्र में पूरा ग्रामीण परिवेश उपस्थित है अर्थात बाग-बगीचा, जनसामान्य घर की देहरी, छोटी चारपाई यानी खटोला पर एक मां बच्चे को अपनी दोनों टांगों के बीच लिटा कर मालिश करती हुई। इस प्रकार हम देखें तो डॉ लालरत्नाकर ने अपने चित्रों के माध्यम से ग्रामीण जीवन की सामान्य से सामान्य दिनचर्या एवं परंपराओं को अपने चित्रों में उतार दिया है जिसे देखकर मन ग्रामीण जीवन की निर्विकार प्रकृति का मुरीद हो जाता है।

उनके द्वारा पत्थर के कोल्हू पर उकेरी गई कलाकृतियों को पूर्वांचल के कई जिलों के गांवों में से खोज निकाला गया है। अब जबकि लगभग सौ साल से गन्ना पेराई की यह पुरानी कोल्हू वाली व्यवस्था बंद है तथा उसकी जगह पर नई तकनीकी मशीनों ने कार्यभार संभाल रखा है, ये पुराने पत्थर के बने कोल्हू परित्यक्त अवस्था में कहीं औंधे मुंह कूड़े-कचरे के ढेर में लावारिस से पड़े हैं। डॉ रत्नाकर ने बाकायदा गांव में जाकर ऐसे प्रस्तर-कोल्हुओं का सर्वेक्षण किया है तथा उन पर उकेरे गए चित्रों और कलाकृतियों को कला की बारीकियों से समीक्षा किया है जो कला जगत के लिए उनका एक सकारात्मक योगदान है।

अपने चित्र में चित्रकार डॉक्टर लाल रत्नाकर स्त्री देह की सुंदरता का अक्स तो दिखा रहे हैं लेकिन उस सुंदरता को प्रकृति से तादात्म्य स्थापित करने का  जो सुनहरा मौका वे सृजित कर देते हैं उससे इस सुंदरता की अर्थवत्ता तथा उसकी प्रासंगिकता सिद्ध हो जाती है। इसी प्रकार वे अपने कई चित्रों में समाज के निचले वर्ग के कामगारों की मेहनत-मशक़्क़त भरी जिंदगी को भी वे अपने चित्रों में उतार देते हैं। जैसे साफ़-सफ़ाई में लगे स्त्री-पुरुष, झाड़ू लेकर अपने कार्य में किस प्रकार सेवा भावना से लगे हुए हैं तथा वहीं बैठा कोई धर्म का तथा कथित पंडा-पुरोहित अपनी माला-टीका,छाप-तिलक, धोती-जनेऊ के लम्पट, साज-सज्जा में अपनी शातिर नज़रों से किस प्रकार उन्हें देखता है – यह भी चित्र वहां मिलते हैं।यही नहीं बल्कि गांव-गिरांव में पूजा-पाठ, हवन-पूजन के नाम पर किस प्रकार ब्राह्मणवादी परंपरा लोगों को मानसिक गुलाम बनाकर उनका आर्थिक शोषण कर रही है- इसके भी चित्र वहां बहुतायत से देखे जा सकते हैं।वास्तव में डॉ.लालरत्नाकर का एक-एक चित्र अपने आप में कथानक के साथ पूरा उपन्यास है, जिसके बारे में विस्तार से बात की जा सकती है।
पाहुन : आयल कैनवॉस

पाहुन नाम के उनके बनाये हुए चित्र में एक जीती जागती कहानी नज़र आती है जो ग्रामीण परिवेश में पाहुन अर्थात नई व्याहता का का दूल्हा (पति) पाहुन को किस तरह ऊंचा आसन दिया गया है तथा उसकी सास मां नीचे मचिया पर बैठकर उससे तनिक पर्दा करके कुशल क्षेम पूछ रही हैं और पाहुन हथेली को ठोढ़ी पर टिकाए, तनिक बड़े लोगों के मर्यादा में, संकोच भाव प्रकट करते हुए मुखातिब है । चारपाई से सटे हुए दो बच्चे भी दिखाई देते हैं जो किसी मेहमान या पाहुन के आने पर अक्सर जुट आते हैं। चारपाई के पीछे जैसे नेपथ्य में कुछ पड़ोसिनें आपस में विचार-विमर्श कर रही हैं जो शायद, नए मेहमान के आने के सम्बन्ध में ही कोई टीका-टिप्पणी कर रही हों। पूरे चित्र में सास और दामाद के बीच में जो वार्तालाप है वह स्थिर होते हुए भी गतिमान है। मर्यादावश, लाजवन्ती नई नवेली, दूर ओट में खड़ी, घूंघट की आड़ से पाहुन के साथ चल रही बातचीत का टोह ले रही है। कुल मिलाकर यह चित्र बेजोड़ है तथा आपसी प्रेम-व्यवहार एवं नाते-रिश्ते के अदब लिहाज के पारंपरिक तरीक़ों को बख़ूबी व्यक्त करता है।

डॉ. लाल रत्नाकर ने चित्रकला सृजन के अलावा पुरानी लोक-कला परंपरा पर गहरा शोध कार्य भी किया है जो अपने तरह का अनोखा कार्य है।

उदाहरण के लिए उनके द्वारा पत्थर के कोल्हू पर उकेरी गई कलाकृतियों को पूर्वांचल के कई जिलों के गांवों में से खोज निकाला गया है। अब जबकि लगभग सौ  साल से गन्ना पेराई की यह पुरानी कोल्हू वाली व्यवस्था बंद है तथा उसकी जगह पर नई तकनीकी मशीनों ने कार्यभार संभाल रखा है, ये पुराने पत्थर के बने कोल्हू परित्यक्त अवस्था में कहीं औंधे मुंह कूड़े-कचरे के ढेर में लावारिस से पड़े हैं। डॉ रत्नाकर ने बाकायदा गांव में जाकर ऐसे प्रस्तर-कोल्हुओं का सर्वेक्षण किया है तथा उन पर उकेरे गए चित्रों और कलाकृतियों को कला की बारीकियों से समीक्षा किया है जो कला जगत के लिए उनका एक सकारात्मक योगदान है। मज़े की बात यह है कि इन कोल्हुओं के ऊपर बने चित्रों के कलाकार के बारे में कोई अता-पता नहीं है। यह क़यास ही लगाया जा सकता है कि पत्थर के कोल्हू-निर्माण में लगे हुए मज़दूर एवं शिल्पी वर्ग ने ही यह कार्य अंजाम दिया होगा और उनकी औक़ात दिहाड़ी मजदूरों से कुछ ज़्यादा नहीं रही होगी। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है भारत में ज़्यादातर शिल्प कलाएं इसी प्रकार मज़दूरों और शिल्पियों का ख़ून पीकर अपने मालिकों के गाल की लालिमा चमकाने में लगी हुई थीं-वह चाहे प्राचीन भारत रहा हो या मुगल शासन काल रहा हो। हां ब्रिटिश शासन काल में काग़ज़ों, दस्तावेजों, कलाकृतियों के बारे में अधिक सुसंगत ढंग से सोच विचार, रख-रखाव किया गया।अत: इस दौर में कुछ विलक्षण प्रतिभाओं को छिटपुट पहचान मिलती रही। जो भी हो यह सच है कि इन कोल्हुओं पर बनाए गए चित्रों में जो लोक-जीवन, लोक-संस्कृति और प्रकृति की निराली छटा उकेरी गई है उसे देख कर बनाने वाले शिल्पकार और चित्रकार के प्रति मन में अगाध श्रद्धा पैदा होना स्वाभाविक है। किंतु खेद का विषय है कि हम ऐसे कलाकारों के बारे में कुछ भी नहीं जानते। डाक्टर लाल रत्नाकर ने ही इन चित्रों की गहरी खोजबीन की है। यही नहीं उन्होंने विभिन्न कोल्हुओं पर बने चित्रों का तुलनात्मक अध्ययन भी किया है। ज़्यादातर कलाकृतियों में ग्रामीण-जीवन से जुड़ी हुई परिपाटियों, पक्षियों, वृक्षों आदि चित्रणों को देखा जा सकता है। रुचिकर विषय यह भी है कि हथौड़ी-छेनी के ज़रिए, बिना किसी ट्रेनिंग के, ये शिल्पी और मज़दूर कितनी बारीकी से चित्रों को उकेरे हैं। इन्हें देख कर पुराने अजंता-एलोरा के चित्र याद आने लगते हैं। कुल मिलाकर डॉ लाल रत्नाकर ने चित्र कला और शिल्प कला के इस अनोखे युग्म को खोज निकाला है तथा इसमें छिपी हुई लोक संस्कृति को भी परिभाषित किया है ।
चित्र ;  संघर्ष (एक्रेलिक ऑन कैनवास) 


समग्रतामें डा.लाल रत्नाकर के चित्रों में जिस समाजवाद का झंडा बुलंद है उसकी आवाज़ गली-मोहल्ले,गांव-गांव से अपनी बेचैनी के साथ नमूदार हो रही है जो शायद एक सच्चे कलाकार की कामयाबी की निशान देही करता है। कला-साम्राज्य की जिस पाएदारी, जिस पारितोषिक एवं जिस पहचान के हक़दार डॉ.लालरत्ना कर हैं, वह शायद उन्हें आज तक भी नहीं मिल पाया  है । यही भारतीय सामाजिक विभेद की कलई खोलने के लिए पर्याप्त है जिसके कारण एक बहुत बड़े वर्ग के पास उपलब्ध कला तथा तकनीक बिना प्रोत्साहन के अंतिम सांसे  गिन रही है ।शायद इस देश में जाति तथा वर्ग चरित्र के कारण लाल रत्नाकर जैसे कितने ही कलाकार खुद अपने देश-समाज में ही अनचीन्हे बने हुए हैं।किंतु जो लोग कला के मर्म को समझते हैं, ऐसे कला-उपासकों के ज़रिए उनकी कलाकृतियों ने देश-विदेश में धूम मचा रखी है । कला के साथ परिवर्तनकारी सोच का ऐसा समन्वय बिरलाही  कहीं मिले। ऐसे मनीषी कलाकार को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं ।

बी.आर.विप्लवी 
(मशहूर ग़ज़लकार, कवि, कथाकार, चिन्तक 
एवं सामाजिक विमर्शकार हैं। )  
लखनऊं   

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डॉ.लाल रत्नाकर चित्रकार होने के साथ-साथ राजनीतिक 
सामाजिक सरोकारों से प्रतिबद्ध व्यक्तित्व है।
डॉ लाल रत्नाकर 


विगत कई दशकों में भारतीय आधुनिक चित्रकला कई बदलावों के सहारे आज अमूर्त स्वरूप को ग्रहण करते नजर आती है ,जहां पर कला में भाव- उद्दीपन की क्षमता कम और कौशल के दांव-पेंच ज्यादा नजर आते हैं। ऐसे में यदि कोई कलाकार अपने राजनीतिक प्रतिबद्धता और सामाजिक सरोकारों के चलते मानवता व सामाजिक बराबरी को अपने चित्र कर्म का मुख्य ध्येय बना ले, तो मानो आज के परिवेश में कोई प्रेमचंद रंगों के मनोविज्ञान के सहारे सर्वहारा वर्ग की सामाजिक समानता  के लिए नई इबारत लिख रहा हो ।हमारे समय महत्वपूर्ण चित्रकार अपर्णा कौर एक जगह लिखती हैं कि “प्रेमचंद ने जिस तरह अपने साहित्य में गांव को स्थापित किया है वही काम कला की दुनिया में उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद से आने वाले चित्रकार एवं सामाजिक समरसता के पैरोकार डॉ.लाल रत्नाकर अपनी पेंटिंग  के माध्यम से कर रहे हैं।“


चित्रकार होने के साथ-साथ डॉ.लाल रत्नाकर राजनीतिक सामाजिक सरोकारों से प्रतिबद्ध व्यक्तित्व है। वैचारिक स्तर पर वह समाज में सर्वहारा के हितों के साथ-साथ स्त्रियों की समानता के भी पक्षधर रहे हैं। इनके चित्रों में यही प्रतिबद्धता और सामाजिक दायित्वों का निर्वहन होता दिखाई देता है। समाज की आधी एवं महत्वपूर्ण आबादी जिसे स्त्री कहते हैं इनके चित्रों की केंद्रीय चेतना है। डॉ रत्नाकर ने अपने चित्रों में आधी आबादी के मर्म को बड़ी संवेदना और रंगों के मनोविज्ञान के साथ भावगम्य अभिव्यक्ति दी है । डॉ रत्नाकर के चित्रों में नारी आकृतियां अमृता शेरगिल एवं बी प्रभा की तरह  एलॉन्गेट होकर चटक रंगों के साथ कैनवास की भूमि पर अवतरित होती है।आज भी देशज भाव बोध का यह चितेरा आधुनिक चित्र तकनीकों के साथ अपनी सृजनात्मकता को अभिव्यक्ति प्रदान कर अपने  देशजभाव  भूमि को अपनी सृजन की नमी से लगातार खींच रहा है।


वर्तमान कला परिवेश में आधुनिकता के साथ-साथ देशज भावों की अभिव्यंजना इनके चित्रों की महत्वपूर्ण पहचान बन गई है। जैसे किसी मेट्रो शहर के सीमेंट और कंक्रीट के जंगल में उनके चित्रों की प्रदर्शनी का होना गांव की माटी की सोंधी गंध को फैला देती है। माटी की यही सोंधी गंध उनके चित्रों का प्रभाव दर्शक के मन मस्तिष्क पर खेतों से आती शीतल व सुगंधित बयार का आनंद  देती है ।चित्रों में ग्रामीण सहजता ,सरलता, चटख रंगों  व रेखाओं की तरलता में बेहद आकर्षक ढंग से अभिव्यक्त होती है। इनके चित्रों की रेखाओं की लय रूपविन्यास को सहज और भावगम्य  में बना देती है। डॉक्टर लाल रत्नाकर के चित्रों में रंग अपनी पूरी चमक व प्रखरता के साथ कैनवास पर उतरते है।

          से. रा. यात्री (साहित्यकार)ने इनकी कला यात्रा पर टिप्पणी करते हुए यह पंक्तियां कही है-          

                  “धूसर प्रांतर के अंचल में,

                 रंगो, रेखाओं का विधान।

                 अक्षितिज सृष्टि के विविध रूप,

     इनके चित्रों में दृश्य मान।।“

इस तरह  डॉ. लाल रत्नाकर आधुनिक कला जगत में अपनी अनूठी पहचान बना रहे हैं, और माटी की यही सोंधी गंध  इनके चित्रों कितने आयामों में, किस तरह से अभिव्यक्त होगी यह देखना रुचि कर रहेगा।

 








महावीर वर्मा
रतलाम, मध्य प्रदेश


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डॉ. लाल रत्नाकर की कला 
प्रत्येक कृति में शब्द भले ही नहीं हैं ,पर नाद है ।

आप जो यूँ अपनी चित्रकला दिखाते है,सबके मन को मोह ले जाते हैं,सबको एक नज़रिया और एक नया दृश्य दे जाते हैं, जब भी आते हैं कल्पना से भरे समन्दर को बहा जाते हैं। मैंने आपको अपने कैरियर के प्रारम्भ से एक अद्भुत वैचारिक क्रांति ,राष्ट्रीय उद्बोधन, सामाजिक समस्याओं, मिट्टी की गन्ध और अंतर्मन की विविध अवस्थाओं की पीड़ा को अपनी रचनाधर्मिता से तरंगायित करके सच्चे अहसास जगाते देखा है । 

प्रतिवर्ष आपके विभाग की प्रदर्शनी की प्रतीक्षा आपके निर्देशित चित्रोंको देखकर उनके रंगों के प्रवाह में अनायास ही बह जाती करती ।

“आधी आबादी" कला संग्रह आपके ग्रामीण अँचल से जुड़े तारों में लिपटा एक हाई वोल्टेज प्रसतुतीकरण है। लगता है किसी अबला के अनुरोध पर चित्रित है-“मेरे दुःखों को रंगों से भर दे। इन्हें कोई आकार दे ताकि वो इन्हें समझ सकें!”रंगों से जो दुनिया सजाई है  ख़्वाबों से तस्वीर बनाई है लगता है ढेर ख़ूबियाँ समाई हैं। 

प्रत्येक कृति में शब्द भले ही नहीं हैं ,पर नाद है । कोई कृति कह रही है- “खो गई हूँ मैं अकेलेपन में,जो मुझ में सिमट आया है" तो दूसरी कहती है- “चल देखें किसे क्या हुआ? घाव पुराना दर्द नया हुआ”!
॥ क्या कुछ चित्रों के लब नहीं कह रहे हैं। यह कला संग्रह वो नशा है जिसमें जीवन की कठोरताओं को विश्राम मिला है। कहीं लगता है कि विषय चित्रकार की उड़न पंखुरी पर बैठकर सतरंगों में उथल पुथल मचा रहा है। तूलिका में वो जादू है जो मौलिकता के साँचे में ढले रंगकार को, देखने वाले को और उसे समझने वाले तीनों के मन को विभोर कर देता है। कहाँ से लाते हैं इतने मुख़्तलिफ़ रंग, बनाकर सात रंग बिखेरते हैं हज़ार रंग॥

मूर्तिकला की अद्भुत रचनाएँ कलाकार की अद्वितीय सरगम, लय और आरोह, अवरोह की सभी संभावनाओं का उद्घोष करती हैं। 

एक मौलिक, बहुआयामी, सिद्धहस्त, रेखाओं को बोल देने में माहिर, कलाक्षेत्र में अपना विशेष स्थान रखने वाले और अपनी कला में अपना  छायाचित्र प्रस्तुत करने में सक्षम अनोखे चित्रकार को मेरा नमन ।
जीवन के विविध पक्षों से सम्बद्ध प्रसन्नता और उम्मीदों के रंग से मढे आपके चित्र हर तरफ़ ख़ुशियों का आग़ाज़ करते रहें…. 



शुभकामनाओं सहित …..

डॉ रमन रानी
विभागाध्यक्ष (सेवानिवृत्त)
(संस्कृत विभाग, 
एम एम एच कॉलेज, गाजियाबाद)
(चौ.चरण सिंह विश्वविद्यालय मेरठ से सम्बद्ध)
(स्थानान्तरित होकर आर जी कालेज मेरठ 
से सेवानिवृत अमेरिका में प्रवास)  
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फारवर्ड प्रेस पत्रिका से :
आम जीवन से जुडी कला

बहुजन दार्शनिकों और महानायकों के चरित्र को उनके चित्र के माध्यम से उजागर करने की डॉ. रत्नाकर तथा ‘फारवर्ड प्रेस’ की मुहिम न केवल सराहनीय बल्कि सामाजिक न्याय की दिशा में उठाया गया क्रांतिकारी कदम है. डॉ. रत्नाकर का यह कार्य इतना मौलिक और महान है कि सिर्फ इन्हीं चित्रों के लिए वे कला इतिहास में लंबे समय तक जाने जाएंगे.

ओमप्रकाश कश्यप June 7, 2016

फारवर्ड प्रेस में महिषासुर, मक्खलि गोशाल, कौत्स, अजित केशकंबलि सहित अन्य कई बहुजन नायकों के चित्र बनाकर उन्हें जनसंस्कृति का हिस्सा बना देने वाले डॉ. लाल रत्नाकर राष्ट्रीय स्तर के प्रतिष्ठित, प्रतिबद्ध कलाकार हैं. पिछले दिनों उनके आवास पर लंबी चर्चा हुई. देश की राजनीति से लेकर सामाजिक-सांस्कृतिक मुद्दों पर वे बड़ी बेबाकी से बोले.  बातचीत की प्रस्तुति और रत्नाकर  की कला-जीवन का विश्लेषण:

अपने चित्रों के माध्यम से उत्तर भारत के गांव, गली, घर-परिवेश, हल-बैल, खेत-पगडंडी, पशु-पक्षी, तालाब-पोखर, यहां तक कि दरवाजों और चौखटों को जीवंत कर देने वाले डॉ. लाल रत्नाकर के बारे में मेरा अनुमान था कि उनका बचपन बहुत समृद्ध रहा होगा. समृद्ध इस लिहाज से कि वे सब स्मृतियां जिन्हें हम सामान्य कहकर भुला देते हैं या देखकर भी अनदेखा कर जाते हैं, उनके मन-मस्तिष्क में मोती-माणिक की तरह टकी होंगी. सो मैंने सबसे पहले उनसे अपने बारे में बताने का आग्रह किया. मेरा अनुमान सही निकला. उन्होंने बोलना आरंभ किया तो लगा, उनके साथ-साथ मैं भी स्मृति-यात्रा पर हूं. वे बड़ी सहजता से बताते चले गए. बिना किसी बनावट और बगैर किसी रुकावट के. जितने समय तक हम दोनों साथ रहे, मैं उनकी जीवन-यात्रा के प्रवाह में डूबता-उतराता रहा.

मध्‍यवर्गीय  परिवार में जन्मे डॉ. रत्नाकर के पिता डॉक्टर थे, चाचा लेक्चरर. गांव और ननिहाल दोनों जगह जमींदारी थी. जिन दिनों उन्होंने होश संभाला डॉ. आंबेडकर द्वारा देश के करोड़ों लोगों की आंखों में रोपा गया समता-आधारित समाज का सपना परवान चढ़ने लगा था. किंतु आजादी के वर्षों बाद भी देश के महत्त्वपूर्ण पदों एवं संसाधनों पर अल्पसंख्यक अभिजन का अधिकार देख निराशा बढ़ी थी. स्वाधीनता संग्राम में आमजन जिस उम्मीद के साथ बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी की और कुर्बानियां दी थीं, वे फीकी पड़ने लगी थीं. दलित और पिछड़े मानने लगे थे कि केवल संवैधानिक संस्थाओं से उनका भला होने वाला नहीं है. इसलिए वे खुद को अगली लड़ाई के लिए संगठित करने में लगे थे. पूर्वी उत्तरप्रदेश और बिहार सामाजिक-राजनीतिक चेतना के उभार का केंद्र बने थे. यही परिवेश किशोर लाल रत्नाकर के मानस-निर्माण का था. तो भी बड़े लोगों की बड़ी-बड़ी बातें उन दिनों तक उनकी समझ से बाहर थीं. बस यह महसूस होता था कि कुछ महत्त्वपूर्ण घट रहा है. परिवर्तन यज्ञ में भागीदारी का अस्पष्ट-सा संकल्प भी मन में उभरने लगा था.


पढ़ाई की शुरुआत गांव की पाठशाला से हुई. हाईस्कूल शंभुगंज से विज्ञान विषयों के साथ पास किया. उन दिनों कला के क्षेत्र में वही विद्यार्थी जाते थे जो पढ़ाई में पिछड़े हुए हों. परंतु रत्नाकर का मन तो कला में डूबा हुआ था. हाथ में खडि़या, गेरू, कोयला कुछ भी पड़ जाए, फिर सामने दीवार हो या जमीन, उसे कैनवास बनते देर नही लगती थी. लोगों के घर कच्चे थे. गरीबी भी थी, लेकिन मन से वे सब समृद्ध थे. तीज-त्योहार, मेले-उत्सवों में आंतरिक खुशी फूट-फूट पड़ती. सामूहिक जीवन में अभाव भी उत्सव बन जाते. रत्नाकर का कलाकार मन उनमें अंतर्निहित सौंदर्य को पहचानने लगा था. गांव का कुआं, हल-बैल, पत्थर के कोल्हू की दीवारें, असवारी, कुम्हार द्वारा बर्तनों पर की गई नक्काशी, सुघड़ औरतों द्वारा निर्मित बंदनवार, रंगोलियां और भित्ति चित्र उन्हें आकर्षित ही नहीं, सृजन के लिए लालायित भी करते थे. गांव की लिपी-पुती दीवारों पर गेरू या कोयले के टुकड़े से अपनी कल्पना को उकेरकर उन्हें जो आनंद मिलता, उसके आगे कैनवास पर काम करने का सुख कहीं फीका था. जाहिर है, अभिव्यक्ति अपना माध्यम चुन रही थी. उस समय तक भविष्य की रूपरेखा तय नहीं थी. न ही होश था कि आड़ी-तिरछी रेखाएं खींचकर, चित्र बनाकर भी सम्मानजनक जीवन जिया जा सकता है. गांव-देहात में चित्रकारी का काम मुख्यतः स्त्रियों के जिम्मे था. उनके लिए वह कला कम, परंपरा और संस्कृति का मसला अधिक था. उनसे कुछ आमदनी भी हो सकती है, ऐसा विचार दूर तक नहीं था.

माता-पिता चाहते थे कि वे विज्ञान के क्षेत्र में नाम कमाएं. उनकी इच्छा का मान रखने के लिए इंटर की पढ़ाई के लिए बारह-तेरह किलोमीटर दूर जौनपुर जाना पडा. कुछ दिन साइकिल द्वारा स्कूल आना-जाना चलता रहा. मगर रोज-रोज की यात्रा बहुत थकाऊ और बोरियत-भरी थी. सो कुछ ही दिनों बाद विज्ञान का मोह छोड़ उन्होंने वापस शंभुगंज में दाखिला ले लिया. वहां उन्होंने कला विषय को चुना. घर पर जो वातावरण उन्हें मिला वह रोज नए सपने देखने का था. कला विषय में खुद को

अभिव्यक्त करने की अंतहीन संभावनाएं थीं. धीरे-धीरे लगने लगा कि यही वह विषय है कि जिसमें अपने और अपनों के सपनों की फसल उगाई जा सकती है. इंटर के बाद उन्होंने गोरखपुर विश्वविद्यालय से बीए, फिर कानपुर विश्वविद्यालय से एमए तक की पढ़ाई की. तब तक विषय की गहराई का अंदाजा हो चुका था. मन में एक साध बनारस विश्वविद्यालय में पढ़ने की भी थी. सो आगे शोध के क्षेत्र में काम करने के लिए वे कला संकाय के विभागाध्यक्ष डॉ. आनंदकृष्ण से मिले. उन्होंने मदद का आश्वासन दिया. लेकिन विषय क्या हो, इस निर्णय में दिन बीतते गए.

उधर रत्नाकर को एक-एक दिन खटक रहा था. इसी उधेड़-बुन में वे एक दिन डॉ. आनंदकृष्ण के घर जा धमके. उस समय तक डॉ. रायकृष्ण दास जीवित थे. वे लोककलाओं की उपेक्षा से बहुत आहत रहते थे. बातचीत के दौरान उन्होंने ही प्रोफेसर आनंदकृष्ण को लोककला के क्षेत्र में शोध कराने का सुझाव दिया. प्रोफेसर आनंदकृष्ण ने उनसे आसपास बिखरी लोककलाओं को लेकर कुछ सामग्री तैयार करने को कहा. इस दृष्टि से वह लोक खूब समृद्ध था. रत्नाकर ने यहां-वहां बिखरे कला-तत्वों के चित्र बनाने आरंभ कर दिए. चौखटों, दीवारों पर होने वाली नक्काशी, रंगोली, पनघट, तालाब, कोल्हू, मिट्टी के बर्तन, असवारी वगैरह. उस समय तक लोककला के नाम लोग केवल ‘मधुबनी’ को जानते थे. पूर्वी उत्तर-प्रदेश के गांव भी लोक कला का खजाना हैं, इसका अंदाजा किसी को न था. अगली बार वे आनंदकृष्ण जी से मिले तो उन्हें दिखाने के लिए भरपूर सामग्री थी. प्रोफेसर आनंदकृष्ण उनके चित्रों को देख अचंभित रह गए, ‘अरे वाह! इतना कुछ. यह तो खजाना है….खजाना, अद्भुत! लेकिन तुम्हें अभी और आगे जाना है. मैं तुम्हारा प्रस्ताव आने वाली बैठक में पेश करूंगा.’ उस मुलाकात के बाद रत्नाकर को ज्यादा इंतजार नहीं करना पडा. विश्वविद्यालय ने ‘पूर्वी उत्तरप्रदेश की लोककलाएं’ विषय पर शोध के लिए मुहर लगा दी. शोध-क्षेत्र नया था. संदर्भ ग्रंथों का भी अभाव था. फिर भी वे खुश थे. अब वे भी इस समाज को एक कलाकार और अन्वेषक की दृष्टि से देख सकेंगे. बुद्धिजीवी जिस सांस्कृतिक चेतना की बात करते हैं, उसके एक रूप को पहचानने में उनका भी योगदान होगा. अथक परिश्रम, मौलिक सोच और लग्न से अंततः शोधकार्य पूरा हुआ. डिग्री के साथ नौकरी भी उन्हें मिल गई. अब दिनोंदिन समृद्ध होता विशाल कार्यक्षेत्र उनके समक्ष था.


डॉ. लाल रत्नाकर ग्रामीण पृष्ठभूमि के चितेरे हैं. उनका अनुभव संसार पूर्वी उत्तर प्रदेश में समृद्ध हुआ है. इसका प्रभाव उनके चित्रों पर साफ दिखाई पड़ता है. उनके चित्रों में खेत, खलिहान, पशु-पक्षी, हल-बैल, पेड़, सरिता, तालाब अपनी संपूर्ण सौंदर्य चेतना के साथ उपस्थित हैं. स्त्री और उसकी अस्मिता को लेकर अन्य चित्रकारों ने भी काम किया है, लेकिन ग्रामीण स्त्री को जिस समग्रता के साथ डॉ. लाल रत्नाकर ने अपने चित्रों में उकेरा है, भारतीय कला-जगत में उसके बहुत विरल उदाहरण हैं. उनके अनुभव संसार के बारे में जानना चाहो तो उन्हें कुछ छिपाना नहीं पड़ता. झट से बताने लगते हैं, ‘मेरी कला का उत्स मेरा अपना अनुभव संसार है.’ फिर जीवन और कला के अटूट संबंध को व्यक्त करते हुए कह उठते हैं, ‘जीवनानुभवों को कला में ढाल देना आसान नहीं होता, परंतु जीवन और कला के बीच निरंतर आवाजाही से कुछ खुरदरापन स्वतः मिटता चला जाता है. जीवन से साक्षात्कार कराने की खातिर कला समन्वय-सेतु का काम करने लगती है.’

डॉ. रत्नाकर के कृतित्व को लेकर बात हो और स्त्री पर चर्चा रह जाए तो बात अधूरी मानी जाएगी. उनके चित्रों में ‘आधी आबादी’ आधे से अधिक स्पेस घेरती है. इसकी प्रेरणा उन्हें अपने घर, गांव से ही मिली थी. दादा के दिवंगत हो जाने के बाद खेती संभालने की जिम्मेदारी दादी के कंधों पर थी. जिसे वह कर्मठ वृद्धा बगैर किसी दैन्य के, कुशलतापूर्वक  संभालती थीं. आप उनके चित्रों में काम करतीं, मंत्रणा करतीं, पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर संघर्ष करतीं, नित-नए सपने बुनती स्त्रियों से साक्षात कर सकते हैं. ग्रामीण स्त्री के जितने विविध रूप और जीवन-संघर्ष हैं, सब उनके चित्रों में समाए हुए हैं. लेकिन उनकी स्त्री अबला नहीं है. बल्कि कर्मठ, दृढ़-निश्चयी, गठीले बदन वाली, सहज एवं प्राकृतिक रूप-सौंदर्य की स्वामिनी है. वह खेतिहर है, अवश्यकता पड़ने पर मजदूरी भी कर लेती है. उसका जीवन रागानुराग से भरपूर है. उसमें उत्साह है और स्वाभिमान भी, जिसे उसने अपने परिश्रम से अर्जित किया है. कमेरी होने के साथ-साथ उसकी अपनी संवेदनाएं हैं. मन में गुनगुनाहट है. गीत-संगीत, नृत्य और लय है. वे ग्रामीण स्त्री के सहज-सुलभ व्यवहार को निरा देहाती मानकर उपेक्षित नहीं करते. बल्कि ठेठ देहातीपन के भीतर जो सुंदर-सलोना मनस् है, अपनों के प्रति समर्पण की उत्कंठा है—उसे चित्रों के जरिये सामने ले आते हैं. यह हुनर विरलों के पास होता है. इस क्षेत्र में डॉ. रत्नाकर की प्रवीणता असंद्धिग्ध है. उनके चित्रों को हम ग्रामीण स्त्री के सपनों और स्वेद-बिंदुओं के प्रति एक कलाकार की विनम्र श्रद्धांजलि के रूप में भी देख सकते हैं.

आधुनिक कला में देह को अकसर बाजार से जोड़कर देखा जाता है. बाजार गांव-देहात में भी होते हैं. वहां वे लोगों को जरूरत की चीजें उपलब्ध कराने के जरूरी ठिकाने कहलाते हैं. वे केवल मुनाफे को ध्यान में रखकर चीजें नहीं बनाते. यानी कुछेक अपवादों को छोड़कर गांवों में बाजारवाद की भावना से दूर बाजार होता है. ऐसे ही डॉ. रत्नाकर के चित्रों में स्त्री-देह तो है, मगर किसी भी प्रकार के देहवाद से परे. गठीली और भरी देह वाली स्त्रियों के चित्र  राजा रविवर्मा ने भी बनाए हैं. लेकिन उनमें से अधिकांश चित्र या तो अभिजन स्त्रियों के हैं या फिर उन देवियों के, जिनका श्रम से कोई वास्ता नहीं रहता. वे उस वर्ग से हैं जो परजीवी है. दूसरों के श्रम-कौशल पर जीवन जीता है. उन्हें बाजार ने बनाया है. चाहे वह बाजार उपभोक्ता वस्तुओं का हो अथवा धर्म का. डॉ. रत्नाकर द्वारा रचे गए स्त्री-चरित्र बाजारवाद की छाया से मुक्त हैं. उनके लिए देह जीवन-समर में जूझने का माध्यम है. इसलिए वहां दुर्बल छरहरी काया में भी अंतर्निहित सौंदर्य है. इस बारे में उनका कहना है, ‘मेरे चित्रों के पात्र अपनी देह का अर्थ ही नही समझते. उनके पास देह तो है, परंतु देह और देहवाद का अंतर उन्हें नहीं आता.’ देह और देहवाद के बीच असली और नकली जितना अंतर है. डॉ. रत्नाकर के शब्दों में, ‘बाजारीकरण देह में लोच, लावण्य और आलंकारिकता तो पैदा करता है, मगर उससे आत्मा गायब हो जाती है. वह निरी देह बनकर रह जाती है. मैंने अन्य चित्रकारों द्वारा चित्रित आदिवासी भी देखे हैं. वे मुझे किसी स्वर्गलोक के बाशिंदे नजर आते हैं. ऐसे लोग जो हर घड़ी बिना किसी फिक्र के आनंदोत्सव में मग्न रहते हैं. उसके अलावा मानो कोई काम उन्हें आता नहीं है.’ वे आगे बताते हैं, ‘मुझे यह कहने में जरा भी अफसोस नहीं है कि मेरे बनाए गए चित्र उन स्त्री-पुरुषों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिन्होंने अपना रूप-सौंदर्य खेत-खलिहानों के धूप-ताप में निखारा है.’ डॉ. रत्नाकर के स्त्री-चरित्रों में प्राकृतिक रूप-वैभव है, इसके बावजूद वे किसी भी प्रकार के नायकवाद से मुक्त हैं. वे न तो लक्ष्मीबाई जैसी ‘मर्दानी’ हैं, न ‘राधा’ सरीखी प्रेमिका, न ही इंदिरा गांधी जैसी कुशल राजनीतिज्ञ. वे खेतों-खलिहानों में पुरुषों के साथ हाथ बंटाने वाली, आवश्यकता पड़ने पर स्वयं सारी जिम्मेदारी ओढ़ लेने वाली कमेरियां हैं. जो अपने क्षेत्र में बड़े से बड़े नायक को टककर दे सकती हैं.’

अपने कई चित्रों में डॉ. लाल रत्नाकर ने कृष्ण को विविध रूपों में पेश किया है. लेकिन उनके कृष्ण देवता न होकर श्रम-संस्कृति से उभरे लोकनायक हैं. वे गाय चरा सकते हैं, दूध दुह सकते हैं और अपनों को संकट से बचाने के लिए ‘गोवर्धन’ जैसी विकट जिम्मेदारी भी उठा सकते हैं.

अपने चित्रों के लिए वे जिन रंगों का चुनाव करते हैं, उसके पीछे पूरी सामाजिकता और जीवन रहस्य छिपे होते हैं. वे उन्हीं रंगों का चयन करते हैं, जो उनके जीवन-उत्सव के लिए स्फूर्ति दायक हों. वे बताते हैं कि लाल, पीला, नीला और थोड़ा आगे बढ़ीं तो हरा, बैंगनी, नारंगी जैसे आधारभूत रंग ग्रामीण स्त्री की चेतना का वास्तविक हिस्सा होते हैं. उत्सव और विभिन्न पर्वों, मेले-त्योहारों पर ग्रामीण स्त्री इन रंगों से दूर रह ही नहीं पाती. प्रतिकूल हालात में इन रंगों के अतिरिक्त ग्रामीण स्त्री के जीवन में, ‘जो रंग दिखाई देते हैं, वे कुछ अलग ही संदेश संप्रेषित करते हैं. उन रंगों में प्रमुख हैं—काला और सफेद, जिनके अपने अलग ही पारंपरिक संदर्भ हैं.’ समाज विज्ञान की दृष्टि से देखा जाए तो ‘काला’ और ‘सफेद’ आधारभूत रंग न होकर स्थितियां हैं. पहले में सारे रंग एकाएक गायब हो जाते हैं; और दूसरी में इतने गडमड कि अपनी AJC-6-300पहचान ही खो बैठते हैं. भारतीय स्त्री, खासतौर पर हिंदू स्त्री जीवन से जुड़कर ये रंग किसी न किसी त्रासदी की ओर इशारा करते हैं. रंगों के साथ स्त्री का सहज जुडाव उसे प्रकृति और सत्य के समीप रखता है. अपनी प्रेरणाओं के लिए डॉ. रत्नाकर भी लोक पर निर्भर हैं. यह सवाल करने पर कि क्या उन्हें लगता है कि वे अपने चित्रों के माध्यम से लोक को संस्कारित कर रहे हैं, वे नकारने लगते हैं. उनकी दृष्टि का लोक स्वयं-समृद्ध सत्ता है, ‘अपने आप में वह इतना समृद्ध है कि उसे संस्कारित करने की जरूरत ही नहीं पड़ती.’ किसी भी बड़े कलाकार में ऐसी विनम्रता केवल उसके चरित्र का अनिवार्य गुण नहीं होती, बल्कि लोक को पहचानने की जिद में आत्म को बिसार देने के लिए भी यह अनिवार्य शर्त है.



एक बहुत पुरानी बहस है कि ‘जीवन कला के है या कला जीवन के लिए’ के बारे में लोगों के अपने-अपने तर्क हैं जो विशिष्ट परिस्थिति के अनुसार अदलते-बदलते रहते हैं. हमारे समय की विडंबना है कि गरीब और साधारणजन के नाम पर रची गई कला, उसके किसी काम की नहीं होती. ऐसा नहीं है कि उन्हें इसकी समझ नहीं होती. दरअसल कलाकार की परिस्थितियां और उसका विशिष्टताबोध किसी भी रचना को जिस खास ऊंचाई तक ले जाते हैं, उसका मूल्य चुकाना जनसाधारण की क्षमता से बाहर होता है. यह त्रासदी कमोबेश हर कला के साथ जुड़ी है. संभ्रांत होने की कोशिश में कला उस वर्ग की पहुंच से बाहर हो जाती है, जिसकी संवेदनाओं से वह वास्ता रखती है. यह कला की विडंबना है. इसलिए डॉ. रत्नाकर हमें याद दिलाना नहीं भूलते कि ‘समस्त कलाएं और जीवन के बाकी सभी उपक्रम अंततः इस दुनिया को सुंदर बनाने के उपक्रम हैं….आखिर वह कला ही क्या जो आमजन के लिए न हो.’

पिछले कुछ वर्षों में डॉ. रत्नाकर की कला के सरोकार और भी व्यापक हुए हैं. वे संभवतः अकेले ऐसे चित्रकार हैं जो सामाजिक न्याय की साहित्यिक अवधारणा को चित्रों के जरिए साकार कर रहे हैं. उन्होंने विशेषरूप से ‘फारवर्ड प्रेस’ के प्रिंट संस्‍करण के लिए ऐसे चित्र बनाए हैं, जिनके बुनियादी सरोकार आम जन की राजनीति और सामाजिक न्याय से हैं. यह समझते हुए कि सांस्कृतिक दासता, राजनीतिक दासता से अधिक लंबी और त्रासद होती है. उसका सामना केवल और केवल जनसंस्कृति के सबलीकरण द्वारा संभव है—उन्होंने परंपरा से हटकर ऐसे लोक-उन्नायकों के चित्र बनाए हैं, जो भारतीय बहुजन के वास्तविक नायक रहे हैं. अपने स्वार्थ की खातिर, अभिजन संस्कृति के पुरोधा उनका जमकर विरूपण करते आए हैं. अतः जरूरत उस गर्द को हटाने की है जो वर्चस्वकारी संस्कृति के पैरोकारों ने बहुजन संस्कृति के

नायकों के चारित्रिक विरूपण हेतु, इतिहास के लंबे दौर में उनपर जमाई है. डॉ. रत्नाकर ने बहुजन संस्कृति के जिन प्रमुख उन्नायकों के चित्र बनाए हैं, उनमें   बुद्धकालीन  दार्शनिक कौत्स, आजीवक मक्खलि गोसाल अजित केशकंबलि, पौराणिक जन नायक  महिषासुर आदि प्रमुख हैं. कुछ और चित्र जो उनसे अपेक्षित हैं, उनमें महान आजीवक विद्वान पूर्ण कस्सप, बलि राजा, पुकुद कात्यायन आदि का नाम लिया जा सकता है.

लाल रत्नाकर द्वारा सभी चित्र

यह ठीक है कि भारत के सांस्कृतिक इतिहास में इन बहुजन विचारकों एवं महानायकों  के चित्र तो दूर, सूचनाएं भी बहुत कम उपलब्ध हैं. लेकिन असली चित्र तो देवी-देवताओं के भी प्राप्त नहीं होते. उनके बारे में प्राप्त विवरण भी हमारे पौराणिक लेखकों और कवियों की कल्पना का उत्स हैं. मूर्ति पूजा का जन्म व्यक्ति पूजा से हुआ है. इस विकृति से हमारा पूरा समाज इतना अनुकूलित है कि उससे परे वह कुछ और सोच ही नहीं पाता है. हर बहस, सुधारवाद की हर संभावना, आस्था के नाम पर दबा दी जाती है. मूर्तियों और चित्रों में गणेश, राम, सीता, कृष्ण, विष्णु आदि को जो चेहरे और भंगिमाएं आज प्राप्त हैं, उनमें से अधिकांश उन्नीसवीं शताब्दी के कलाकार राजा रविवर्मा की देन हैं. अतः बहुजन दार्शनिकों और महानायकों के चरित्र को उनके चित्र के माध्यम से उजागर करने की डॉ. रत्नाकर तथा ‘फारवर्ड प्रेस’ की मुहिम न केवल सराहनीय बल्कि सामाजिक न्याय की दिशा में उठाया गया क्रांतिकारी कदम है. डॉ. रत्नाकर का यह कार्य इतना मौलिक और महान है कि सिर्फ इन्हीं चित्रों के लिए वे कला इतिहास में लंबे समय तक जाने जाएंगे. वरिष्ठ साहित्यकार से.रा. यात्री लिखते हैं—‘भारत के सम्पूर्ण कला जगत में वह एक ऐसे विरल चितेरे हैं जिन्होंने अनगढ़, कठोर और श्रम स्वेद सिंचित रूक्ष जीवनचर्या को इतने प्रकार के रमणीक रंग-प्रसंग प्रदान किए हैं कि भारतीय आत्मा की अवधारणा और उसका मर्म खिल उठा है. आज रंग संसार में जिस प्रकार की अबूझ अराजकता दिनों-दिन बढ़ती जा रही है उनका सहज चित्रांकन न केवल उसे निरस्त करता है वरन भारतीय परिवेश की सुदृढ़ पीठिका को स्थापित भी करता है.

मैं समझता हूं देश के वरिष्ठतम साहित्यकारों में से एक से .रा. यात्री  की प्रामाणिक टिप्पणी के बाद कुछ और कहने को रह ही नहीं जाता.

 








 

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