सोमवार, 28 मार्च 2011

सृजनशीलता कभी भोथरी नहीं होती


संवाद


सृजनशीलता कभी भोथरी नहीं होती

सुप्रसिद्ध चित्रकार लाल रत्नाकर से आलोक प्रकाश पुतुल की बातचीत


लाल रत्नाकर














  क्या जीवन का अनुभव संसार और कला का अनुभव संसार दो अलग-अलग संसार हैं? इन दोनों के बीच आप कैसा अंतरसंबंध देखते हैं?

जीवन का अनुभव संसार मेरे लिए, मेरी कला के अनुभव संसार का उत्स है. अंतत: हरेक रचना के मूल में जीवन संसार ही तो है. जीवन के जिस पहलू को मैं अपनी कला में पिरोने का प्रयास करता हूँ, दरअसल वही संसार मेरी कला में उपस्थित रहता है. कला की रचना प्रक्रिया की अपनी सुविधाएं और असुविधाएं हैं, जिससे जीवन और कला का सामंजस्य बैठाने के प्रयास में गतिरोध आवश्यक हिस्सा बनता रहता है. यदि यह कहें कि लोक और उन्नत समाज में कला दृष्टि की भिन्न धारा है तो मुझे लगता है, मेरी कला उनके मध्य सेतु का काम कर सकती है.

  जब आप लोक और उन्नत समाज की कला दृष्टि की भिन्न धारा का जिक्र कर रहे हैं, तो क्या इसे इस तरह समझना ठीक होगा कि प्रकारांतर से आप यह भी कह रहे हैं कि परम्परा में, उन्नत समाज में लोक की उपस्थिति नहीं है या क्षीण है ?

मेरे कहने का आशय यह है कि लोक और नागर समाज की कला दृष्टि में भिन्नता है. लोक की आस्था सरलता और साधारणीकरण में है. इसके उलट नागर समाज में किसी खास किस्म की कृत्रिमता को अधिक स्थान मिला हुआ है.

  आप अपने कला के अनुभव संसार को किस तरह संस्कारित और समृध्द करते हैं?

मेरी कला का अनुभव संसार लोक है और लोक स्वंय में इतना समृध्द है कि उसे संस्कारित करने की जरुरत ही नहीं पड़ती. जहां तक मेरी कला सृजन का सवाल है तो वह ऐसे परिवेश और परिस्थिति से निकली है, जिसकी सहजता में भी असहज की उपस्थिति है.

  आप शायद अपने बचपन की ओर इशारा कर रहे हैं. मैं जानना चाहूंगा कि अपने बचपन और कला के रिश्तों को आप किस तरह देखते-परखते हैं

बचपन में कला दीर्घाओं के नाम पर पत्थर के कोल्हू की दीवारें, असवारी और मटके के चित्र, मिसिराइन के भित्ति चित्र आकर्षित ही नहीं, सृजन के लिए प्रेरित भी करते थे. गांव की लिपी-पुती दीवारों पर गेरू या कोयले के टुकड़े से कुछ आकार देकर जो आनंद मिलता था, वह सुख कैनवास पर काम करने से कहीं ज्यादा था. स्कूल की पढ़ाई के साथ-साथ रेखाएं ज्यादा सकून देती रहीं और यहीं से निकली कलात्मक अनुभूति की अभिव्यक्ति, जो अक्षरों से ज्यादा सहज प्रतीत होने लगी. एक तरफ विज्ञान की विभिन्न शाखाओं की जटिलता वहीं दूसरी ओर चित्रकारी की सरलता. ऐसे में सहज था चित्रकला का वरण. तब तक इस बात से अनभिज्ञता ही थी कि इस का भविष्य क्या होगा. जाहिर है, उत्साह बना रहा.

ग्रेजुएशन के लिए बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और गोरखपुर विश्वविद्यालय में आवेदन दिया और दोनों जगह चयन भी हो गया. अंतत: गोरखपुर विश्वविद्यालय के चित्रकला विभाग में प्रवेश लिया और यहीं मिले कलागुरू श्री जितेन्द्र कुमार. सच कहें तो कला को जानने-समझने की शुरुवात यहीं से हुई. फिर कानपुर से बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के कलाकुल पद्मश्री राय कृष्ण दास का सानिध्य, श्री आनन्द कृष्ण जी के निर्देशन में पूर्वी उत्तर प्रदेश की लोक कला पर शोध, फिर देश के अलग-अलग हिस्सों में कला प्रदर्शनियों का आयोजन...तो कला के विद्यार्थी के रुप में आज भी यह यात्रा जारी है. कला के विविध अछूते विषयों को जानने और उन पर काम करने की जो उर्जा मेरे अंदर बनी और बची हुई है, उनमें वह सब शामिल है, जिन्हें अपने बचपन में देखते हुए मैं इस संसार में दाखिल हुआ.

• फ़ोटोग्राफ़ी के सहज और सुलभ हो जाने से ललित कलाएँ किस तरह प्रभावित हुई हैं? यदि आपकी विधा की बात करें तो इसने चित्रकार की अंतरदृष्टि को धारदार बनाया है या फिर उसे भोथरा किया है?

फोटोग्राफी का इस्तेमाल बढ़ने से कला प्रभावित हुई है, ऐसा नहीं लगता. हां, इसके कारण कलाकार को नये तरीके और प्रयोग करने की चुनौती मिली है, जिसने सहजतया कलाकार की अन्तर्दृष्टि को सूक्ष्म बनाया है. लेकिन मैं विनम्रता के साथ उल्लेख करना चाहूंगा कि मेरे साथ इससे इतर स्थिति है. मेरे कला प्रशंसक मित्रों का मानना है कि मेरे रेखांकन की प्रतिबध्दता को कैमरे ने कमजोर किया है, जबकि मामला इससे अलग है. रेखाओं की समझ कैमरे से नही आती है. कई बार कैमरा कमजोरी बन जाता है, जिसका दूसरे कई लोग लाभ भी उठाते हैं.

विकास की धारा विभिन्न रास्तों से गुजरती है. मानव मन की अभिव्यक्ति और यथार्थ की उपस्थिति दो स्थितियां हैं, जो समाज और कलाकार के मध्य निरंतर जूझते रहते हैं. ऐसे में समाज को फोटोग्राफी अक्सर उसके करीब नजर आती है. उसमें उसे तत्काल जो कुछ देखना है दिखाई दे जाता है. पल भर की मुस्कान, खुशी, दु:ख, दर्द के अलग अलग स्नैप संतोष देते होंगे, जिनको रंगो का ज्ञान, रेखाओं की समझ है, उन्हें कहां से फोटोग्राफी वह सब दे पायेगी.

इसलिए कलाकार की अर्न्तदृष्टि की उपस्थिति उसके चित्रों के माध्यम से होती है, जिसे उसने कालांतर में अंगीकृत किया होता है, विचार प्रक्रिया के तहत गुजरा हुआ होता है. ऐसे मे चित्रकार सहजतया अपने मौलिक रचना कर्म को तर्को की प्रक्रिया से गुज़ारता है, जिससे उसकी सृजनशीलता की विलक्षणता दृष्टिगोचर होती है. ऐसे में हम यह कह सकते है कि किसी भी प्रकार का आविष्कार या विकास जब भी किसी को अर्थहीन अथवा भोथरा साबित कर देता है तो यह प्रमाणित हो जाता है कि उसमें दम नहीं है. अन्यथा चित्रकार की अपनी धार होती है और अगर वह सृजनशील है तो वह कभी भोथरी हो ही नहीं सकती.
• आपने स्त्रियों पर काफी काम किया है, यदि मैं भूल नहीं रहा हूं तो आपकी पूरी एक श्रृंखला आधी दुनिया स्त्रियों पर केंद्रित है. आपकी स्त्री किससे प्रेरित है?

स्त्रियां जन्म से लेकर अब तक आकर्षित, प्रभावित और उत्प्रेरित करती आयी हैं परंतु इनकी अपनी व्यथा है, जिसे पढ़ना बहुत ही सरल होता है. मुझे यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं है कि मैं पुरुषों को उतनी आसानी से नहीं पढ़ पाता.

मुझे ऐसा लगता है कि स्त्री सृजन की सरलतम उपस्थिति के रूप में परिलक्षित होती रहती है. सौंदर्य और स्त्री एक-दूसरे के साथ उपस्थित होते हैं. ऐसे में सृजन की प्रक्रिया बाधित नहीं होती. मेरी स्त्रियां सीता नहीं हैं, कृष्ण की राधा नहीं हैं और न ही रानी लक्ष्मीबाई हैं. ये खेतों खलिहानों में अपने पुरूषों के साथ काम करने वाली स्त्रियां हैं.

• आपकी स्त्री कर्मठ और गठीली दिखाई देते है, एक तरह की दृढ़ता भी नजर आती है. आपकी स्त्री भद्रलोक की नारी नहीं है वह खेतिहर है, मजदूरी करती है, क्या ऐसा आपकी ग्रामीण पृष्ठभूमि के कारण है?

मेहनतकश लोगों की कुछ खूबियां भी होती हैं जिन्हें समझना आसान नहीं है. यदि उन्हें चित्रित करना है तो उनके मर्म को समझना होगा. उनके लय, उनके रस के मायने जानना होगा. उनकी सहजता, उनका स्वाभिमान जो पूरी देह को गलाकर या सुखाकर बचाए हैं, दो जून रूखा-सूखा खाकर तन ढ़क कर यदि कुछ बचा तो धराऊं जोड़ी का सपना और सारी सम्पदा समेटे वो जैसे नजर आती हैं, वस्तुत: वैसी वो होती नहीं हैं.

उनका भी मन है, मन की गुनगुनाहट है, जो रचते है अद्भूद गीत, संगीत व चित्र जिन्हें लोक कह कर उपेक्षित कर दिया जाता है. उनका रचना संसार और उनकी संरचना मेरे चित्रों में कैसे उपस्थित रहे, यही प्रयास दिन-रात करता रहता हूं. मेरे ग्रामीण पृष्ठभूमि के होने मतलब यह नहीं है कि मैं किसी दूसरे विषय का वरण अपनी सृजन प्रक्रिया के लिये नहीं कर सकता था पर मेरे ग्रामीण परिवेश ने मुझे पकड़े रखा.

• इसमें क्या संदेह है कि देह की एक लय होती है और उसका अपना एक संगीत होता है. लेकिन आपके यहाँ देह की लय लगभग अनुपस्थित है, वहाँ देह एक स्थूलता के साथ सामने आता है, न तो नारी देह में नाज़ुकी की लय है और न पुरुष में बलिष्ठता. अगर है तो वह आलाप नहीं विलाप है. क्या यह अनायास ही है या फिर आपने सायास इसे अपनाए रखा है?

लाल रत्नाकर


बेशक बिना लयात्मक्ता के कला निर्जीव होती है परन्तु मेरे हिस्से वाले जीवन में यदि कुछ अनुपस्थित है तो देह और देह की लय को निहारने की दृष्टि, परन्तु मैंने कोशिश की है उस जीवन के यथार्थ के सौन्दर्य को बिना प्रतिमानों के उकेरने की. यहां मेरे चित्रों के पात्र अपनी देह का अर्थ ही नही समझते. उनके पास देह तो है परन्तु उस देह का बाजार से क्या सम्बन्ध है वह नहीं जानते. जबकि बाजारीकरण उसी देह में लोच और अलंकारिकता की वह कुशलता भर देता है जिससे उसकी अपनी उपस्थिति गायब हो जाती है और प्रस्तुत होता है उसका वह सुहावना, सलोना और आकर्षक रूप जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि इनकी जिन्दगी में कहीं कुछ कमी ही नही है. जीवन के सारे द्वंद्व् खत्म हो गए हों.

अनेक चित्रकारों के आदिवासी स्वरूप मैंने देखे हैं, जिनमें वे चमचमाते हुए किसी स्वर्गलोक के लोग नजर आते हैं. ऐसे लोग जिन्हें न कोई काम काज करना है और न ही आनन्द मनाने के अतिरिक्त उनके पास कोई काम काज है. इसलिए मुझे किंचित अफसोस नहीं होता कि मैं उस सुकोमल नारी और बलिष्ठ पुरुष का प्रतिनिधित्व करूं. बल्कि उस यथार्थ के सृजन में सुकुन और शांति मिलती है जो चिन्तित है अथवा बोझिल है. जिनके पुरूष सारी बलिश्ठता श्रम के हवाले कर चुके हैं-रोग, व्याधि, कर्ज और समय की मार से.

• स्त्री आपकी कला के केंद्र में है और रंग बहुत गहरे हैं. इनमें आपस के रिश्ते को आप किस तरह रेखांकित करेंगे?

जिस स्त्री का मेरी कला से सरोकार है मूलत: वह रंगों के प्रति सजग होती है. उसे प्रारम्भिक रंगो से गजब का लगाव है, जिन्हें वह सदा वरण करती हैं. मूलत: ये मूल रंग इनके मूल में बसे होते हैं यथा लाल पीला नीला. बहुत आगे बढ़ीं तो हरा, बैगनी और नारंगी इनके जीवन में उपस्थित होता है. इसके सिवा उसके जीवन में जो रंग दिखाई देते हैं, वह सीधे सीधे कुछ अलग ही संदेश संप्रेषित करते हैं. इन रंगो में प्रमुख हैं काला और सफेद जिनके अपने अलग ही पारम्परिक सन्दर्भ हैं. इन रंगो के साथ उसका सहज जुडाव उसे प्रकृति और सत्य के समीप रखता है. उत्सवी एवं पारम्परिक मान्यताएं भी इन चटख रंगो को अंगीकृत करते हैं.

• समकालीन दुनिया में हो रहे बदलाव के बरक्स यदि आपकी स्त्री की ही बात करें तो इस बदलाव को किस तरह देख रहे हैं ?

आज के बदलते दौर में हमारी स्त्री उतनी प्रभावित नहीं हो रही है, लेकिन अगली पीढ़ी सम्भव है तमाम बदलते हुए सरोकारों को स्वीकार कर ले. हमारे सामने जो खतरा आसन्न है, उससे एकबारगी लगता है कि इस आपाधापी में उसकी अपनी पहचान न खो जाए.
 
समकालीन दुनिया के बदलते परिवेश के चलते आज बाजार वह सामग्री परोस रहा है, जो उस क्षेत्र तो क्या उस पूरे परिवेश तक की वस्तु नही है. इसका मतलब यह नही हुआ कि मैं विकास का विरोधी हूं लेकिन जिन प्रतीकों से मेरा रचना संसार समृध्द होता है, उसमें यह बाज़ार आमूल चूल परिवर्तन करके एक अलग दुनिया रचेगा, जिसमें उस परिवेश विशेष की निजता के लोप होने का खतरा नजर आता है.

• चित्रकला एक तरह से साहित्य की पड़ोसी होती है, तो आप किन कवियों, कथाकारों को पढ़ते और गुनते हैं? क्या इससे आपकी कला प्रभावित होती है और यदि होती है तो किस तरह?

कबि और चितेरे की डाड़ामेडी' कहानी आपने ज़रुर पढ़ी होगी. मैंने भी पढ़ी है. और ठीक से जिसको पढ़ा है उसमें सबसे उपर मुंशी प्रेमचंद और रेणु का नाम आता है. उसी क्रम में शरतचन्द्र, रविन्द्र नाथ टैगोर, धर्मवीर भारती, राही मासूम रजा को पढ़ने तथा समकालीन कथाकारों में कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, शिवमूर्ति, से. रा. यात्री, संजीव और कुंअर बेचैन के करीब होने का सुअवसर मिला है.

इन सभी के कथा-संसार ने मेरी कला को समृध्द किया है. इनके पात्र मुझे आमंत्रित करते हैं. नि:संदेह कला और रचनात्मकता के नाना स्वरुप एक-दूसरे के लिए एक अवकाश की उपस्थिति तो देते ही हैं.

• एक ऐसे समय में जब बाज़ार में करोड़ों रु. में कोई पेंटिंग खरीदी-बेची जा रही हो, कला के सामाजिक सरोकार को आप किस तरह देखते हैं ?

सदियों पुरानी कला का जो मूल्यांकन आज हो रहा है, वह कम से कम उस अनजाने कलाकार के लिए तो किसी भी तरह से लाभदायक नहीं है. दूसरी बात ये कि आज भी जिस प्रकार से बाजार में कला की करोड़ो रूपये कीमत लग रही है, उससे भले कलाकारों को प्रोत्साहन मिल रहा होगा, लेकिन यह शोध का विषय हो सकता है कि अंतत: बाज़ार में किसकी कीमत है? लेकिन इन सबके बाद भी हरेक कलाकार अपने समय के पृष्ठ तनाव से ही तो मुठभेड़ करता है. और इस पृष्ठ तनाव में उसका समाज और उसका सरोकार ही तो शामिल होता है.

• समाज का एक बड़ा वर्ग है, जिसके हिस्से में ज़िंदगी के दूसरे संघर्ष इतने बड़े हैं कि वहां कला के लिए कोई अवकाश नहीं है. आपके उत्तर को ही समझने की कोशिश करूं तो कला का बाज़ार और बाजार की कला की उपादेयता और कहीं-कहीं आतंक, अंतत: इस समाज को समृध्द नहीं कर रहे हैं. ज़ाहिर है, इसमें कला की जरुरत पर भी सवाल खड़े होते हैं ?

लाल रत्नाकर


जीवन के सारे उपक्रम अंतत: इस दुनिया को सुंदर बनाने के ही उपक्रम हैं. कला के विविध माध्यम कहीं न कहीं हमारे कार्य-व्यापार को और सरल ही बनाते हैं. इसकी जरुरत इतनी आसानी से खत्म होने वाली नहीं है, हां आपूर्ति जब-जब कटघरे में खड़ी होगी, तब-तब इस तरह के सवाल जरुर उपजेंगे.

• कला के व्यावसायिकरण पर काफी बहस हो चुकी है. फिल्मों और विज्ञापनों की बात करें तो इसमें नई तरह की रचनात्मकता दिखाई दे रही है जो कि आम आदमी के काफी करीब भी नजर आती है. दूसरे शब्दों में आप कह सकते हैं कि उनमें एक तरह का सामाजिक सरोकार नहीं तो सामाजिक हलचल तो दिखाई दे ही रही है. पेंटिंग के बारे में आप क्या सोचते हैं?

यह कहना संभवत: सही नहीं है कि वर्तमान समय में फिल्मों एवं विज्ञापनों में सामाजिक सरोकार बढ़ा है या वे जीवन के अधिक निकट आई हैं बल्कि वास्तविकता तो यह है कि वह आम आदमी के जीवन से दूर होती जा रही हैं. इनमें जिस आम आदमी की बात होती है वह शहरी मध्यवर्गीय समाज है. निम्न वर्ग, गांव और उसके आदमी, उसमें कहीं नहीं हैं. इस पर भी वह शहरी मध्यवर्गीय जीवन को नहीं वल्कि उसके सपनों को ही दिखाते हैं या यूं कहें कि सपनों का कारोबार करते है.

कमोबेश पेंटिंग का भी यही हाल है. आए दिन समाचार पत्रों की सुर्खियां कला और कलाजगत के घाल-मेल को उजागर करती रहती हैं. कला में आज सामाजिक हलचल की जगह तिकड़मबाजी ने ले ली है. आज कला के बाजार में विविध प्रकार के द्वार खुल रहे हैं. जबकि कायदे से अभी तक चित्रकला की संभावनाओं पर बहस शुरु भी नहीं हुई है.

• राजनीतिक समाज और नागरिक समाज एक तरह से कला के प्रति उपेक्षा का भाव रखते हैं. यहाँ तक कि अच्छी फ़िल्मों को भारत में कला-फ़िल्में कह कर एक तरह से हाशिए पर रख दिया जाता है और कहा जाता है कि वह कुछ ख़ास किस्म के लोगों के लिए बनाई गई फ़िल्म है, आम लोगों के लिए नहीं. कमोबेश यही स्थिति चित्रकला के साथ नज़र आती है जिसमें कला को समझने, सराहने और ख़रीदने का जिम्मा कुछ ही लोगों तक सीमित नज़र आता है. इस विद्रूपता को आप किस तरह देखते हैं?

आज की राजनीति में मुझे ऐसा नेतृत्व नहीं नजर आता, जो अपनी कला के कारण अपनी उपस्थिति दर्ज कराता हो. हिंदी पट्टी में यह स्थिति और ख़राब है. नागर समाज में कला का यह स्वरुप और भी भोंडेपन के साथ उभर कर सामने आया है. चाहे वो वस्त्र का मामला हो या फिल्मों का. कला की दुनिया में एक खास किस्म का वर्ग उभर कर सामने आया है, जिसके लिए कला जीवन का विषय नहीं है. ऐसे वर्ग के लिए हरेक कला केवल निवेश का मुद्दा है.

• क्या आप ऐसा कोई समय आता हुआ देखते हैं जिसमें कला, बाज़ारनिष्ठ होते जा रहे समाज में आमजन तक पहुँचे, सभी उसे समझ सकें और उसकी सराहना कर सकें?

सिध्दांत के तौर पर कहें तो वह कला ही क्या जो आमजन के लिए न हो. लेकिन यह किंचित पीड़ा के साथ स्वीकार करना पड़ता है कि कला और आमजन के बीच एक दूरी हमेशा से रही है और इसीलिए हमेशा से हमारे देश में कला को राजाश्रय में जाना पड़ा है. आमजनों के भरोसे कला का जीवित रहना न पहले संभव था और न अब है. इसलिए यदि समाज बाज़ारनिष्ठ होता जा रहा है तो यह एक शुभ संकेत इन मायनों में तो है ही कि शायद इसी तरह कला को राजाश्रय का मोहताज न होना पड़े. लेकिन जहाँ तक समझ का सवाल है तो इसके लिए जो संस्कार चाहिए, वो दुर्भाग्य से समाज में नहीं दे पा रहे हैं और इसलिए कला आमजन की समझ या पहुँच से दूर दिखाई देती है.

गुरुवार, 24 मार्च 2011

वर्तमान में महिला सशक्तिकरण और शैक्षिक संवर्धन

(राष्ट्रीय सेमिनार-राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय कांधला,मुज़फ्फरनगर ) 
महिलाओं की व्यापक सहभागिता और सांस्कृतिक संवर्धन
- डॉ.लाल रत्नाकर  
भारत में सदियों से सामाजिक स्तर पर विविध प्रकार का युद्ध चल रहा है जहाँ महिला, दलित और पिछड़े समान रूप से उससे प्रभावित हो रहे हैं, यहीं इनकी कुछेक संख्या को अलग कर उन्हें धोखे में रख शोषण की  चालाकी से उनकी प्रतिभाओं की स्तुति करके बहुसंख्य से बाँट करके बहुत ही करीने से अपमानजनक अवस्थाओं में खड़ा करके यशस्वी होने का जो भ्रम उत्पन्न किये हुए है, उससे एहसास होता है की भारत आज भी 'मनुस्मृति' की जकड की जटिल मान्यताओं के आधार पर ही चल रहा है.
आज दुर्गा,लक्ष्मी और सरस्वती, शक्ति, धन और ज्ञान की देवी के रूप में पूज्य हैं, इनकी प्रतीतात्मकता का पूरा शोषण पूंजी और धार्मिक धर्माधिकारियो के द्वारा किया जाता है. जबकि पूरी स्त्री जाती उन्ही के द्वारा नित्य अपमानित होती है. और यहीं से शुरू होती है वह जंग. यही कारण है कि भारत कि महिलाओं को भी भारतीय समाज की तरह बाँटकर रखा गया है. आज जब समस्त विश्व जागरूक हुआ हैं विविध सवालों पर तब भी भारत उसी तरह पिछड़ा है महिलाओं के सवाल पर. इन्ही बंटी हुयी महिलाओं की संवेदना के मध्य का है मेरा रचना संसार. इन्ही महिलाओं ने भारत के आधे काम अपने कन्धों पर उठाया हुआ है पर उनकी हिस्सेदारी के सवाल पर उन्हें तिरस्कार, उत्पीडन, दुराचार एवं बलात्कार के जटिलतम सन्दर्भों से गुजरना ही जीवन और मरण के मध्य का हिस्सा बन जाता है, इस तरह की सलीबों पर लटकी हुयी जिंदगी कैसे अपने धर्म का निर्वहन करती है यहीं से निकलती हैं वह संवेदनाएं जिन्हें हम देख पते हैं - माँ, बहन, पत्नी और बेटी के रूप में ही नहीं अनन्य रिश्तों में उतरती नारी क्या वास्तव में उक्त 'प्रपंचों' की अधिकारिणी है.
इन्हीं में से निकलती नारी आज क्या सदियों से अपने कौशल और सयंम से समाज को अपने को सहेजते जिस शक्ति का परिचय दिया है यही कारण है की पुरुषों को पछाड़ विविध क्षेत्रों में अग्रणी रहने की अपनी जगह बनाई है, इसमे उन नारियों का भी मान बढ़ाया  है जिसमे सदियों से सत्ता के सर्वोच्च शिखर तक पहुँचने की उनकी इक्षा की पूर्ति हुयी है.
आज का समाज नारी को प्रयोग और प्रदर्शन की सामग्री ठीक उसी तरह से बना रखा है जैसे दलितों और पिछड़ों को, जहाँ जहाँ स्त्री अपने पराक्रम के बल पर आगे आने की बात करती हैं, उसको वहाँ बांटने के सारे हथकंडे अपनाये जाते हैं वह संसद, समाज  या घर का  सवाल हो.
इन्ही वसूलों के विरोध में खड़ी हमारी रचनाएँ संभवतः तथाकथित सभ्य समाज को वैसे ही प्रतीत होती हैं जैसे वास्तविक जीवन की उनकी कुत्सित मान्यताएं. प्रकृति प्रदत्त उनकी अवस्थाएं जिन्हें विभाजन की आज़ादी देती हैं जो वास्तव में उनकी खूबसूरती हैं.

मंगलवार, 22 मार्च 2011

Dr.Lal Ratnakar’s Paintings


Dr.Lal Ratnakar , born on August 12 ,1957 in a remote village of Jaunpur, Uttar Pradesh, has arrived on the art stage after much struggle. There was tremendous resistance from his family during his early days; since the elders of his family were physicians, and they wanted him to continue the family traditions.

Dr. Ratnakar completed his Ph.D work on Folk Art Of Eastern Uttar Pradesh under the able guidance of Prof. Anand Krishna from B.H.U. Varanasi. Since then he had worked on to bring out the beauty and pain of Indian women folk, belonging to the different parts of the country, onto the canvas, through some revolutionary colour schemes and realistic compositions. One can notice a hue of earthy tones all over his canvas. One can also observe that  in his paintings, he had given more preference to women and their struggle with life. He is of the opinion that the expressive power of women  is much greater than that of men and specifically among village women, it is distinctly noticeable.

Most of his works are melancholic, representing the general mood of rural women burdened by strictures imposed on them by the  predominantly male chauvinistic society. As mentioned earlier his compositions are realistic with strong emotional undercurrents. One can liken his images to that of the characters in the stories of Munshi  Premchand, who also chose the province of Poorvanchal as the centre stage of his creations (short stories and novels). On observing his paintings one can feel the emotions of the subjects portrayed in his works. Emotions as varied as anger, lust, insecurities, shame, sadness, love, hate, etc. Some of his works are so comprehensive that he had assigned different emotions to each of his subjects within a single frame. In one of his paintings he had filled silent moans of a bride, who is about to leave her parental home to a distant place where her in-laws reside, never to come back for good, not sure of what lies in store for her  in days to come.  The  bride  is going through a feeling of excitement as well as fear, It seems Ratnakar, like a spirit, has entered into the subject and read the feelings, himself.

Apart from sighs and cries of individual subjects Dr. Ratnakar had also dealt with the politics of the area under his study. He had given form to some political elements like cast supremacy and exploitation of the weak. At certain points he had criticised the clergy and at some places he had applauded the good works of the torch bearers of Indian culture. His language though looks simple, has many layers to it, one can appreciate it only by observing his work.

Dr. Ratnakar has also given his due to the society in general, and to the artist community in particular.   He had been associated with Kaladham, a centre of art that came up at Kavi Nagar Ghaziabad. This is one of the best things to have happened in this part of NCR. Kaladham has an art gallery and an open-air theatre in a big compound, this is perfect space for art connoisseurs as they get opportunities to see the work of various artist as many exhibitions and workshops are organized here quite frequently. Dr. Ratnakar had painstakingly pursued the dream, was instrumental in arranging the funds and convincing the political leadership of  Uttar Pradesh about the need of Kaladham. It was his stature as an artist that ultimately, led the leadership to consider his worthy proposal.

In the meanwhile Dr. Ratnakar had held solo shows and exhibitions all over the country, and that too in reputed art galleries. Some of his work had also been exhibited abroad, like the one in Dubai from where he received a lot of accolades. Many great poets and novelists had utilized Ratnakar’s paintings and sketches to add to the visual content of their work. They have used his paintings to illustrate the cover of their publications, his sketches to aid in visualizing the background of the plot. Since Ratnakar’s paintings and sketches render the essence of rural life, its culture and ethos, he has become a house hold name among literary circle and their target readers.

With artists abounding in numbers, standing out among the crowd is a major challenge. Some of them get the right break by virtue of their talent and sheer originality. Dr. Lal Ratnakar undoubtedly belongs to this category. Dr. Ratnakar is an experimenter in his field. He had evolved his own bold style of expression which stands out among the crowd. His works hold a place of prominence in the  artistic world. Ratnakar vividly portrays people and their everyday affliction in wonderful colour combinations.  Art lovers , Critics and Art Collectors have appreciated his work and it had found place in their hearts and homes. He had come a long way and he is bound to go much further. He is presently working as Associate Professor & Head in Department of Drawing & Painting MMH College Ghaziabad (CCS university Meerut)

Ratnakar is presently conducting a solo exhibition titled “ Vibes of Womenfolk” at Lalit Kala Akademi. This is an exhibition of his selected works and as the title suggests one can actually feel the vibes that emanates from each of his paintings. It is this vibes, created from his brush that is crucial in stirring the sensibilities of the viewer.

Media Reviews

THE TIMES OF INDIA
March 15,2007, New Delhi
Pastoral Panorama, Glimpses of rural India come alive on the canvas
of Dr. Lal Ratnakar
Nilakshi Bhattacharyya
He has greatly been influenced by the works of Munshi Premchand. And just like the great litterateur ,he looks at rural India while choosing the subject of his paintings. “I draw inspiration from the peasant folk of the areas in and around Banaras , which, I feel, has not been portrayed as widely as rural Rajasthan. I try to capture the fighting spirit of these people who, despite facing so many hardships in life, do not lose their jest for life,” reveals Dr. Lal Ratnakar, a painter based in Rajnagar, Ghaziabad. A native of Jaunpur, his first exposure to the world of art came in the form of wall paintings done by the women folk in his village. “Actually I also started with that. I used to draw flowers, animals and birds on the walls of our house with charcoals .” reminisces the artist, who was clear right from childhood that he would become an artist when he grew up. “I got full support from my family. Eventually I did masters in drawing and painting from Kanpur University, ”he says. But it was during his research for his doctorate under Prof. Anand Krishan in Banaras University that he got a direction to give vent to his creativity . “The whole atmosphere in his house was very art-oriented. It was here that I first got the chance to understand art in its true sense. And this is something for which I will always be indebted to Prof. Krishan . It is very important for an artist to understand his true calling. I feel this more nowadays when I see many aspiring artists work without actually knowing the meaning of art,” reveals Ratnakar, who has participated in many exhibitions in the country. At present Ratnakar is associated with Kaladham, a centre of art that came up at Kavi Nagar, Ghaziabad. “This is one of the best things to have happened in this part of NCR. Kaladham has an art gallery and an open air theatre in a big compound. This is the perfect space for art connoisseurs as they get opportunities to see the work of various artists as many exhibitions and workshops are organized here quite frequently. Next in the offing is a 10-day workshop from April 4. Fifteen artists from all over the country will come together to share their work.” says Ratnakar who is the convenor of the programme. Presently he is attached with MMH College, CCS University, Meerut, as a faculty member of Fine Arts.

Hindustan Times
New Delhi, Friday, January 23,2004,
A firm believer in woman power
Aparna Singh Gupta
As a 16-years old, his favorite pastime was to paint mud – houses of his neighbours with multi-colored motifs. Born and brought-up in Jaunpur district near Banaras, he made different shapes by filling mud in utensils in his kitchen.
Being a painter was considered a taboo for Dr. Lal Ratnakar, born in the family of homeopathic doctors. Proficient in rural motifs, Ratnakar is a painter whose art forms take inspiration from folklores. While colours and nature attracted him, it was mandatory for him to take up science.
Lal got his first break when a family friend was contesting local elections. “His symbol was a horse I tore my school copies to create the symbol. While my parents fumed at what I had done , my work of art was used as his symbol finally and that was a turning point my life” he says.
While Lal had to clear his class 12 exam in the science stream, he started working as a political cartoonist at 16. As he was struggling through his studies , Lal finally decided to leave everything and get admission in Banaras Hindu University, where he did his Ph.D in western U.P. Life changed from then on, visiting interior U.P. Studying the meaning of each symbol  created by folk artist was a task in itself .
“I visited places like Azamgarh, Jaunpur and Mirzapur . It was  a very new experience to learn about wood and stone carvings . It was a true form of art and opened totally new avenues for me,” he says.
Lal is a figurative artist and has over 1000 paintings to his credit . The dominating power of his work remains women in these small villages. “Expressive power of women are much greater then that of men. And village women are comparable to men in the true sense ,”he says .
From a small village boy who experimented with ‘geru’ haldi and rice powder, to an important member of the  Lalit Kala Academy , Lal surely has created works with a difference which is amply revealed in his works.

THE ECONOMIC TIMES
KOLKATA
SUNDAY 16 September.2001,
Rupa Rai Chaudhari
The Birla Academy of Art and Culture is having an exhibition of works by Dr. Lal Ratnakar till September 16. Dr. Ratnakar is from Jaunpur, a village in Uttar Pradesh. His work is strongly realistic and convincing  because of it . His aim is to preserve the linear form of the traditional art. In terms of  colours , Ratnakar is happiest with yellow , shades of brown and deep red . His show is very appropriately called Mati Ke Rang .
Ratnakr’s works are scenes from life in Jaunpur village. Women sitting indoors, their cattle grazing outside,as in Mulakat, or an old man resting with his hookah while a woman tends to the cattle, as in Vishram.
Everywhere, the scenes tell a story. Amanat shows the village woman as a custodian of wealth/property and stresses on her qualities of patience and dependability . The woman, her face covered, merely holds a sheet of paper, as if giving it away. In Mashwara III the wide, angry eyes of the man admonish the innocent woman sitting opposite him . Judai, a work done in deep , rich colours, shows a married woman who will now be separated from her kin. Vishram II shows a couple talking ,the woman cradling her child. It’s done almost entirely in ochre and deep red.
The dramatic element in Ratnakar’s works is as strong as his realism .
Vishram II is a fine , graceful work. Intajar is even more so. Perhaps the most spontaneous and “inspired” work in these show is Andhi, done on the stormy, dark afternoon of September 10.
While it poured, Ratnakar was sitting inside his car, his fingers “restless, fidgeting with creativity,” says his colleague. He had a canvas in the car, and Andhi was created. A powerful, fine work.

THE PIONEER,
New Delhi, Friday June 22,2001
Earth colours his palette
Lal Ratnakar talks to Rajeev R Roy about his vibrant talking canvas that vividly captures stories on rural ethos with a fine understanding of the syntax
With artists abounding in numbers, standing out from the crowd is a major challenge.Some get the right hit, managing virtue of their talent and sheer originality. Dr. Lal Ratnakar undoubtedly belongs to this category. His paintings are a poignant reflection of the multifarious—and very often neglected—facets of rural life. Ratnakar’s canvases depict day-to-day concerns of rural men and women. These are the figures which hold a place of prominence in his artistic world. Ratnakar vividly portrays their everyday afflictions in wonderful colour combinations. It’s all here-the grass, the widows, whose men are a thousand miles away in distant lands. The eagerly awaited letters and discussion over their contents are repeated between family members and friends. The village woman suffers, lonely in the privacy of  her  embroidered ghunghat.
The artist also offers a glimpse of the rural men’s life, with depiction of them relaxing under a peepal tree after a hard day’s work in the fields. Palaver in the shade appears their only source of release. The artist brushes all these realities into place with earthy, dark, rich colours and bold, yet flexible lines. His panels come alive with women, men, somnolent cattle, pots and a countryside landscape. It all seems like a trance creation from one of Munshi Premchand’s short stories.
Some of Dr. Ratnakar’s works resemble murals, with their images of peasants in revolt  against social injustice or village women gathering in large numbers to brood over important problems. About his preference for rural episodes, Dr. Ratnakar says, “I am rooted in rural India. It’s the only real India I know. The rest is superficial and transient. And I say this despite my veing an urban dweller whose life mostly revolves around urban people and city culture.”
One of the reasons for tackling earthy subjects stems from Ratnakar’s love and regard for the people whom he views as down-to-earth. “They do not hide their feelings and their problems are real as against the psychological ones urbanites tend to develop.” In fact, his subjects are people in distress who seldom fit into the scheme of modern artists.  Dr. Ratnakar’s love for paintings has scarcely wavered, despite various ups and downs in his artistic life. “Artists were meant to be suffering. One suffers the most when he paints people no one is concerned about,” argues the artist. Whatever success he has achieved to date, he attributes to artists like Maqbool Ansari of Kanpur University and Prof. Anand  Krishna of Banaras Hindu University. “They are still my source of inspiration and encouragement,” he admits. Ratnakar was born in August 1957 at Jaunpur, eastern Uttar Pradesh. As a schoolboy, he would often observe the variety of figures and lines drawn on mud walls by village men and women. But it never crossed his mind he might be an artist one day. His father wanted him to be a doctor. Though he’s got the “Dr” appendage to his name now after research studies, painting is where his heart is. “In the beginning, I found myself at a loss seeing village womenfolk waste precious time in useless pursuits like drawing lines on the walls that resembled Hindu gods and goddesses, animals and birds. But I gradually came to understand and appreciate the artistic nature of these activities. I also felt the urge to highlight their significance through my own paintings,” recalls Dr.Ratnakar. He adds, “Their poverty is reflected in brilliant works of art drawn in a haphazard manner.” One art critic says of him,  “Dr.Ratnakar is by and large a painter of folk life. And since he belongs to a rural background himself, he has been able to capture moments of rural life we are hardly able to recognize.”
Rajeev R Roy
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प्रख्यात मिडियाकर्मी वर्तिका नंदा की कविताओं की पुस्तक राज कमल प्रकाशन से प्रकाशित हुयी है जिसके कवर को मेरी पेंटिंग से सुसज्जित किया गया है .
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इनके अतिरिक्त बहुत सारे कवर उन्होंने बनाये हैं मेरी तस्वीरों के. कुछ को संलग्न कर रहा हूँ-
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कला और समाज में शैक्षिक भविष्य की समस्या
डा.लाल रत्नाकर 

                     समकालीन कला पर विचार करने से पहले हमें भारतीय कलाओं के क्रमिक विकास के परिदृश्य को समझना होगा, जैसा कि सर्वज्ञात है कि सदियों से कला जगत का अपना गौरवशाली इतिहास रहा है। अतः जब भी किसी तरह के विकास की बात होगी और उनमें कला के विकास अवधारणओं की चर्चा हो या नहो फिर भी कलाओं की उपस्थिति तो अनिवार्य होगी ऐसे में भारत के सम्पूर्ण कला विकास को नजरअंदाज करना बेमानी ही होगा। यहां यह नहीं कहा जा सकता कि कलाओं के वर्गीकरण के पूर्व जो कलात्मकता आज इतिहास का महत्वपूर्ण हिस्सा है वह सहज आ जाती रही होगी अपितु उसके ज्ञान को देने की प्रविधियों को नजर अन्दाज नहीं किया जा सकता। कलाओं के समय समय की प्रगति एवं अवरोध इस प्रभावी भावना के निष्पादन में कालचक्र का अपना महत्व होता है अतएव इसमें उनकी दुरूहता जितनी भी आड़े आयी हो उससे उसकी रचना प्रक्रिया के कौशल को कमतर करके देखना हो सकता है आज प्रासांगिक न हो पर इसके रचना के कौशल ने कभी अपने को समाप्त नहीं होने दिया है, ज्ञान के इस अद्भुत स्वरूप पर मनीषियों की दृष्टि सम्भव है बहस को स्थान दिया हो पर रचना प्रक्रिया की जटिलता को जिन रचनाकारों ने गौरवशाली बनाया वास्तव में वास्तविक योगदान उनका है। 
                    उत्तरोत्तर नकारात्मक रवैये को यदि त्यागते हुए वैश्विक कला इतिहास पर दृष्टि डालें तो यह तथ्य करीने से प्रमाणित होते हैं कि धर्म समाज और राज्य कला विकास की प्रक्रिया को जितना प्रभावित करते हैं उससे कहीं ज्यादा रचनाकार का कौशल। विज्ञान, साहित्य एवं परम्पराएं जब जब धर्म और समाज के पक्ष और प्रतिपक्ष में आती हैं तो उदारता अनुदारता अनिवार्य रूप से कलाओं की रचनात्मकता को प्रभावित करती हैं। यहां शिक्षा का महत्वपूर्ण स्वरूप भी सहज ही सम्मुख आता है जब हम भारतीय शिक्षा व्यवस्था के इतिहास पर दृष्टि डालते हैं। इस अप्राकृतिक प्रक्रिया के चलते मौलिक प्रक्रिया के विस्तार की वजाय प्रतिरूपण और अलंकारिकता के वैभव का ही विस्तारित कला का स्वरूप ही अधिक प्रचलित हो पाया, यही कारण है कि कलाएं सामाजिक स्वरूप में स्वीकार्य तो रहीं पर उतनी विकसित न हो पाने का कारण कहीं न कहीं असमानता और मानसिक दिवालियेपन की कहानी कहती नजर आती हैं। यदि यह सब व्यवस्थित और उनमुक्त मौलिकता की स्थिति में होता तो भारतीय कला का गौरवशाली स्वरूप इतिहास के ही नहीं वर्तमान में भी दुनिया को दिशा देता। 
                     इतिहास के गर्भ में पल रहे भारत का कला वैभव विखरा पड़ा है, ठीक उसी तरह जैसे यहां का सामाजिक स्वरूप। जब भी हम इसका विस्तार और निरपेक्ष अध्ययन करेंगे तो अनोखा सच सम्मुख आएगा। इन्हीं विविधताओं को समेटे यहां का गौरवशाली समाज सदियों की मानसिक गुलामी एवं बदहाली में डूबा यह महान रचनाकार अपनी सीमाओं में सिमटा, देश की अनन्य बाधाओं, हमलों, लूट-खसोट और अराजकताओं के मध्य जो कुछ कर पाया वह यहां के साम्राज्यों मठाधीशों की जागिर के रूप में महफूज है। वह अपनी कहानी इतिहास के पन्नों की जुबानी भले ही वयां न कर पाया हो पर किसी न किसी रूप में उसकी दशा पर जिक्र आ ही जाता है यथा ताजमहल जैसी विश्वविख्यात रचनाकार के हाथों के कलम कर दिये जाने के उद्धरण भी मौजूद हैं। यहां भी कलाकार की वास्तविक दशा के रूप में निश्चित तौर पर जो यातना जाहिर हो रही है कमोवेश यही दशा आज तक बनी हुई है। अतः भारत अपनी कलाओं के विविध स्वरूपों की वजह से अपनी पहचान बनाने में सम्पूर्ण संसार में कामयाब जरूर हो रहा है, पर उसके निहितार्थ अलग हैं। यही कारण है कि दुनिया के विविध देशों में भारतीय कलाएं आज चर्चा में ही नहीं उनकी मांग भी बनी हुई हैं पर यदि इनके समग्र विकास की प्रतिबद्धता भी पारदर्शी होती तो कुछ और बात होती। हो सकता है कि यह उल्लेख कष्टकारी और अव्यवहारिक लगे जो अपने आप में उक्त तथ्यों को ही बल प्रदान करेगा आज नहीं तो कल।      
                   फिर भी इतिहास बताता है कि भारतीय संस्कृति और सभ्यता के विकास की जो प्रक्रिया प्रारम्भ हुई और उनमें में जितनी विधाएं यशस्वी हुई हैं, उनमें ललित कलाओं का महत्वपूर्ण स्थान एवं योगदान रहा है। भारत का हर युग अपने समय में किसी न किसी रूप में कलाओं को समेटे हुए है, यहां पर समुचित रूप से देखा जाय तो निश्चित रूप से कलाओं से पटा पड़ा है। पर दुखद है कि जितना   ध्यान जाना था वह सम्भवतः नहीं जा पाया है। वैसे तो भारत के गौरवशाली इतिहास में यह उल्लेख है कि समय समय पर इन विधाओं पर ध्यान रहा है, जिसके कारण कलाओं की स्थिति विविध संकटों के समय में भी कुछ न कुछ नूतन ही प्राप्त किया है। यही कारण है कि भारतीय समाज के सांस्कृतिक परिवेश में व्यक्ति को साहित्य, संगीत  और कलाओं के बिना पशुवत रूप में देखा जाता रहा हो वहां कला की महत्ता स्वतः समृद्ध हो जाती है, यथा उसे प्रमाणित करते हुए ये पंक्तियां उक्त अवधारणा को पुख्ता ही करती हैं- 
                    साहित्य संगीत कला विहिनः। साक्षात् पशु पुक्छ विषाण हीनः।। 
                    यही कारण है कि भारतीय मानस कला रूपों को अपने जीवन के हर हिस्से में आभूषण के समान सजोकर रखा है शिलाखण्डों से लेकर देह तक का उपयोग इसके लिए किया गया है, भारतीय मानस का यही कला प्रेम विविध रूपों में प्रस्फुटित हुआ है, गीत संगीत नृत्य चित्र मूर्ति एवं स्थापत्य आदि में तथा दैनिक उपयोग की विविध सामग्रियां जिनमें आभूषणादि के अतिरिक्त नाना प्रकार के उपयोगिता की सामाग्रियों के अलंकारिक संसाधनों में ये विविध कला रूप प्रचुरता से प्राप्त होते हैं। यही कारण है कि लोक और विशिष्ट में कला अभिप्रायों की तमाम समता दृष्टिगोचर होती है। जिसको कालान्तर में पुनः नवीनतम तरीके से सामंजस्य के साथ प्रयुक्त किया गया है। यहां प्रयुक्त कलात्मकता की विवेचना भी महत्व की है, जिसमें कालान्तर में बहुत परिवर्तन देखने को मिला है, यहां पर यह महत्वपूर्ण है कि जिन कलारूपों की रचना समाज को प्रतिविम्बित करती थी वह धीरे धीरे विलुप्त हो रही है। यहां यह महत्वपूर्ण है कि सामाजिक पहचान में भी कलाएं बहुत सहयोगी थीं जो चुपचाप अपना काम करती रहती थीं। 
                    इन कला रूपों के निर्माण की प्रक्रिया में कला शिक्षा की प्रक्रिया पर गौर करें तो अधिकांश में परम्परागत गुरू-शिष्य या पारिवारिक परम्परा में यह कलाएं आगे बढ़ीं जिससे सांस्कृतिक सम्पन्नता आयीं जिसे हम अपने भारतीय समाज के विविध जातीय कार्यों के पेशेवर विविधता के रूप में भी देख पाते हैं। यही इनके सीखने के केन्द्र रहे हैं जो इन्हें परम्परा से पीढ़ी दर पीढ़ी इसके सम्पन्न स्वरूप प्रदान करते आए हैं। जितने भी उदाहरण मिलते हैं सबमें इन्हीं परम्परागत रूप से दी जाने वाली शिक्षा आज भी महत्वपूर्ण है। इसीलिए गुरू शिष्य परम्परा या घरानों के रूप में जिन्हें इसका सम्मान मिला वे इस विधा और ज्ञान के प्रसार में निश्चित रूप से समर्पित लोग थे। जिन्हें उनके कौशल की वजह से ही जाना गया। यही कारण है कि वो आज भी उन्हीं महत्वपूर्ण रूपों मे मौजूद है। 
                   इस परम्परा को आगे बढ़ाने और परवान चढ़ाने में जो कलाकार आगे आए उन्होने पीछे मुड़कर नहीं देखा, यथा कला के नये आयाम, नए प्रतिमान, नये मायने और नवीन तकनिकियों की खोजकर उनका भरपूर प्रयोग किए। यही कारण है कि समकालीन कला अपने विविध स्वरूपों में नजर आनी प्रारम्भ हुई। अब कला के मायने केवल और केवल पुरातन अर्थ समेटे रूपाकार न रहकर विविध अवस्थाओं व्यवस्थाओं को चिन्हित कर उनपर कलाकृतियों का सृजन हुआ। बृहत्तता और सूक्षमता का सामंजस्य एक साथ सामने आया, वसुदेव कुटुम्बकम की अवधारणा बलवती हुयी। चिन्तन की दिशा बदली, विषय बदले, माध्यम बदले। यही कारण है कि गुरू-शिष्य कहीं न कहीं मन्द पड़ी स्वतन्त्र विचारों का प्रसफुटन होना प्रारम्भ हुआ जिससे पारिवारिक परम्परा भी कमजोर हुई। यही कला कालान्तर में समकालीन कला के रूप में प्रतिस्थापित हुई और उसके कलाकारों ने समकालीन विचारों को लेकर विविध तकनीकियों का उपयोग कर एक नयी धारा की शुरूआत हुई है।
                    कालान्तर में इनके चलते अनेक तरह बदलाव के साथ नवीन परिवर्तनों ने विभिन्न प्रकार के माध्यमों को भी आजमाया और इनके विभिन्न शिक्षण केन्द्रों में भी इस नए बदलाव की शुरूआत हुई। जो विभिन्न स्कूलों के रूप में सामने आए विशेषकर ब्रिटिश शासन काल में जिन पश्चिमोन्मुखी कला शिक्षण की शिक्षा को प्रारम्भ किया गया उनमें पारंगतता के उपरान्त भी केवल कला की पराधीनता की जिस विधा को भारतीय कला के स्थानापन्न करने के लिए जिन अनेक स्कूलों की स्थापना हुई थी वहीं धीरे धीरे नवीन अवधारणा ने जगह बनाई। उनकी उपस्थिति आज हमारे सम्मुख जिस रूप में है वह कितनी सुखद है उसका मूल्यांकन अलग तरह से किया जाना चाहिए। पर इनकी प्रासांगिकता तत्कालीन दौर में जो भी रही हो पर आज उनका स्वरूप काफी बदल गया है। जबकि संगीत और नृत्य के अनेक घराने आज भी अपनी महत्ता कायम किए हुए हैं। 
                    क्योंकि कला शास्त्रों से बहुुत पहले की चीज है अतः कलाओं की मूल्य दृष्टि एवं मानवीय उपयोगिता का सवाल हमेशा सृजन की संभावनाओं को स्थान प्रदान करता है, यही कारण है कि रचनाओं की विविधता का शास्त्रीय स्वरूप तय किए जाने के बाद भी वह उन नियमों को तोड़ती रही हैं। ‘‘रचनात्मकता का संबन्ध साक्षर या शिक्षित होने से जरा भी नहीं। सांस्कृतिक दृष्टि से नितांन्त असंस्कृत महाकवि र्भृहरि के पात्र,’’ बहुत से शिक्षितों के हाल सब जानते हैं।’’ 
                    कलाओं की मूल्य दृष्टि-हेमन्त शेष की पुस्तक उद्धृत यह अंश कला शिक्षा के स्वरूप को परिलक्षित करता है अब सवाल यह है कि कला आन्दोलनों की स्थिति को कला शिक्षा से कैसे जोड़ा जाय, यही भारतीय कला आन्दोलन की प्रासांगिकता को चिन्हित कराने में सहायक होगा जबकि समकालीन कलाकारों की सूची में जिन नामों को शरीक किया गया है उनपर सवाल उठेगे कि उनके मानदण्ड क्या हैं ? उनको समझने के लिए कला के विकास की अवधारणाओं को समझना होगा जिनकी वजह से कला में बदलाव उत्पन्न हुए। 
                   अब तक कि कला प्रक्रिया में 1947 के प्रोग्रेसिव ग्रुप में-के0 एच0 आरा, एस0 के0 भाकरे, एम0 एफ0 हुसेन, एच0 ए0 गैडे, एस0 एच0 रजा, एस0 एन0 सूजा जिन छह कलाकारों को प्रोग्रेसिव ग्रुप में सुमार किया जाता है वह जिन विशेषताओं की वजह से जाने जाते हैं। परन्तु प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप का 1956 में विभाजन और स्वाभाविक रूप से दूर हुए फीका, समूह के कलाकारों को अपनी व्यक्तिगत शैली बनाने में व्यस्त थे. पीएजी के साथ जुड़े कलाकारों की सूची में लगभग सभी महत्वपूर्ण कलाकार लगभग 1950 में बंबई में काम कर रहे कलाकारों को भी शामिल किया जा सकता है। छह संस्थापक सदस्यों के अलावा, जुड़े कलाकारों मंे निम्न कलाकारों के नाम भी समिमलित हैं-वी.एस. गायतोंडे, कृष्ण खन्ना, अकबर पदमसी, तैयब मेहता, राम कुमार, बाल छाबड़ा के बीच भरोसा कर सकते हैं। यह प्रगतिशील समूह है, जो नए प्रतिभा को कोकून के बाहर उभरने में मदद किया था। कुछ तत्कालीन दौर के भारतीय कलाकारों की पीढ़ी जो पहले के कलाकारों ने जो उनके लिए मार्ग प्रशस्त करने के लिए उनकी अभिव्यक्ति के विविध प्रतिभाओं के मालिक है और भारतीय समकालीन कला के उन्नायक भी।        
                 आज कई ज्ञात अज्ञात भारतीय कलाकारों की व्यक्तिगत शैली है जिसे वे सक्षम करने में एवं आगे ले जाने में लगे हैं, और यह समाज में स्वीकृति प्राप्त करने के लिए निरन्तर यत्न कर रहे हैं। समकालीन कला आन्दोलन को आगे ले जाने में जिन कलाकारों ने अपना योगदान बेनामी या गुमनामी में किया है वह भी इस आन्दोलन के लिए उतने ही महत्वपूर्ण हैं। 
                वर्तमान दौर का कलाकार उनसे दूर तो हुआ है परन्तु कलामूल्यों को लेकर नहीं, जबकि नयी पीढ़ी के दौर में रचना प्रक्रिया के तौर तरीकांे ने कई नये आयाम कला को दिए हैं जिनमें स्थान विशेष का जिक्र किया जाना उतना महत्व का नहीं है जितना उनकी प्रक्रियाओं का यह कार्य कमोवेश देश के हर हिस्से में हुआ है। जिनकी वजह से भारतीय कला ने अपनी उपस्थिति कायम की है। 
              वहीं दूसरी ओर जहां बड़े संस्थानों के कलाकार अपनी पहचान बनाने में कामयाब रहे और जिनसे ऐसा नहीं हुआ दोनो के अलग ग्रुपों ने कला जगत में अपनी छाप छोड़ी है उसका मूल्यांकन कब होगा इसकी घोषणा करना संभव नहीं है जब समकालीन व्यवस्था इन कलाओं के भविष्य से आंख मूंद लेती है तब कलाओं के पतन का दौर आरम्भ हो जाता है। 
              आगे समकालीन कला और कला शिक्षा पर नजर डालने पर कई तत्व सामने आते हैं जिनका उल्लेख यहां करना वाजिब होगा। आजादी के पूर्व और उसके उपरान्त जिस तरह से विविध क्षेत्रों में बदलाव शुरू हुए उनमें कला का स्थान भी महत्व का रहा है राष्ट्र्ीय कला अकादमी की स्थापना, विभिन्न विश्वविद्यालयों में कला शिक्षण की सुविधा तथा अनेक कला महाविद्यालयों की स्थापना। 
              इस बीच की कला उपलब्धियां और उनका मूल्यांकन किया जाय तो अनेक महत्वपूर्ण तथ्य प्रकाश में आते हैं। उन मनिषियों ने जिन्होंने भारतीय कला तत्वों एवं तकनीकी ज्ञान की स्थाई स्थापना के अध्ययन की नींव डाली होगी। परन्तु आज ये संस्थान उस समय की आकल्पित उक्त अवधारणा के उन स्वरूपों में जिस उत्थान की परि कल्पना की गयी थी उसका स्वरूप क्या हो गया है वह विचारणीय है।  उनकी अवधारणओं का जो प्रस्फुटन हुआ वह उन विकासशील स्वरूपों में न होकर जिन स्वरूपों में हुआ है वह किसी भी तरह भारतीय कला का प्रतिनिधित्व नहीं करता। यहां विशेषकर बंगाल, बड़ौदा और मुंम्बई को लिया जा सकता है। परन्तु थोक में जिन कला प्रक्रिया को अनेक महाविद्यालयों में अपनाया जा रहा है, जिनकी दशा दिशा को समझने के लिए अनेक कला शिक्षण संस्थानों का नाम लिया जा सकता है। 
              इनके अतिरिक्त आधुनिक कला के बहाने समकालीन दौर की कला प्रक्रियाओं से विमुख अनेक शिक्षण संस्थानों की स्थिति तो और भी सोचनीय है। जिस तरह इनके शिक्षण साम्राज्य स्थापित हुए उनके कर्णधारों ने कला को नहीं किसी और विन्दु को महत्वपूर्ण करके जिस अ-कला को ही बढ़ाया गया  है। यह भयावह दौर कला की इस वर्तमान स्थिति को इस स्थिति तक लाने में निश्चित तौर पर एक जटिल प्रक्रिया के अधीन आकर या होकर जहां तक पहुंचा है उसके अनेक उदाहरण हमें मिलते हैं। जिसके प्रभावी या अ-प्रभावी प्रभाव का मूल्यांकन कब होगा, कहना कठिन है। इसके और भी कारण हैं जिनमें विभिन्न प्राथमिक विद्यालयों की जटिल कला शिक्षा व्यवस्था या यूं कहें कि व्यवसायिक अवस्था के कारण मौलिक पद्धतियों की वजाय निहायत व्यवसायिक आधार ने जो कमजोर आधार खड़ा किए हैं वह शैक्षिक प्रक्रिया को प्रभावित करने में बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान दिया है। यदि हम इसका अध्ययन निम्न विन्दुओं के आधर पर करें तो जो परिणाम सामने आएंगे उन्ही से सच्चाई का आकलन किया जा सकता है। यथा-  विद्यार्थी,शिक्षक,पाठ्यक्रम,क्लास,स्ंासाधन,परीक्षा प्रणाली एवं व्यवस्थागत मानसिकता का मूल्यांकन किया जाना आज की समकालीन कला के स्वरूप को स्पष्ट करता है। 
             जिनका मतलब सीधे सीधे कलाओं को दयनीय बनाकर अपनी चेरी बनाना मात्र रह गया है। यही कारण है कि इस तरह के संस्थान कलाओं की वजाय कलाओं की अनुकृति कराने के केन्द्र मात्र बनकर रह गए हैं। यही नहीं अब तो इनकी यही व्यवस्था गुरूशिष्य की परम्परा बन गयी है। इनके उदाहरण हमें अनेक कला शिक्षकों के रोने धोने में दिखाई ही दे जाता है यथा आजकल के बच्चों के पास वक्त ही नहीं है क्लास में ही नहीं आते हैं, गांव के बच्चे न जिनके पास सामग्री होती है और न ही उन्हें समझ, उनके गार्जियन भी ऐसे हैं, इसलिए पाठ्यक्रम ऐसा रखिए जिससे काम आसानी से निकल जाए। और आश्चर्य जनक यथार्थ से रूबरू होना पड़ा है इस कला शिक्षा के जिम्मेदार शिक्षक होने का अरमान रखने के कारण। यहां उस यथार्थ की वानगी - स्नातक और स्नातकोत्तर स्तर के कल शिक्षण की आवश्यक सुविधाओं पर नजर डालें तो उनका कोई मानदण्ड लिखित रूप में कहीं उपलब्ध नहीं है, पर प्रयोगात्मक कक्षाओं की सामान्य व्यवस्था अनेक उन्नत कला महाविद्यालयों तक में उपलब्ध नहीं है जो अपने आप में एक बड़ी विडम्बना है।           
              यदि इनके विस्तार की बात की जाए तो उत्तरोत्तर उन प्रवृत्तियों को ही बढ़ावा मिल रहा है जिसमें कला मूल्यों एवं उनकी मौलिकताओं का अभाव है। इनके स्पष्ट कारण जो दिखाई दे रहे हैं उनमें कला की शिक्षण संस्थाएं, उपयुक्त संसाधन और निपुड़ ज्ञानदाताओं की अनुपलब्धता भी महत्वपूर्ण हिस्सा है। इनसे भी महत्वपूर्ण यह है कि कलाकार बनने के लिए शिक्षा ग्रहण कर रहे शिक्षार्थी जो हैं वह या तो डिग्री के लिए अच्छे अंक पाने के लिए किसी न किसी प्रकार अपने कोर्स पूरे करते हैं। जबकि वे सब कलाकार के पाकर नौकरी के लिए। इसके विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि जितने कलाकार इन क्षेत्रों में दिखाई देने चाहिए थे वास्तविकता उनसे परे हैं। जो इस प्रकार के कलाकार हैं वह सतह पर कितने नजर आते हैं उन परिक्षेत्रों में जहां पर कला के ऐसे संस्थान हैं। अनेक कला महाविद्यालयों में इन स्थितियों से भिन्नता दिखाई तो देती है। 


              यही कारण है कि जिस स्थान पर कला को होना चाहिए था आज वहां नहीं है। इन्ही कारणों से आज की कला शिक्षा में जिन मूल्यों की प्रतिस्थापना होनी चाहिए थी कहीं न कहीं उनका संकट उपस्थित है। पर नित नए संस्थान जन्म ले रहे हैं जहां केवल और केवल यह हो रहा है कि शिक्षण प्रशिक्षण की कला का विकास तो हो रहा होगा पर कला के शिक्षण प्रशिक्षण की कला मूल्यों एवं उनकी मौलिकताओं का अभाव है यही कारण है कि सारी प्रक्रियाएं ठहरी हुयी सी प्रतीत हो रही हैं। हो सकता है कल कोई कला जिज्ञासु आए और इनको झकझोरने की कोशिस करे। फिर इनकी नींद टूटे और कला सृजन की संभावनाओं की भी इन्हे भी चिन्ता हो जो केवल और केवल नौकरियों वाली कला शिक्षा, उपाधियां उपलब्धियों की जगह ले ली हैं ।
लेखक का परिचय 
अध्यक्ष 
असोसिएट प्रोफ़ेसर 
चित्रकला विभाग , एम्.एम्.एच.कालेज  गाजियाबाद
(चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय मेरठ से सम्बद्ध)



























चित्र प्रदर्शनी-ललित कला अकादमी नई दिल्ली -2011

ललित कला अकादमी नई दिल्ली की रबिन्द्र भवन गैलरी में आयोजित चित्र प्रदर्शनी दिनांक मार्च १३ से १९,२०११ के मध्य में आये महानुभाव के कुछ चित्र -